शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

शेर की जगह मेरा शिकार


रस्किन बॉंड
अकसर कहा जाता है कि महिलाएं अच्छी ड्राइवर नहीं हो सकतीं, लेकिन मेरी राय कुछ भिन्न है। श्रीमती बिश्वास बहुत कमाल की ड्राइवर थीं, लेकिन बड़ी खतरनाक भी थीं। उनके पति बहुत जाने-माने शिकारी थे। सप्ताह के आखिरी दिन श्रीमती बिश्वास अकसर लैंडूर के अपने समर होम में बिताया करती थीं। मैं उनकी एक-दो पार्टियों में गया, जहां अकसर मर्दो का ही जमावड़ा हुआ करता था।

सड़कों पर मेरी जितनी तरह के रोचक और मजेदार लोगों से मुलाकात हुई है, उसका मुकाबला सिर्फ उन निहायत ही दिलचस्प ड्राइवरों से किया जा सकता है, जो मुझे लेकर आते-जाते थे। आखिरी बार मुझे लेकर आने वाला ड्राइवर क्वालिस गाड़ी चला रहा था। उसका सबसे बड़ा सपना पायलट बनना था और वह सड़क पर ऐसे गाड़ी चला रहा था, मानो वह कोई रन-वे हो। वह लगातार बिल्कुल अब गिरा कि तब गिरा वाली हालत में किनारे पर जा पहुंचता था।

पैदल चलने वाले, साइकिल चालक और ऐसे ही छोटी-छोटी गाड़ियां चलाने वाले लोग दाहिनी और बाईं ओर बिखरे हुए थे और अकसर मेरे ड्राइवर को देखकर कुछ-कुछ बड़बड़ाते रहते थे। ड्राइवर उन तमाम रंग-बिरंगी तरह-तरह की गालियों और तानों के प्रति बड़ा सहज मालूम दे रहा था। ट्रक ने जाने का रास्ता नहीं दिया, लेकिन वह बड़े आराम से ट्रक के पीछे-पीछे लगा रहा। उल्टे-सीधे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर जितना संभव हो, उतने कम से कम समय में वह दिल्ली से देहरादून पहुंच जाना चाहता था।

‘कोई जल्दी नहीं है,’ मैंने एकाधिक बार उससे कहा, लेकिन उसे अंग्रेजी कम ही आती थी। बाद में उसने बताया कि उसे लगा कि मैं कह रहा हूं, ‘जरा जल्दी करो।’ बहरहाल वह फर्राटे से चलता रहा और तब तक गाड़ी भगाता रहा, जब तक कि एक रेलवे फाटक ने हमें रुकने के लिए मजबूर नहीं कर दिया। एक स्कूटर सवार बिल्कुल बगल में आया और ड्राइवर को पुलिस में देने की धमकी देने लगा। इसके बाद लंबी और गर्मागर्म बहस का सिलसिला शुरू हुआ। लगा कि अब नौबत मारा-मारी पर उतर आएगी, लेकिन तभी रेलवे का फाटक खुल गया और क्वालिस बुत बने उस स्कूटर सवार को पीछे छोड़कर फर्राटे से आगे बढ़ गई।

चूंकि मैं खुद गाड़ी नहीं चलाता, इसलिए आमतौर पर आगे की सीट पर बैठने के लिए सबसे सही व्यक्ति हूं। मैं अपने सारे भरोसे का भार स्टीयरिंग के पीछे बैठे हुए आदमी पर डाल देता हूं। आगे बैठने से मुझे सड़क और गुजरते हुए पेड़ों का नजारा देखने में आसानी होती है। मसूरी के सबसे बेहतरीन ड्राइवरों में से एक है मनमोहन, जो अपनी टैक्सी चलाता है। जंगली जानवरों और जंगल के जीवन के प्रति उसका आकर्षण और उत्साह भी बहुत जबर्दस्त है।

