रविवार, 10 नवंबर 2013

केदारनाथ, यानी मुहावरा मौत का, दर्द का....अफसोस का


लक्ष्मी प्रसाद पंत
केदारनाथ त्रासदी को छह महीने होने को हैं । कुछ बेचैन सवाल हैं जिनका जवाब अभी तक प्रभावित परिवारों को नहीं मिला है । एक पत्रकार तौर पर मैं भी इन सवालों का जवाब देने मैं विफल ही रहा हूँ । अजीब लगता है कि सवाल मुझ तक तो  पहुंच रहे हैं लेकिन जवाब वापस उन तक नहीं पहुंचा पा रहा हूं जिनके अपने अब तक केदारनाथ से नहीं लौटे हैं। अब बस  निराशा, खुद पर झुंझलाहट।  
 
मुझे रोज़ आज भी १०से १५ फोन (यह संख्या लगातार कम हो रही है) प्रभािवत परिवारों के आते हैं । इस उम्मीद में कि शायद जिंदगी का कोई संकेत मुझ तक पहुँचा हो । यह धुंधली आशा इसलिए है क्योंकि केदारनाथ त्रासदी के बाद मौक़े पर जाकर मैंने कुछ रिपोर्ट अपने अख़बार में लिखी हैं । फोन करने वाले ज़्यादातर राजस्थाऩ, दिल्ली,हरियाणा़, पंजाब़,छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश़,झारखंड और महाराष्ट्र से होते हैं ।
 
फ़ोन पर सवाल करने वाले अक्सर ग़ुस्से में होते हैं । जाहिर है कि वे भयानक यातना से  गुजर रहे हैं और अब इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। उनकी आवाज़ में एक अजीब सी थरथराहट, ख़ुद के दर्द को क़ाबू में न रख पाने की छटपटाहट और कुछ तो चिल्ला चिल्ला कर उस वक़्त ख़ामोश होते है जब तक उनकी आंखों के आंसू सूख नहीं जाते । दर्द की दबी हुई भनभनाहट कभी- कभी करूण दहाड़ भी बन जाती है । और मैं चुपचाप सिर्फ सुनता हूँ । इस अजनबी रिश्ते से बस जुड़ता भर हूँ । मेरी कलाई की नीली नसें तनती हैं और फिर मुठ्ठी की पकड़ ढीली होने लगती है। व्याकुलता, हताशा़ और उदासी हावी होने की जैसे ही कोशिश करती है झल्लाकर उसे भी दूर फेंक देता हूँ ।
केदारनाथ में लापता लोगों के परिजन एक माह पहले तक मुझसे से एक ही सवाल करते थे, क्या कोई जिंदा लौटा? तुम तो पहाड़ी हो , पहाड़ों को पहचानते हो़, जानते हो, बचने की कोई उम्मीद है क्या? किसी ऊँचे पहाड़ी गाँव में हमारे अपने पनाह लिए हुए हो़ं और क्या मुमकिन है बचाव दल उन तक अब तक न पहुँचा हो ? इन सवालों का मेरे पास न कोई जवाब होता है, न कोई आश्वासन । बस मेरी कोशिश रहती है कि ऐसा ही कुछ कहूँ कि उनकी उम्मीद की अनिंश्चित्ता बनी रही और मैं औपचारिक अभिवादन की रस्म निभाता रहूँ ।

प्रभावित परिवारों के लोग छह माह बाद मुझसे अब यह सवाल करते हैं़़़़़़़़़! आपदा तो आ गई लेकिन आपदा के बाद राहत कार्यों में जो देरी हुई उसके जिम्मेदार लोगों पर अब तक कोई कार्रवाई हुई क्या ? मौतें आपदा के कारण नहीं राहत में देरी के कारण हुई? मौतें के जिम्मेदार म्मिेदार लोगों पर अब तक हत्या का मुक़दमा दर्ज क्यों नहीं हुआ? इस सवाल पर मेरी आँखों की पुतलियाँ भर हिलती हैं, हों ठ फिर भी ख़ामोश ही रहते हैं । न बेरुख़ी से, न शिष्टता से इस सवाल का सीधा जवाब दे पाता हूँ । हमारे बीच अफसोस वाली ख़ामोश ज़रूर छाई रहती है । कुछ देर बाद इस खामोशी से भी ऊब होने लगती है। आखिर लंबी खामोशी भी कब तक अपनापन जोड़ेगी?

