बुधवार, 30 जून 2010

असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

पहाड़ हो चाहे मैंदान, मरूस्थल हो चाहे समुद्री किनारा- जल, जंगल, जमीन से बेदखल किए जाते स्थानीय निवासियों पर चलने वाले डण्डे की मार एक जैसी ही है। हरे चारागाहों के शिकारी पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन जैसे तर्कों से लदी भाषा के साथ न सिर्फ कानूनी रूप से बलपूर्वक, बल्कि जनसंचार के माध्यमों के द्वारा विभ्रम फैलाकार सामाजिक रुप से भी, खुद को दुनिया को खैरख्वाह और स्थानीय निवासियों को उसका दुश्मन करार देने की कोशिश में जुटे हैं। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से लाता गांव में उत्तर चिपको आंदोलन के बाद शुरु हुए  छीनों-झपटो आंदोलन के प्रणेता धन सिंह राणा का यह खुला पत्र जिसका संपादन डॉ सुनील कैंथोला ने किया है, ऐसे ही सवालों से टकराता हुआ कुछ प्रश्न खड़े कर रहा है। पत्र मेल द्वारा भाई सुनील कैंथोला के मार्फत पहुंचा है।     



असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

सेवा में,
प्रो.सत्या कुमार
भारतीय वन्य जीव संस्थान
देहरादून, भारत


आदरणीय साहब,
आशा है कि आप स्वस्थ और राजी खुशी होंगे और आपका रिसर्च करने का धंधा भी ठीक-ठाक चल रहा
होगा। हम भी यहां गांव में ठीक-ठाक हैं। ऐसा कब तक चलेगा, ये तो ऊपर वाला ही जानता है लेकिन हमारा अभी तक भी बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंकि गांव में सड़क से ऊपर पर्यावरण संरक्षण का शिकंजा है और सड़क से नीचे बन रहे डाम का डंडा हम सब पर बजना शुरू हो चुका है। यहां पिछले कई वर्षों से हम आपका बड़ी बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं। हमें लगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण का इतना बड़ा पुजारी है कि जिसके शोध के हिसाब से हमारी भेड़-बकरी के खुर पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो नंदा अष्टमी के अवसर पर नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में सदियों से चली आ रही दुबड़ी देवी की पूजा तक को बंद करवाकर इस आजाद देश में धार्मिक स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकार तक छीन ले, वह महान वैज्ञानिक हमारे गांव की तलहटी पर बन रहे डाम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर अवश्य चिंतित होगा और अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर बांध का निर्माण चुटकी बजाते ही रुकवा देगा। अब हमें लगने लगा है कि हो न हो दाल में जरूर कहीं कुछ काला है। अत: इस शंका के निवारण के लिए ही गांव के बड़े बुजुर्गों की सहमति से यह पत्र आपको लिख रहा हूं।
आदरणीय साहब,
आप तो हिमालय के चप्पे-चप्पे में घूमे हैं। आपकी शिव के त्रिनेत्र समान कलम ने हिमालय में निवास करने
वाले लाखों परिवारों की आजीविका और संस्कृति का संहार किया है। पूरे विश्व का बि(क समाज आपके इस
पराक्रम के आगे नत मस्तक है। ऐसे में हे! मनुष्य जाति के सर्वश्रेष्ठ संस्करण, आपकी ही कलम से ध्वस्त हुआ
मैं, धन सिंह राणा और उसका समुदाय, आपको, आपके जीवन के उन गौरवशाली क्षणों की याद दिलाना चाहते हैं, जब आपने हमारा आखेट किया था।