मुझे हमेशा आश्चर्य होता है कि वह कैसे शिवालिक की पहाड़ियों और तीखे घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर गाड़ी चलाता है, लेकिन इसके बावजूद चारों ओर फैले हुए जंगलों पर भी उसकी नजर चली जाती है। ‘अरे वो देखिए चीतल,’ वो उत्साह से चीखकर बोलेगा, या ‘क्या शानदार सांभर है?’ या ‘जरा उस हाथी को देखिए।’ ये सब वह बहुत तेज गति से गाड़ी चलाते हुए बोलता जाता है। इससे पहले कि मुझे एक या दो जानवरों पर उड़ती-उड़ती सी नजरें घुमाने का मौका मिले या उसकी एक झलक पा लेने का, हम उस जगह को पार कर चुके होते हैं। कोई भी आराम से गाड़ी नहीं चलाता है।

मनमोहन कसम खाकर कहता है कि मोहंद के पास सड़क पार करते हुए उसने एक बाघ देखा था। वह बहुत दृढ़ उसूलों वाला व्यक्ति है, इसलिए मुझे उसकी बात पर यकीन करना पड़ता है। मुझे लगता है कि बाघ खासतौर से मनमोहन के लिए ही आता है। जंगल के दूसरे दीवाने स्टेट बैंक के नाम से ख्यात मेरे दोस्त विशाल ओहरी हैं। वे मुझे हरिद्वार और मोहंद के बीच एक जंगल में ले गए। वहां हमने चीतल और जंगली सूअर से लेकर कई सारे जानवर देखे। दूसरे टैक्सी ड्राइवरों के ठीक उलट उन्हें मंजिल तक पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी और वे जब देखो तब हाथियों के पैरों के निशान देखने-जांचने के लिए यहां-वहां रुक जाते थे।

उन्होंने वहां पड़े हुए हाथी के ताजा गोबर की ओर भी इशारा किया। यह इस बात का प्रमाण था कि जंगली हाथी वहां कहीं आसपास ही है। मुझे यकीन नहीं था कि उनकी पुरानी फिएट गुस्सैल जंगली हाथी का मुकाबला कर पाएगी। इसलिए मैंने उनसे गुजारिश की कि रात होने से पहले ही वहां से निकल चलें। तब वे हाथी के गोबर के फायदों को लेकर शुरू हो गए कि कैसे कच्ची दीवार को मजबूत बनाने के लिए इस गोबर का इस्तेमाल किया जा सकता है। विशाल अपने समय से बहुत आगे था। अभी कुछ ही दिन पहले मैंने एक अखबार में पढ़ा कि हाथी के गोबर से बहुत उम्दा क्वालिटी का कागज बनाया जा सकता है। संभवत: वे बैंक के नोट बनाने के लिए उसका इस्तेमाल करेंगे।

कई और भी शानदार ड्राइवर हैं, जो मुझे यहां-वहां लेकर जाते रहते हैं। उनमें गणोश सैली भी शामिल है, जो एक-दो पैग चढ़ाने के बाद भी बिल्कुल सामान्य रहता है। निक्टर बनर्जी, जो बिना पिए ही ज्यादा ठीक रहता है और युवा गुरदीप, जो केनी बी के सेक्सोफोन का दीवाना है। गुरदीप के साथ दिल्ली जाते हुए रास्ते में मुझे छह घंटे केनी बी का सेक्सोफोन सुनना पड़ा। अभी दो दिन पहले वहां से लौटते हुए फिर से छह घंटे केनी बी को झेलता रहा। अब तो जब भी सेक्सोफोन की आवाज कान में चली जाए तो मैं बावला होने लगता हूं।