केदारनाथ त्रासदी में अपने भाई को खो चुके ग्वालियर के रवि कुमार शिकायती लहजे में कहते हैं। सेना में जवान की जऱा सी लापरवाही पर कोर्ट आफ  इनक्वारी शुरू हो जाती है। केदारनाथ में तो लापरवाही के कारण हजारों की मौतें हई हैं! छह हजार से ज्यादा तो आज भी लापता है। क्यों नहीं उत्तराखंड सरकार पर हत्या का मुक़दमा चलाया जा रहा ?

केदारनाथ त्रासदी के प्रभावित परिजनों के जिंदा, धडक़ते हुए इस ग़ुस्से में रोज़ रूबरू होता हूँ । सावधानी से संभालने की कोशिश भी करता हूँ । लेकिन आपदा के बेरहम जख्मों के निशानों को न मैं छू पाता हूँ, न प्रभावितों के पक्ष में व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो पाता हूँ । काश, कोई केदारनाथ त्रासदी के कारणों और लापरवाही से हुई मौतों की गुप्त गवाही देकर बेदर्द व्यवस्था बेपर्दा कर देता।

  दरअसल केदारनाथ एक मुहावरा बन गया है मौत का, दर्द का। हमारी व्यवस्था बेरहमी से इसे गुनगुना रही है......और मैं यह बताना चाहता हूँ कि मुझे सिर्फ बेहद-बेहद अफ़सोस है।




रविवार, 19 अगस्त 2012

ना वो सब मद्रासी हैं, ना हम सब चिंकी'

पूर्वोत्तर भारत इन दिनों सुर्ख़ियों में ज़रूर है लेकिन इसके बावजूद भारत के अन्य राज्यों में इस क्षेत्र के बारे में न तो अधिक जानकारी है और न ही जानने की इच्छा.
राजधानी दिल्ली के नेताओं और लोगों के लिए पूर्वोत्तर राज्य, दिल्ली से काफी दूर हैं.
इसी तरह से वहां के लोगों के लिए दिल्ली काफी दूर है, कम से कम मनोवैज्ञानिक रूप से.
इसीलिए असम के बोडो इलाके में होने वाली हिंसा का बदला भारत के अन्य राज्यों में रहने वाले पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों से लेने की अफवाहें फैलीं, जिनके चलते बैंगलोर, मुंबई, पुणे और हैदराबाद में रह रहे ये लोग अपने प्रांतों की ओर वापस लौटने लगे.
हकीकत ये है की जो लोग इन शहरों से अपने घरों को लौट रहे हैं उनका असम में बोडो और बंगाली मुस्लमानों के बीच चल रहे झगड़े से कोई संबंध नहीं.

जानकारी की कमी

पुणे में असम के छात्र अनिल कोलिता कहते हैं, "बदला लेना वैसे भी कानून को हाथ में लेना है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्य के सभी लोगों से बदला लेना इस बात का संकेत है की लोगों को इस क्षेत्र के बारे में कुछ नहीं मालूम जो हमें पहले से ही पता है."
ये नतीजा है देश में पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में जानकारी की कमी का.
पूर्वोत्तर क्षेत्र के तमाम सात राज्यों के लोगों को भारत में उसी तरह से देखा जाता है जिस तरह से दक्षिण भारत के लोगों को.
पिमिन्गम जिमिक नागालैंड राज्य में पैदा हुए. अब वो पुणे में नागा छात्रों के नेता हैं.
वो कहते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में लोगों को जानकारी देने की ज़रुरत है, "हम पुणे में लोगों को बताने की कोशिश करते हैं की पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों में समानता है भी और नहीं भी, लोग हमें यहां चिंकी कह कर बुलाते हैं, और समझते हैं की पूर्वोत्तर राज्यों के रहने वाले सभी लोग चिंकी हैं जैसा की दक्षिण भारत में रहने वाले सभी लोग मद्रासी."