हे ज्ञान के प्रकाश पुंज,

नाचीज, ग्राम लाता का एक तुच्छ जीव है, जो पिछले जन्मों के पापों के कारण मनुष्य योनि में पैदा हुआ। मेरा
गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी में स्थित है। यह इलाका भारत में पड़ता है और पूरे विश्व में नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यदि मेरी स्मृति सही है, तो हमारी भूमि पर आपके कमल रूपी चरण पहली बार संभवत: 1993 में पड़े थे। आप भारतीय सेना के एक अभियान दल के साथ नंदादेवी कोर जोन के भ्रमण पर आए थे, जिसमें सेना के सिपाहियों ने नंदा देवी कोर जोन से कचरा साफ किया था। आपसे दिल की बात कहना चाहता हूं, जिसे आप लोग कचरा कह रहे थे, उसमें अनेक चीजें ऐसी थी कि जिन्हें देखकर हमारी लार टपक रही थी। मुझे याद है कि जब अपने गांव से हम लोग पोर्टर बनकर नंदादेवी बेस कैंप जाते थे, तब महिलाओं का एक ही आग्रह होता था कि बेस कैंप से दो-चार खाली टिन के डिब्बे लाना मत भूलना। टिन के ये खाली डिब्बे हमारे नित्य जीवन में बड़ी सक्रिय भूमिका निभाया करते थे। अभियान दल की वापसी पर आप लोगों द्वारा ग्राम रैंणी के पुल पर एक मीटिंग का भी आयोजन किया था, जिसमें आपने फौज द्वारा लाए गए कचरे को हमारे सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया था, जैसे कि वह हमारे द्वारा प्रकृति के साथ किए गए अपराध का ठोस सबूत हो।
...जारी

सोमवार, 21 जून 2010

यादों के झरोखों में पिता

                                                                                         रस्किन बॉन्ड

जब आपकी उम्र महज नौ बरस हो और आपको स्कूल से एक पूरे के पूरे दिन की छुट्टी मिल जाए और आप अपने अद्भुत और महान पिता के साथ एक समूचा यादगार दिन बिता सकें, तब तो निश्चित तौर पर वह दिन और वह साल आपकी जिंदगी का सबसे बेहतरीन साल होगा। भले ही उसके बाद दुख और असुरक्षा का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला हो, लेकिन वह एक साल तो सबसे अनूठा होगा ही।

यह मेरे माता-पिता के एक-दूसरे से अलग हो जाने के बाद की बात है। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पिताजी रॉयल एयर फोर्स (आरएएफ) की नौकरी में थे। उस दौरान वे गर्मियों और जाड़ों की छुट्टियों में नई दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर किराए पर लिए अपार्टमेंट में मुझे अपने साथ ले जाया करते थे - हेली रोड, अतुल ग्रोव लेन, सिंधिया हाउस। किराए पर अपार्टमेंट इसलिए क्योंकि उन्हें जो क्वार्टर मिला था, उसमें किसी बच्चे को रखने की इजाजत नहीं थी। मुझे यह किराए के अपार्टमेंट वाला मामला बहुत सही लगता था।

दिल्ली में मैंने बहुत शानदार वक्त बिताया। वहां मैं सिनेमा देखने जाता, मिल्क शेक गटकता, पिता के स्टैंप कलेक्शन में उनकी मदद करता। इस तरह मैंने अद्भुत वक्त गुजारा, लेकिन यह सुंदर वक्त हमेशा नहीं बना रह सका और जब मेरे पिता का तबादला कराची हो गया तो उनके पास सिवाय इसके और कोई विकल्प नहीं था कि वे मुझे बोर्डिग स्कूल में डाल दें। वह शिमला का बिशप कॉटन स्कूल था।
हालांकि मैं एक शर्मीला लड़का था, पर मैं उस छोटे से स्कूल के दोस्ताना माहौल में बहुत अच्छे से रच-बस गया था। लेकिन मुझे अपने पिता और उनके साथ की बहुत याद आती थी और जब गर्मियों के बीच मिली छुट्टी में वे मुझसे मिलने आए तो मैं खुशी और उत्साह से फूला नहीं समाया। पिताजी के पास एक-दो दिनों की ही छुट्टियां थीं, इसलिए वह मुझे सिर्फ एक दिन अपने साथ बाहर घुमाने के लिए ले गए और शाम को वापस स्कूल लाकर छोड़ दिया।