अकसर कहा जाता है कि महिलाएं अच्छी ड्राइवर नहीं हो सकती हैं, लेकिन मेरी राय कुछ भिन्न है। श्रीमती बिश्वास बहुत कमाल की ड्राइवर थीं, लेकिन बड़ी खतरनाक भी थीं। उनके पति बहुत जाने-माने शिकारी थे और दिल्ली के अपने फार्म हाउस के ड्रॉइंग रूम में भुस भरी हुई चीते की खाल रखते थे। सप्ताह के आखिरी दिन श्रीमती बिश्वास अकसर लैंडूर के अपने समर होम में बिताया करती थीं। मैं उनकी एक-दो पार्टियों में गया था, जहां अकसर मर्दो का ही जमावड़ा हुआ करता था। एक दिन जब मैं सड़क पर जा रहा था, वह मेरे बगल से गाड़ी से गुजरीं और पूछा कि क्या मैं नीचे देहरादून तक उनका साथ देना पसंद करूंगा। ‘मैं आपके साथ चलूंगा,’ मैंने जवाब दिया। ‘क्वालिटी में हम बढ़िया खाना खा सकते हैं।’ इस तरह हम पहाड़ी से नीचे गए। श्रीमती बिश्वास ने कुछ खरीदारी की और हमने क्वालिटी में लंच किया और उनकी गाड़ी में वापस आए और चलने को हुए, लेकिन मसूरी और लैंडूर की उल्टी दिशा में। ‘हम कहां जा रहे हैं?’ मैंने पूछा।

‘दिल्ली और कहां? क्या आप मेरे साथ नहीं चल रहे।’

‘मुझे पता नहीं था कि हम दिल्ली जा रहे हैं। मेरे पास पैजामा भी नहीं है।’ ‘कोई बात नहीं,’ श्रीमती बिश्वास बोलीं, ‘मेरे पति का आपको फिट आएगा।’

मैंने विरोध किया, ‘हो सकता है कि वो मुझे अपना पैजामा पहनने के लिए न देना चाहें।’ ‘अरे फिक्र मत करो, अभी वो लैंडूर में हैं।’ मैंने श्रीमती बिश्वास से नजदीक के बस स्टॉप पर मुझे उतार देने की जिद की, उनसे विदा ली और वापस मसूरी की बस पर सवार हो गया। हो सकता है कि वो अच्छी ड्राइवर हों, लेकिन मेरा कोई इरादा नहीं था कि मैं भी उनके ड्रॉइंग रूम में भुस भरे चीते के बगल में भुस भरकर लटका हुआ पाया जाऊं।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

संतों के अखाड़े: परंपरा और विवाद


शालिनी जोशी
आम तौर पर 'अखाड़ा' शब्द सुनते ही पहलवानी और कुश्ती का ध्यान आता है लेकिन हरिद्वार के महाकुंभ में साधु-संतों के कई अखाड़े है. ज़ोर-आज़माइश तो यहाँ भी है, लेकिन धार्मिक वर्चस्व के लिए. शाही सवारी रथ, हाथी-घोड़े की सजावट, घंटा-बाजे, नागा-अखाड़ों के करतब और यहाँ तक कि तलवार और बंदूक तक के प्रदर्शन...हरिद्वार में इन दिनों साधु-संतों के अखाड़ों की धूम है. अखाड़ों के शिविर लग रहे हैं.

अखाड़े एक तरह से हिंदू धर्म के मठ कहे जा सकते हैं. आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी. महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत रवींद्रपुरी दास कहते हैं, ''जो शास्त्र से नहीं माने उन्हें शस्त्र से मनाया गया और अखाड़ों ने हिंदू धर्म का पुनरुत्थान किया.''
उनके अनुसार शुरु में केवल चार प्रमुख अखाड़े थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 प्रमुख अखाड़े हैं। कुंभ अखाड़ों का ही है .कुंभ ऐसा अवसर है जहाँ आध्यात्मिक और धार्मिक विचार-विमर्श होता है. अखाड़े अपनी-अपनी परंपराओं में शिष्यों को दीक्षित करते हैं और उन्हें उपाधि देते हैं
अखाड़ा परिषद के महंत ज्ञानदास कहते हैं,''दरअसल कुंभ अखाड़ों का ही है. कुंभ ऐसा अवसर है जहाँ आध्यात्मिक और धार्मिक विचार-विमर्श होता है. अखाड़े अपनी-अपनी परंपराओं में शिष्यों को दीक्षित करते हैं और उन्हें उपाधि देते हैं.''

