लक्ष्मी प्रसाद पंत
केदारनाथ त्रासदी को छह महीने होने को हैं । कुछ बेचैन सवाल हैं जिनका जवाब अभी तक प्रभावित परिवारों को नहीं मिला है । एक पत्रकार तौर पर मैं भी इन सवालों का जवाब देने मैं विफल ही रहा हूँ । अजीब लगता है कि सवाल मुझ तक तो पहुंच रहे हैं लेकिन जवाब वापस उन तक नहीं पहुंचा पा रहा हूं जिनके अपने अब तक केदारनाथ से नहीं लौटे हैं। अब बस निराशा, खुद पर झुंझलाहट।
मुझे रोज़ आज भी १०से १५ फोन (यह संख्या लगातार कम हो रही है) प्रभािवत परिवारों के आते हैं । इस उम्मीद में कि शायद जिंदगी का कोई संकेत मुझ तक पहुँचा हो । यह धुंधली आशा इसलिए है क्योंकि केदारनाथ त्रासदी के बाद मौक़े पर जाकर मैंने कुछ रिपोर्ट अपने अख़बार में लिखी हैं । फोन करने वाले ज़्यादातर राजस्थाऩ, दिल्ली,हरियाणा़, पंजाब़,छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश़,झारखंड और महाराष्ट्र से होते हैं ।
फ़ोन पर सवाल करने वाले अक्सर ग़ुस्से में होते हैं । जाहिर है कि वे भयानक यातना से गुजर रहे हैं और अब इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। उनकी आवाज़ में एक अजीब सी थरथराहट, ख़ुद के दर्द को क़ाबू में न रख पाने की छटपटाहट और कुछ तो चिल्ला चिल्ला कर उस वक़्त ख़ामोश होते है जब तक उनकी आंखों के आंसू सूख नहीं जाते । दर्द की दबी हुई भनभनाहट कभी- कभी करूण दहाड़ भी बन जाती है । और मैं चुपचाप सिर्फ सुनता हूँ । इस अजनबी रिश्ते से बस जुड़ता भर हूँ । मेरी कलाई की नीली नसें तनती हैं और फिर मुठ्ठी की पकड़ ढीली होने लगती है। व्याकुलता, हताशा़ और उदासी हावी होने की जैसे ही कोशिश करती है झल्लाकर उसे भी दूर फेंक देता हूँ ।
केदारनाथ में लापता लोगों के परिजन एक माह पहले तक मुझसे से एक ही सवाल करते थे, क्या कोई जिंदा लौटा? तुम तो पहाड़ी हो , पहाड़ों को पहचानते हो़, जानते हो, बचने की कोई उम्मीद है क्या? किसी ऊँचे पहाड़ी गाँव में हमारे अपने पनाह लिए हुए हो़ं और क्या मुमकिन है बचाव दल उन तक अब तक न पहुँचा हो ? इन सवालों का मेरे पास न कोई जवाब होता है, न कोई आश्वासन । बस मेरी कोशिश रहती है कि ऐसा ही कुछ कहूँ कि उनकी उम्मीद की अनिंश्चित्ता बनी रही और मैं औपचारिक अभिवादन की रस्म निभाता रहूँ ।
प्रभावित परिवारों के लोग छह माह बाद मुझसे अब यह सवाल करते हैं़़़़़़़़़! आपदा तो आ गई लेकिन आपदा के बाद राहत कार्यों में जो देरी हुई उसके जिम्मेदार लोगों पर अब तक कोई कार्रवाई हुई क्या ? मौतें आपदा के कारण नहीं राहत में देरी के कारण हुई? मौतें के जिम्मेदार म्मिेदार लोगों पर अब तक हत्या का मुक़दमा दर्ज क्यों नहीं हुआ? इस सवाल पर मेरी आँखों की पुतलियाँ भर हिलती हैं, हों ठ फिर भी ख़ामोश ही रहते हैं । न बेरुख़ी से, न शिष्टता से इस सवाल का सीधा जवाब दे पाता हूँ । हमारे बीच अफसोस वाली ख़ामोश ज़रूर छाई रहती है । कुछ देर बाद इस खामोशी से भी ऊब होने लगती है। आखिर लंबी खामोशी भी कब तक अपनापन जोड़ेगी?