पिताजी जब रॉयल एयर फोर्स की अपनी यूनिफॉर्म में आते थे तो मुझे उन पर बहुत गर्व महसूस होता था। यूनिफॉर्म पर फ्लाइट लेफ्टीनेंट का बैच साफ नजर आता था। उसी समय पिताजी की पदोन्नति हुई थी। वह चालीस वर्ष के हो चुके थे और अब ज्यादा हवाई जहाज नहीं उड़ाते थे। वह नाटे कद के और थोड़े गठीले बदन वाले थे। वह थोड़े गंजे हो रहे थे, लेकिन अपनी यूनिफॉर्म में बहुत स्मार्ट लगते थे। मैंने उन्हें सैल्यूट किया। मुझे सैल्यूट करना बहुत पसंद था। उन्होंने भी वापस पलटकर मुझे सैल्यूट किया और उसके बाद आगे बढ़कर मुझे गले से लगा लिया और मेरे माथे को चूमा।
‘और बेटा, आज तुम क्या करना पसंद करोगे?’

‘चलिए डेविको चलते हैं।’ मैंने तपाक से कहा।

डेविको शहर का सबसे अच्छा रेस्टोरेंट था, जो अपनी मेरैंगे, मार्जीपैन, करी पफ (मिठाई के प्रकार) और पेस्ट्री के लिए प्रसिद्ध था। इसलिए हम डेविको गए और फिर जाहिर सी बात है कि वहां पर मैं मिठाइयों के ऊपर टूट पड़ा, जैसे एक छोटा स्कूल का बच्च ही टूट सकता है।

दोपहर के खाने में तो अभी काफी वक्त है। तो क्यों न थोड़ा टहल लिया जाए,’ पिताजी ने सुझाव दिया। साथ में और भी ढेर सारी पेस्ट्री लेकर हम मॉल से बाहर निकल आए और जैको पहाड़ी के ऊपर बंदरों वाले एक मंदिर के पास टहलने लगे। यहां पर बंदरों ने पेस्ट्री का काम तमाम कर दिया और हमें उससे निजात दिला दी। एक बंदर मेरे हाथ से पेस्ट्री का पैकेट छीनकर भाग खड़ा हुआ। फिर इससे पहले कि मुझे दोबारा भूख लग जाए, हम जल्दी-जल्दी में लौटकर नीचे आए। छोटे बच्चों और बंदरों में काफी समानता होती है।

पिताजी ने एक आइडिया दिया कि क्यों न रिक्शे पर बैठकर इलिजियम पहाड़ी का चक्कर लगाया जाए और हमने बड़ी स्टाइल से ये काम किया। हम चार हट्टे-कट्टे कद्दावर रिक्शे वालों के रिक्शे पर बैठे। पिताजी ने इसी दौरान मौके का फायदा उठाते हुए मुझे किपलिंग की कहानी फैंटम रिक्शा सुनाई (ये छपी किताब के रूप में फैंटम रिक्शा ढूंढ़ने से पहले की बात है)। साथ ही और भी कई मजेदार कहानियां सुनाईं, जिन्हें सुनकर मेरी भूख दुगुनी हो गई।

हमने वेनेगर में खाना खाया और फिर पिताजी ने कहा, ‘बहुत हो गया रस्किन, चलो अब सिनेमा देखने चलते हैं।’ मुझे सिनेमा देखने का बेहद शौक था। मैं दिल्ली के सिनेमा हॉलों को बहुत करीब से जानता था और शिमला के सिनेमा हॉल खोजने में भी मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा।

