मंगलवार, 31 अगस्त 2010

शिमला के वे दिन

खुशवंत सिंह
चार बरस की उम्र से लेकर देश को आजादी मिलने के कुछ साल बाद तक शिमला छुट्टियां बिताने के लिए मेरी सबसे पसंदीदा जगह थी। मेरे पिता और मेरे चाचा उज्जल सिंह ने दो परिवारों के रहने के लिए शिमला में एक घर किराए पर ले रखा था, लेकिन मैं इस शहर के कई अलग-अलग हिस्सों में रह चुका हूं।

वहां मेरा सबसे पहला बसेरा छोटा शिमला में था। उसके बाद जब मेरे चाचा पंजाब के विधायक बन गए तो मैंने दो गर्मियां एमएलए क्वार्टर में बिताईं। फिर हम पहाड़ियों के ऊपर सैरगाह की तरफ रहने चले गए। वहां रहने वाले कांग्रेस पार्टी के विधायक के दो पोते (एक चार साल का और दूसरा पांच साल का) हमें देखकर फिकरे कसने लगते थे। इसके बाद मेरे पिता ने मशोबरा के समीप एक शानदार हवेली खरीद ली, जिसका नाम था एप्पल ट्री हाउस।

उन्होंने यह हवेली एक अंग्रेज से ली थी, जो 1947 के बाद अपने देश लौट गया था। हमने इसका नाम बदलकर सुंदरबन कर दिया। हवेली के बगीचे में सेब और चेरी के ढेरों दरख्त थे। इसके अलावा वहां सेब से शराब बनाने का एक छोटा सा कारखाना, बियर ठंडी करने के लिए बर्फ का एक खंदक, एक बिलियर्ड रूम, बड़े से पियानो वाला एक डांस हॉल और एक टेनिस कोर्ट भी था। मेरे लिए शिमला की सबसे खुशगवार यादें सुंदरबन में बिताए दिनों की ही हैं।

जब वादियां धूप से धुली होतीं तो सुंदरबन के झरोखे से बर्फ से लदे पहाड़ों का खूबसूरत नजारा दिखाई देता था। नीचे छोटी-छोटी नदियों की धाराएं बहा करती थीं। गांवों की किशोरियां घास काटते समय कोई गीत गुनगुनाया करतीं। मैं अपनी शामें सैरगाह में बिताया करता था। मेरी सैरगाह की सरहद वेंगर्स रेस्टॉरेंट से शुरू होती। इसके बाद डेविकोज होता हुआ मैं स्कैंडल पॉइंट चला जाता और वहां खूब वक्त बिताता। मैं सुंदर-सलोनी महिलाओं और शहर के नामी-गिरामी लोगों को रिक्शे में बैठकर यहां से गुजरते देखता।

रिक्शा खींचने वाले लोग वर्दी में होते थे। मेरी पत्नी का भी कसौली में एक पुश्तैनी बंगला था। लेकिन एक बार मशोबरा से जाने के बाद मैं फिर कभी वहां लौटकर नहीं जा सका। ये तमाम खुशगवार यादें मेरे जेहन में तब ताजा हो गईं, जब मैंने मीनाक्षी चौधरी की किताब लव स्टोरीज ऑफ शिमला हिल्स (रूपा से प्रकाशित) पढ़ी। इससे पहले मीनाक्षी ने शिमला के भूतों और वहां के पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के बारे में लिखा था। उनकी ताजा किताब अव्यक्त प्रेम संबंधों के बारे में है। शिमला की प्रेम कहानियों पर मीनाक्षी की यह किताब इतनी सुंदर है कि उसे पढ़ते हुए हमें उनसे प्यार हो जाता है।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

उत्तराखंड के जनकवि 'गिरदा' का निधन


शालिनी जोशी
पहाड़ के जल, जंगल और जमीन के सरोकारों को लेकर अपनी कविताओं के जरिए जन-जन से संवाद करने की ताकत रखने वाले मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी 'गिरदा' का निधन हो गया.

हल्द्वानी के सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज में एक ऑपरेशन के बाद रविवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली. गिरीश तिवारी 'गिरदा' का जन्म 10 सितंबर, 1942 को अल्मोड़ा के एक गांव में हुआ था. अपने ओज और अक्खड़पन के कारण वो 'गिरदा' नाम से लोकप्रिय हुए.

बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'गिरदा' लोकधुनों और लोकमंच के तो जानकार थे ही, उनके गीत चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, अलग राज्य के उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन की पहचान थे.

गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती.
मंगलेश डबराल, हिंदी कवि
उन्होंने खुद भी कई आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई.

उन्हें सुनने और देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते. लोगों को एकजुट करने की उनमें गजब की शक्ति थी.

हिंदी में उनकी एक लोकप्रिय रचना है-

अजी वाह क्या बात तुम्हारी

तुम तो पानी के व्यापारी

सारा पानी चूस रहे हो

नदी समंदर लूट रहे हो

गंगा यमुना की छाती पर कंकड़ पत्थर कूट रहे हो

उफ़ तुम्हारी ए ख़ुदग़र्ज़ी चलेगी कब तक ए मनमर्ज़ी

जिस दिन डोलेगी ए धरती

सर से निकलेगी सब मस्ती

दिल्ली देहरादून में बैठे योजनकारी तब क्या होगा

वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा.
कुमांऊनी में उनका लिखा आज हिमालै तुमुकैं धत्यूंछौ... जागो जागो हो मेरा लाल...’ एक नारे की तरह जाना जाता है.

उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे.
ज़हूर आलम, नैनीताल के रंगकर्मी
देशभर के संस्कृतिकर्मियों और लोकचेतना से जुड़े साहित्यकारों और पत्रकारों में उनके जाने से शोक की लहर है.

वरिष्ठ हिंदी कवि मंगलेश डबराल ने कहा, " गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कृतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती. उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मियों के लिए उनकी मृत्यु बड़ा आघात है."

नैनीताल के रंगकर्मी ज़हूर आलम का कहना है, " उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया, वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे."

गिरदा नैनीताल में रहे लेकिन उनके विचार और काम का फलक पूरे पहाड़ में फैला था.

आखिरी दिनों में भी वो सक्रिय रहे थे. उनकी सादगी, प्रखरता, जीवंत और जुझारू व्यक्तित्व को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

कश्मीर को क्या चाहिए

कुमार प्रशांत
एक तरफ कश्मीर उबल रहा है, लोग मर और मार रहे हैं, शेष भारत से उनका जुड़ाव कम से कम होता जा रहा है, पाकिस्तान इसका फायदा उठाने में लगा है, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला बैठकें बुलाने और दिल्ली भागने से अधिक कुछ कर नहीं पा रहे। प्रधानमंत्री कश्मीर को लेकर बैठकें ही बुला रहे हैं और फारूक अब्दुल्ला बेटे की गद्दी बचाने की कोशिश से ज्यादा कोई पहल नहीं कर पा रहे। यह हमारा वह कश्मीर है, जिसे भारत का अभिन्न अंग बताने के लिए हम फेफड़े का पूरा जोर लगाते हैं, लेकिन गोली और गाली से अधिक कुछ भी खर्चने को तैयार नहीं होते। उमर अब्दुल्ला कश्मीर की किस्मत पलटने की संभावना बनकर वर्ष २००८ में आए थे। उम्र से भी, राजनीति की दकियानूसी चालों के प्रति हिकारत का भाव रखने के कारण भी और तथाकथित आधुनिक पीढ़ी के प्रतिनिधि होने के नाते भी देश ने सोचा था कि अब कश्मीर में नई पहल होगी। चुनाव में उमर को कश्मीरियों का अच्छा समर्थन मिला था। लेकिन आज वह कश्मीरी राजनीति के सबसे बदरंग पत्ते बनकर रह गए हैं। ऐसा ही उनके पिता के साथ हुआ था। ऐसा ही मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद के साथ हुआ। महबूबा मुफ्ती का तो आज हाल यह है कि वह किसी समस्या का हल नहीं, अपने आप में एक समस्या बन गई हैं।

वैसे भी, कश्मीर के बारे में हमारी राजनीतिक सोच शुरू से दिल्ली केंद्रित रही है। आज भी हम कश्मीर को राष्ट्रीय संकट के रूप में नहीं देखते। आखिर कितना नुकसान करने के बाद हमारी समझ में आएगा कि कश्मीर एक राज्य का नाम नहीं है, वह भारत जैसे बहुधर्मी-बहुभाषी देश के लिए राजनीतिक परंपरा व ढांचा बनाने की सबसे तीखी चुनौती का नाम है। बहुत संभव था कि हम कश्मीर के संदर्भ में ऐसा कुछ विकसित कर पाते! कश्मीर को यह भरोसा दिलाने की जरूरत है कि अपने राजनीतिक हित के लिए दिल्ली उसमें फेरबदल नहीं करेगी। अब भी उमर पर महबूबा की अवसरवादी राजनीतिक चालों का ज्यादा दबाव है। उमर जिस तरह से घिरते जा रहे हैं, दिल्ली उतनी ही उनके अधिकार अपने हाथ में समेटती जा रही है। रबर की मुहर जैसा मुख्यमंत्री कश्मीर को नहीं चाहिए।

कश्मीर को आज क्या चाहिए? भारत में बने रहने का राजनीतिक आधार! यह राजनीतिक भरोसा कि उसकी चुनी सरकार को दिल्ली उलटेगी नहीं; दिल्ली किसी भी राजनीतिक स्थिति की आड़ में उसे अपने कठपुतली नहीं बनाएगी; कश्मीर की स्थिति जितनी नाजुक है, उसमें यह खतरा तो केंद्र सरकार नहीं ही उठाएगी कि फौज को वापस बुला ले, लेकिन राजनीतिक दूरदर्शिता का तकाजा है कि फौज को तुरंत बैरकों में भेज दिया जाए और स्पेशल आर्मी पावर ऐक्ट को सारे देश में अप्रभावी घोषित किया जाए। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई को ढीला करने की जरूरत नहीं है, न सीमा पर ढील देने की जरूरत है और न पाकिस्तान की अनदेखी करने की जरूरत है। यह सब आसान नहीं है, लेकिन कश्मीर समस्या ही आसान नहीं है। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि राजनीतिक ईमानदारी और प्रशासनिक पारदर्शिता का माहौल बनाए बगैर आप कश्मीर में कुछ नहीं कर सकेंगे। कोई उमर अबदुल्ला इसीलिए लोगों में आशा जगाता है कि राष्ट्रीय राजनीति को निकट से जानने के कारण कश्मीर को वह राजनीतिक न्याय दिला सकता है। लेकिन वही उमर जब पुरानी राजनीतिक शैली की लकीर पीटते नजर आते हैं, तब निराशा गहरी होती है।