उत्तरपूर्व राज्यों में विविधता

"लोग हमें यहां चिंकी कह कर बुलाते हैं, और समझते हैं की पूर्वोत्तर राज्यों के रहने वाले सभी लोग चिंकी हैं जैसा की दक्षिण भारत में रहने वाले सभी लोग मद्रासी."
पिमिन्गम जिमिक, नागा छात्र नेता
इस क्षेत्र के लोग एक दूसरे से कितने अलग हैं इसका अंदाजा इस तरह से कीजिए.
पिमिन्गम जिमिक एक नागा कबीले से वास्ता रखते हैं. उन्हें पूर्वोत्तर राज्यों के दूसरे लोगों से अंग्रेजी में बात करनी होती है.
नागा कबीले में 32 अलग-अलग छोटे कबीले हैं जो 32 अलग-अलग भाषा बोलते हैं. अगर एक नागा को दूसरे नागा कबीले से बात करनी हो तो वो या तो अंग्रेज़ी में करते हैं या फिर नागामी भाषा में जो कई स्थानीय भाषाओँ का मिश्रण है.
नागालैंड के अलावा नागा कबीलों की सबसे अधिक आबादी मणिपुर और मयांमार में है.
मणिपुर में आठ ज़िले हैं. पांच पहाड़ों पर हैं, जिनमें अधिक नागा रहते हैं, और वो वादी के तीन ज़िलों में रहने वाले वैष्णवी हिन्दुओं से बिलकुल अलग हैं.
नागा और कुकी क़बीलों में आपस में नहीं बनती. आज़ादी से पहले से उनके बीच कई बार वैसी जानलेवा झड़पें हुईं हैं जैसी बोडो और बंगाली मुसलमानों के बीच इन दिनों असम में हो रही हैं.
इतिहास पर नज़र डालें तो पता चलता है कि नागा क़बीलों के बीच कुकी बस्तियों को अंग्रेज़ों ने बसाया था ताकि वो नागा कबीलों को नियंत्रण में रख सकें.

धार्मिक मतभेद

नागालैंड, मेघालय और मिज़ोरम इस क्षेत्र के तीन ऐसे राज्य हैं जहां लगभग पूरी आबादी कैथोलिक मज़हब को मानती है जबकि बोडोलैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के कुछ कैथोलिक इलाकों को छोड़ कर क्षेत्र के बाक़ी सभी इलाकों में हिन्दूओं का बहुमत है.
अफवाहों के चलते बैंगलोर, मुंबई, पुणे और हैदराबाद में रह रहे ये लोग अपने प्रांत वापस लौटने लगे.
नागालैंड और मिज़ोरम के देहातों में आम जीवन गांव के गिरजाघर के इर्द गिर्द घूमता है. ऐसा असम के बारे में नहीं कहा जा सकता.
अगर समानता है तो ये की इन सभी सात राज्यों के और पड़ोसी सिक्किम राज्य के लोग उत्तरी भारत के लोगों को एक जैसे नज़र आते हैं.
इसीलिए उन्हें ‘चिंकी’ कहा जाता है जो इस क्षेत्र के लोगों को पसंद नहीं.

समानताएं

अगर समानता है तो इन राज्यों के नेताओं में भ्रष्टाचार और घोटाले की. 18 साल पहले जब मैं एक पत्रकार के तौर पर वहां कार्यरत था तब भी भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या थी और आज भी है.
अगर समानता है तो इस बात की कि इन प्रांतों में व्यापक ग़रीबी है. इन राज्यों में उद्योग की कमी है और कृषि के लायक ज़मीनें कम हैं.
कुछ साल पहले तक इन राज्यों में एक उत्तर भारतीय को शक की निगाह से देखा जाता था.
इन राज्यों के लोग इस क्षेत्र से भारत के अन्य राज्यों में जाकर आम तौर से नहीं बसते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में इनका दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में जाकर काम करने की ओर रुझान देखा गया है.
वो भारतीय समाज की मुख्यधारा का हिस्सा महसूस करने लगे थे. लेकिन हाल की घटनाओं के बाद इस एहसास को वापस लाने में कुछ समय लग सकता है.