केदारनाथ त्रासदी में अपने भाई को खो चुके ग्वालियर के रवि कुमार शिकायती लहजे में कहते हैं। सेना में जवान की जऱा सी लापरवाही पर कोर्ट आफ इनक्वारी शुरू हो जाती है। केदारनाथ में तो लापरवाही के कारण हजारों की मौतें हई हैं! छह हजार से ज्यादा तो आज भी लापता है। क्यों नहीं उत्तराखंड सरकार पर हत्या का मुक़दमा चलाया जा रहा ?
केदारनाथ में लापता लोगों के परिजन एक माह पहले तक मुझसे से एक ही सवाल करते थे, क्या कोई जिंदा लौटा? तुम तो पहाड़ी हो , पहाड़ों को पहचानते हो़, जानते हो, बचने की कोई उम्मीद है क्या? किसी ऊँचे पहाड़ी गाँव में हमारे अपने पनाह लिए हुए हो़ं और क्या मुमकिन है बचाव दल उन तक अब तक न पहुँचा हो ? इन सवालों का मेरे पास न कोई जवाब होता है, न कोई आश्वासन । बस मेरी कोशिश रहती है कि ऐसा ही कुछ कहूँ कि उनकी उम्मीद की अनिंश्चित्ता बनी रही और मैं औपचारिक अभिवादन की रस्म निभाता रहूँ ।
प्रभावित परिवारों के लोग छह माह बाद मुझसे अब यह सवाल करते हैं़़़़़़़़़! आपदा तो आ गई लेकिन आपदा के बाद राहत कार्यों में जो देरी हुई उसके जिम्मेदार लोगों पर अब तक कोई कार्रवाई हुई क्या ? मौतें आपदा के कारण नहीं राहत में देरी के कारण हुई? मौतें के जिम्मेदार म्मिेदार लोगों पर अब तक हत्या का मुक़दमा दर्ज क्यों नहीं हुआ? इस सवाल पर मेरी आँखों की पुतलियाँ भर हिलती हैं, हों ठ फिर भी ख़ामोश ही रहते हैं । न बेरुख़ी से, न शिष्टता से इस सवाल का सीधा जवाब दे पाता हूँ । हमारे बीच अफसोस वाली ख़ामोश ज़रूर छाई रहती है । कुछ देर बाद इस खामोशी से भी ऊब होने लगती है। आखिर लंबी खामोशी भी कब तक अपनापन जोड़ेगी?
केदारनाथ त्रासदी में अपने भाई को खो चुके ग्वालियर के रवि कुमार शिकायती लहजे में कहते हैं। सेना में जवान की जऱा सी लापरवाही पर कोर्ट आफ इनक्वारी शुरू हो जाती है। केदारनाथ में तो लापरवाही के कारण हजारों की मौतें हई हैं! छह हजार से ज्यादा तो आज भी लापता है। क्यों नहीं उत्तराखंड सरकार पर हत्या का मुक़दमा चलाया जा रहा ?
केदारनाथ त्रासदी के प्रभावित परिजनों के जिंदा, धडक़ते हुए इस ग़ुस्से में रोज़ रूबरू होता हूँ । सावधानी से संभालने की कोशिश भी करता हूँ । लेकिन आपदा के बेरहम जख्मों के निशानों को न मैं छू पाता हूँ, न प्रभावितों के पक्ष में व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो पाता हूँ । काश, कोई केदारनाथ त्रासदी के कारणों और लापरवाही से हुई मौतों की गुप्त गवाही देकर बेदर्द व्यवस्था बेपर्दा कर देता।
दरअसल केदारनाथ एक मुहावरा बन गया है मौत का, दर्द का। हमारी व्यवस्था बेरहमी से इसे गुनगुना रही है......और मैं यह बताना चाहता हूँ कि मुझे सिर्फ बेहद-बेहद अफ़सोस है।