श्रद्धालु जहाँ पुण्य कमाने की इच्छा लिए हर की पैड़ी पहुँचते हैं, वहीं साधु-संतों का दावा है कि वे कुंभ पहुंचते हैं गंगा को निर्मल करने के लिए. महंत पूर्णानंदगिरी का मानना है, ''गंगा धरती पर उतरने के लिए तैयार नहीं थीं कि धरती पर बहुत पाप हैं, तब उन्हें समझाया गया कि कुंभ में साधु–संत आकर अपने ज्ञान और स्नान से आपके पाप धोएँगे.''
दिलचस्प बात यह है कि इन अखाड़ों में टीवी पर लोकप्रिय साधु-संतों की कोई पूछ नहीं है. अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं, ''आसाराम हों या मोरारी बापू या स्वामी रामदेव. सभी का अपना-अपना व्यवसाय है. हम इन्हें संत नहीं मानते हैं.'' हालांकि कुंभ में स्नान को लेकर इन अखाड़ों में ख़ुद भी हमेशा से झगड़े होते आए हैं.
इन जगड़ों का कारण पूछने पर पंडित प्रतीक मिश्र बताते हैं, ''मान्यता है कि ब्रह्मकुंड में पहले जो स्नान करेगा उसे ज़्यादा पुण्य मिलेगा, इसलिए साधुओं में पहला स्नान करने और स्नान के क्रम को लेकर खूनी संघर्ष तक हुए हैं. इन संघर्षों में अबतक हज़ारों साधुओं की मौत हो चुकी है.'' हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ में तीन शाही स्नान होंगे. इनमें से पहला आज यानी 12 फ़रवरी को है।
हरिद्वार महाकुंभ में कई दशकों बाद ऐसा लग रहा था कि साधुओं में स्नान को लेकर सहमति बन गई है लेकिन अचानक ही छह अखाड़ों ने चेतावनी दे दी है. उनकी माँग है कि बैरागी, उदासी और निर्मल अखाड़ों के कुंभ स्नान को भी शाही स्नान का दर्जा दिया जाए और अगर ऐसा नहीं हुआ तो सभी कुंभ स्नानों का बहिष्कार किया जाएगा. फ़िलहाल ये प्रस्ताव शासन के पास विचाराधीन है. ( बीबीसी से साभार)

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

बाबा,बमबम और बंदूक


कुंभ मेले में सुदूर हिमालय की कंधराओं से आए नागा साधु सबसे अलग ही नजर आ रहे हैं। हाथ में सिमटा,त्रिसूल और बंदूक थामें इन नागा बाबाओं की रहस्यमयी दुनिया को जानने के लिए हर कोई लालायित है। नागा साधुओं के बारे में कहा जाता है कि ये सिर्फ कुंभ मेले ही दिखाई देते हैं। मेले के बाद कहां जाते हैं और कहां रहते हैं कोई नहीं जानता। इनके रहने के ज्यादातर ठिकाने उत्तराखंड की पर्वतमालाएं हैं। नागा साधु किसी भी अखाड़े में आ जा सकते हैं। इनके हाथों में हथियार हिंदू धर्म की सुरक्षा का प्रतीक है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही हम चांद पर पानी और मंगल पर जीवन खोजने का दावा कर रहे हों लेकिन नागा साधुओं की निराली दुनिया का रहस्य आज भी पहेली बना हुआ है।

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

सजे-सधे घोड़ों में सवार साधु


सजे-धजे घोड़ों में सवार होकर कुंभ मेले में शिरकत करने के लिए साधु-संत हरिद्वार पहुंचने लगे हैं। मेले में उन तपस्वी साधुओं का भी दीदार होने लगा है जो केवल कुंभ में भाग लेने के लिए ही सुदूर पहाड़ों से हरिद्वार पहुंचे हैं। कुंभ मेले की भव्वता समेटे कुछ तस्वीरें पेश-ए-नजर।