राजधानी दिल्ली में आजादी- एक मात्र रास्ता, सेमिनार ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बडा प्रश्न तो यही है कि क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पृथकतावादी ताकतों को देश की अखंडता को ललकारने की आजादी दे सकती है?
यह सेमिनार कश्मीर की आजादी को लेकर था और यह पहली बार हुआ है कि जब सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में आकर सीधे तौर पर चुनौती दी है। बीजेपी से जरूर विरोध के स्वर आए हैं लेकिन राष्ट्रीयता से गहरे लगाव रखने का दावा करने वाली इस पार्टी ने दरअसल राष्ट्रीयता को बदनाम ही किया है। इस सेमिनार पर मनमोहन की चुप्पी असहज लगती है क्योंकि राजधानी में गिलानी भारत की संप्रभुता और प्रधानमंत्री की सत्ता को ही खारिज कर रहे थे। गृहमंत्री चिदंबरम यह कहकर बच रहे हैं कि हमने पूरे कार्यक्रम की वीडियोग्राफी की है लेकिन सवाल यही है इस सेमिनार की अनुमति ही क्यों दी गई?
याद कीजिए कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान न्यूजीलैंड के एक टीवी एंकर की उस नस्लीय टिप्पणी को जिससे मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सहित पूरा विदेश मंत्रालय बौखला गया था। भारतीय प्रतिरोध इतना मुखर था कि टीवी चैनल को मजबूरी में ही सही एंकर को बर्खास्त करना पड़ा। लेकिन यहां पाकिस्तान परस्त एक शख्स हमारी संप्रभुता और संविधान को ललकार रहा है और हम चिरखामोशी में हैं। इस मसले पर कश्मीरी पंडितों की संस्था पुन्नुन कश्मीर का आक्रामक विरोध काबिल-ए-गौर है लेकिन विरोध की इस तल्खी को भी किसी प्रिंट और न्यू मीडिया में ठीक से जगह नही मिल पाई।और अब बेचैनी इसलिए भी हैं कि क्योंकि अगर हम यूं ही चुप रहे और भारत भी रूस की तरह बिखर गया तो क्या होगा?
अपने संपादकीय मेंकुछ अखबारों ने जरूर इस सवाल को उठाया है। पेश-ए-नजर।
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अलगाव का प्रचार
गुरुवार की दोपहर जब सुरक्षा बल श्रीनगर के नजदीक एक मकान में छिपे आतंकवादियों का मुकाबला कर रहे थे, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कश्मीर की आजादी की वकालत करने के लिए एक सेमिनार हो रहा था। ‘आजादी - एकमात्र रास्ता’ इस सेमिनार की थीम थी और हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी इसमें प्रमुख वक्ता थे।
कश्मीरी पंडितों की संस्था ‘पुनुन कश्मीर’ के कार्यकर्ताओं ने इस सेमिनार में अलगाववादियों की मौजूदगी का तीखा विरोध किया और हंगामे के दृश्य सारे देश ने टीवी न्यूज चैनलों पर देखे। इस पूरी घटना ने देशवासियों के मन में कुछ बेचैन सवालों को जन्म दिया है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार देता है। अनुच्छेद 19 में वर्णित यह अधिकार एक नागरिक के रूप में हमारी स्वतंत्रता की गारंटी है। लेकिन क्या देश की एकता व अखंडता के खिलाफ बोलना या अलगाववाद की वकालत करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है?
मुख्य विपक्षी दल भाजपा का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश के किसी भी हिस्से को अलग करने की वकालत नहीं की जा सकती। इसीलिए उसने केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे ‘अस्वीकार्य विचारों’ के प्रचार की इजाजत देने के लिए सरकार की तीखी आलोचना की है। जवाब में केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा है कि सरकार ने पूरे आयोजन की फिल्म बनाई है और अगर कुछ ऐसा हुआ है जो संविधान सम्मत नहीं था, तो कानून मंत्रालय की राय के बाद कार्रवाई की जाएगी।संवैधानिक और राजनीतिक बहस के अलावा देश के जनमानस में बेचैनी की वजह दूसरी भी है। भारतीय राष्ट्र-राज्य की स्थापना को अभी छह दशक से कुछ ही ज्यादा समय हुआ है और राष्ट्रों के निर्माण के लिहाज से यह बहुत ज्यादा समय नहीं होता।
हालांकि इन छह दशकों में भारतीय राष्ट्र-राज्य ने काफी मजबूती हासिल की है, लेकिन फिर भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्षो और स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षो में देश के एकीकरण की स्मृतियों को ताजा कर देती हैं।
जरूरत इस बात की है कि अलगाव की वकालत करने वाले स्वरों को बढ़ने से रोका जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य अपने खिलाफ किसी भी तरह के हमले की इजाजत नहीं दे सकता, चाहे वह कश्मीर के अलगाववादी हों या लाल गलियारे में फैले माओवादी। जरूरत इस बात की भी है कि देश की अखंडता से जुड़े सवालों को राजनीतिक दलों के बीचमुकाबले का विषय न बनाया जाए।
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