ज़ुबैर अहमद
बीबीसी संवाददाता, मुंबई

सोमवार, 26 सितंबर 2011

ममता से हारी मौत



 ये है केन्या का मसाई मारा रिजर्व पार्क। इतना दुर्गम जंगल कि यहां हर कदम पर मौत के साथ जिंदगी की जंग लडऩी पड़ती है। चाहे फिर जंगल का होने वाला राजा ही क्यों न हो, कुदरत किसी के साथ रियायत नहीं बरतती, लेकिन कुदरत 'मां' भी होती है और मां जीवन का वरदान देती है। यह नन्हा शावक जब इस खड़ी ढाल वाले गड्ढे में फंस गया तो मां ही आगे आई और अपने बच्चे को मौत के मुंह से निकालकर ले आई। इस तस्वीर को अपने कैमरे में कैद किया वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर जीन-फ्रेनकॉइस
 लार्गोट ने।




बाघिन को पकड़ा, दांत तोड़े, फिर आंखें फोड़कर शव का जुलूस निकाला

राजनांदगांव (छत्तीसगढ़).  बखरूटोला गांव में शनिवार दोपहर सैकड़ों लोगों की भीड़ ने एक बाघिन को पत्थर और लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला। घटना के दौरान वन विभाग की टीम भी वहीं मौजूद थी। बाघिन की मौत के बाद गांव में जश्न जैसा माहौल था। लोग बाघिन के शव को उठाकर नारे लगाते हुए घूमने लगे। वह तो उसका शव भी देने को तैयार नहीं थे। किसी तरह समझा कर वन विभाग ने शव हासिल किया। गांव वालों के मुताबिक यह बाघिन पिछले डेढ़ महीने से महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर घूम रही थी। उसने इलाके में एक महिला को अपना शिकार बनाया था। इसके अलावा यह तीन से ज्यादा लोगों को  घायल कर चुकी थी।

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

रूबी आंटी और उनका तोता

रस्किन बॉन्ड 


तुम नाकारा हो। न तो तुम बोलते हो, न गाते हो और न नाचते हो!’ इन शब्दों के साथ रूबी आंटी रोज अपने अभागे तोते को कोसतीं और वह बेचारा पिंजरे में बैठा बरामदे की ओर टुकुर-टुकुर ताकता रहता। यह मेरी नानी के बंगले का बरामदा था। एक जमाना था, जब लगभग हर कोई, फिर चाहे वह भारतीय हो या यूरोपियन, तोतों को पालना पसंद करता था। कुछ लोग लवबर्डस भी रखते थे। तोतों की इस खूबी के बारे में तो सभी जानते हैं कि वे नकल करना बहुत जल्दी सीख जाते हैं। पालतू तोते घर की बोली सीख जाते थे और उसे मंत्र की तरह रटते थे। इसी से एक शब्द बना है ‘तोतारटंत’। कुछ तोते बच्चों को शिक्षा देने वाले उपदेशक की भूमिका भी निभाते थे। माता-पिता तोतों को ‘पढ़ो बेटा पढ़ो’ या ‘लालच बुरी बला है’ बोलना सिखा देते थे और तोते दिनभर इन्हें रटते रहते थे। हालांकि पता नहीं, इस उपदेश का घर के शरारती बच्चों पर कितना असर पड़ता था।


अलबत्ता तोते इतनी आसानी से बोलना नहीं सीखते थे। उन्हें सिखाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती थी और धर्य भी रखना पड़ता था। तोतों को कोई वाक्य रटाने के लिए अक्सर घर के किसी सदस्य को यह जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी कि वह दिनभर तोते के सामने बैठकर उसे दोहराता रहे। लेकिन हमारा तोता कुछ नहीं बोलता था।


