राजधानी दिल्ली में आजादी- एक मात्र रास्ता, सेमिनार ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बडा प्रश्न तो यही है कि क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पृथकतावादी ताकतों को देश की अखंडता को ललकारने की आजादी दे सकती है?
यह सेमिनार कश्मीर की आजादी को लेकर था और यह पहली बार हुआ है कि जब सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में आकर सीधे तौर पर चुनौती दी है। बीजेपी से जरूर विरोध के स्वर आए हैं लेकिन राष्ट्रीयता से गहरे लगाव रखने का दावा करने वाली इस पार्टी ने दरअसल राष्ट्रीयता को बदनाम ही किया है। इस सेमिनार पर मनमोहन की चुप्पी असहज लगती है क्योंकि राजधानी में गिलानी भारत की संप्रभुता और प्रधानमंत्री की सत्ता को ही खारिज कर रहे थे। गृहमंत्री चिदंबरम यह कहकर बच रहे हैं कि हमने पूरे कार्यक्रम की वीडियोग्राफी की है लेकिन सवाल यही है इस सेमिनार की अनुमति ही क्यों दी गई?
याद कीजिए कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान न्यूजीलैंड के एक टीवी एंकर की उस नस्लीय टिप्पणी को जिससे मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सहित पूरा विदेश मंत्रालय बौखला गया था। भारतीय प्रतिरोध इतना मुखर था कि टीवी चैनल को मजबूरी में ही सही एंकर को बर्खास्त करना पड़ा। लेकिन यहां पाकिस्तान परस्त एक शख्स हमारी संप्रभुता और संविधान को ललकार रहा है और हम चिरखामोशी में हैं। इस मसले पर कश्मीरी पंडितों की संस्था पुन्नुन कश्मीर का आक्रामक विरोध काबिल-ए-गौर है लेकिन विरोध की इस तल्खी को भी किसी प्रिंट और न्यू मीडिया में ठीक से जगह नही मिल पाई।और अब बेचैनी इसलिए भी हैं कि क्योंकि अगर हम यूं ही चुप रहे और भारत भी रूस की तरह बिखर गया तो क्या होगा?
अपने संपादकीय मेंकुछ अखबारों ने जरूर इस सवाल को उठाया है। पेश-ए-नजर।
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1 हफ़्ते पहले