हम रिवोली सिनेमा गए। रिवोली नीचे आइस स्केटिंग रिंक और ओल्ड ब्लेसिंगटन होटल के पास था। फिल्म भी किसी आइस स्केटर के बारे में थी। फिल्म की हिरोइन थी सोंजा हेनी, जो नॉर्वे की खूबसूरत और जवान ओलिंपिक चैंपियन थी और उसने हॉलीवुड की कुछ संगीतमय फिल्मों में काम किया था। पूरी फिल्म में उसे कुछ खास नहीं करना था सिवाय स्केटिंग करने के और खूबसूरत दिखाई देने के और उसने पूरे कौशल के साथ यह भूमिका निभाई। मैंने निश्चय किया कि मैं सोंजा हेनी से प्यार करूंगा, लेकिन जब तक मैं बड़ा हुआ और मेरे स्कूल की पढ़ाई खत्म हुई, उसने स्केटिंग करना और फिल्मों में काम करना बंद कर दिया। जाने सोंजा हेनी का क्या हुआ?
फिल्म खत्म होने के बाद स्कूल वापस लौटने का समय हो चुका था। हम छोटा शिमला के पूरे रास्ते पैदल चलते हुए आए। हम अगली जाड़े की छुट्टियों के बारे में बात करते रहे और इस बारे में कि जब युद्ध खत्म हो जाएगा तो हम कहां जाएंगे। पिताजी ने कहा, ‘अब मैं कलकत्ता में रहूंगा। वहां किताबों की दुकानें, सिनेमा हॉल और चायनीज रेस्टोरेंट हैं। हम ढेर सारे ग्रामोफोन रिकॉर्ड खरीदेंगे और स्टैंप कलेक्शन को और बढ़ाएंगे।’ उस वक्त शाम हो चुकी थी, जब हम धीरे-धीरे कदम बढ़ाते स्कूल के गेट पर पहुंचे। वहां दो दोस्त बिमल और रियाज मेरा इंतजार कर रहे थे। पिताजी ने उनसे बात की और उनके घरों ंके बारे में पूछा। तभी घंटी टनटनाने लगी। हम सबने एक-दूसरे को गुडबाय कहा।
‘रस्किन, इस दिन को याद रखना।’ पिताजी ने कहा। फिर उन्होंने आहिस्ता से मेरे सिर को थपथपाया और वापस चले गए।

मैंने उन्हें फिर दोबारा कभी नहीं देखा।

तीन महीने बाद मुझे पता चला कि कलकत्ता के एक मिल्रिटी अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। मैं आज भी कई बार उन्हें सपने में देखता हूं और मेरे सपनों में वह हमेशा बिल्कुल वैसे ही होते हैं- मेरा ख्याल रखते हुए, मेरी हथेली थामकर मुझे जाने-पहचाने रास्तों पर टहलाते हुए। और बेशक, मुझे वह दिन अच्छी तरह याद है। तकरीबन 65 साल गुजर चुके हैं, लेकिन वह दिन ऐसे ताजा है मानो कल की ही बात हो।
लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

शनिवार, 12 जून 2010

पहाड़ की ढलानों पर

पहाड़ की

इन ढलानों पर

कपास के फाहे

की तरह गिरती है बर्फ़

और ज़िंदगी बुनती है

भविष्य के सपने।

पहाड़ की

इन ढलानों पर

अठखेलियाँ करती है चाँदनी

रात भर।

अलसायी धूप की लकीरें

डालती हैं डेरा

दिन भर।

पहाड़ की

इन ढलानों पर

बर्फ़ के पिघलते ही

महकते हैं वनफूल।

हवा के संग

गूँजते हैं लोकगीत

बजते हैं ढोल-नगाड़े

झूमते हैं देवता

ज़िंदगी चहक उठती है

पहाड़ की

इन ढलानों पर।

दूर कहीं जलती है

लालटेन

पगडंडी से होकर

ज़मीन पर उतर आता है आसमान

पहाड़ की

इन ढलानों पर


- मुरारी शर्मा