रूबी आंटी ने उसे एक बहेलिये से खरीदा था, जो अक्सर हमारे घर के सामने वाली गली से गुजरता था। उसके पास कई तरह के पक्षी हुआ करते थे, फिर चाहे वह रंग-बिरंगी चिड़ियाएं हों या चहचहाने वाली मुनियाएं। बहेलिया आम पंछियों पर भी तरह-तरह के रंग पोतकर उन्हें लोगों को बेच देता था। वह कहता था कि ये खास किस्म के पक्षी हैं और लोग उसके झांसे में भी आ जाते थे। नानी और नाना दोनों को ही पक्षी पालने का कोई शौक नहीं था, लेकिन रूबी आंटी को पालतू परिंदे बहुत पसंद थे और जब वे किसी चीज को पाने की जिद ठान लेती थीं तो कोई भी उनके आड़े आने की जुर्रत नहीं करता था।

यह भी उनकी ही जिद थी कि घर में तोते पाले जाएं और उन्हें अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जाएं। लेकिन रूबी आंटी के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए, जब उन्हें पता चला कि वे जिस तोते को इतने शौक से खरीदकर लाई हैं, वह तो मौन व्रत धारण किए हुए है। इतना ही नहीं, ऐसा भी लगता था कि उसे रूबी आंटी की शक्ल ही पसंद नहीं थी और शायद उनके द्वारा उसे बंदी बनाए जाने के कारण ही उसने कुछ न बोलने की कसम खा ली थी।

रूबी आंटी तोते के पिंजरे से अपना चेहरा सटाकर उसे लुभाने की भरसक कोशिश करतीं। वे उसे पुचकारतीं, लेकिन वह चुपचाप एक कोने में बैठा रहता। उसकी नन्ही आंखें सिमटकर और छोटी हो जातीं, मानो वह रूबी आंटी पर आंखें तरेर रहा हो। एक बार तो उसने आंटी के चेहरे पर जोर का झपट्टा मारा और चोंच से उनके चश्मे की कमानी पकड़कर उसे नीचे पटक दिया।


इसके बाद रूबी आंटी ने उसे बहलाने-फुसलाने के सभी प्रयासों को तिलांजलि दे दी। इतना ही नहीं, उन्होंने तो उस बेचारे बेजुबान पक्षी के विरुद्ध एक अघोषित मोर्चा भी खोल दिया। वे उसे मुंह चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। वे रात-दिन उसे कोसती रहतीं और उसे गूंगा और नाकारा तोता कहतीं।


तब मैं कुल जमा दस साल का था। आखिरकार मैंने ठान लिया कि मुझे उस तोते का ख्याल रखना चाहिए। मैंने पाया कि उसे मुझसे किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं थी। मैं उसे हरी मिर्चे खिलाता और वह बड़े मजे से उन्हें खा लेता था। आम के मौसम में मैं उसे आम की फांकें खिलाता और वह उन्हें भी गपागप खा जाता। तोते को आम खिलाने के बहाने मैं भी एक-आध आम पर हाथ साफ कर लेता था।


एक दोपहर मैंने तोते को उसका लंच कराया और फिर जान-बूझकर पिंजरे का दरवाजा खुला छोड़ दिया। चंद लम्हों बाद ही उसे आजादी का स्वाद पता चल गया और उसने आम के कुंज की ओर उड़ान भर दी। तभी नाना बरामदे में आए और उन्होंने मुझसे कहा : ‘मैंने अभी-अभी तुम्हारी रूबी आंटे के तोते को उड़ते हुए देखा है।’ मैंने कंधे उचकाते हुए कहा : ‘हो सकता है, वैसे भी उसके पिंजरे का दरवाजा ठीक से लग नहीं पा रहा था। मुझे नहीं लगता अब हम उसे कभी पिंजरे के भीतर देख पाएंगे।’


यह खबर सुनकर पहले-पहल तो रूबी आंटी नाराज हुईं और कहने लगीं कि वे एक और तोता लेकर आएंगी। हमने उन्हें यह कहकर समझाने का प्रयास किया कि तोते के स्थान पर हमें एक छोटा-सा इक्वेरियम खरीदना चाहिए, जिसमें ढेर सारी गोल्डफिश हों। रूबी आंटी ने इस विचार के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित करते हुए कहा : ‘लेकिन गोल्डफिश बोलती नहीं हैं।’ नाना ने चुटकी लेते हुए कहा : ‘बोलता तो तुम्हारा तोता भी नहीं था।’ फिर उन्होंने कहा : ‘हम तुम्हें एक ग्रामोफोन खरीद देंगे, जो तुम्हारे इशारे पर दिन-रात बोलता रहेगा।’


खैर, मैंने तो सोचा था कि हम उस तोते को फिर नहीं देखेंगे, लेकिन शायद उसे अपनी हरी मिर्चो की याद सता रही होगी, इसलिए चंद दिनों बाद मैंने उसे हमारे बरामदे की दीवार पर बैठा देखा। वह अपनी गर्दन झुकाकर मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। मैंने सहृदयता का परिचय देते हुए उसकी तरफ अपना आधा आम बढ़ा दिया। जब वह आम का मजा ले रहा था, तभी रूबी आंटी कमरे से बाहर आईं और उसे देख मारे खुशी के उछल पड़ीं : ‘देखो, मेरा तोता लौट आया!’

तोते ने उड़ान भरी और समीप ही एक गुलाब की झाड़ी पर जाकर बैठ गया। उसने रूबी आंटी को घूरकर देखा और फिर उनकी नकल करते हुए कहने लगा : ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रूबी आंटी गुस्से में लाल-पीली होकर अपने कमरे में चली गईं, लेकिन उसके बाद वह तोता अक्सर हमारे बरामदे में चला आता और रूबी आंटी को देखते ही ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रटने लगता।
आखिरकार रूबी आंटी का तोता बोलना सीख ही गया था!

पहाड़ों की मेहमाननवाजी

रस्किन बॉन्ड   


नींद खुली तो फैक्टरी के सायरन सरीखी वह दूरस्थ गूंज सुनाई दी, लेकिन वह वास्तव में मेरे सिरहाने मौजूद नींबू के दरख्त पर एक झींगुर की मीठी भिनभिनाहट थी। हम खुले में सो रहे थे। इस गांव में जब मैं पहली सुबह जागा था तो छोटी-छोटी चमकीली पत्तियों को देर तक निहारता रहा था। पत्तियों के पीछे पहाड़ थे।

आकाश के अनंत विस्तार की ओर लंबे-लंबे डग भरता हिमालय। हिंदुस्तान के अतीत की अलसभोर में एक कवि ने कहा था ‘हजारों सदियों में भी हिमालय के वैभव का बखान नहीं किया जा सकता’ और वाकई तब से अब तक कोई भी कवि इस पहाड़ के भव्य सौंदर्य का वास्तविक वर्णन नहीं कर पाया है।

हमने हिमालय के सर्वोच्च शिखर को अपने कदमों तले झुका लिया, लेकिन इसके बावजूद वह हमारे लिए सुदूर, रहस्यपूर्ण और आदिम बना हुआ है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिमालय की धुंध भरी तराइयों में रहने वाले लोग विनम्र और धर्यवान होते हैं।

मैं कुछ दिनों के लिए इन्हीं लोगों का मेहमान हूं। मेरा दोस्त गजधर मुझे अपने गांव लेकर आया है। गढ़वाल घाटी में स्थित इस गांव का नाम है मंजरी। यह मेरी चौथी सुबह है। तीन सुबहों से मैं चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर जाग रहा था, लेकिन आज झींगुर की गुनगुनाहट में चिड़ियों के सभी गीत डूब गए हैं।

अलबत्ता अभी भोर ही है, लेकिन मुझसे पहले सभी लोग जाग चुके हैं। पहलवानों सरीखी काया वाला गजधर आंगन में कसरत कर रहा है। वह जल्द से जल्द सेना में दाखिल होना चाहता है। उसका छोटा भाई भैंसें दुह रहा है। मां चूल्हा फूंक रही है। छोटे बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे हैं।

गजधर के पिता फौज में हैं, लिहाजा वे अधिकतर वक्त घर से दूर रहते हैं। गजधर कॉलेज पढ़ने जाता है तो उसकी मां और भाई खेती-बाड़ी का काम संभालते हैं। चूंकि गांव नदी से ऊंचाई पर स्थित है, इसलिए वे मानसून की बारिश पर निर्भर रहते हैं। एक गिलास गर्म दूध पीने के बाद मैं, गजधर और उसका छोटा भाई घूमने निकल पड़ते हैं।

धूप पहाड़ों पर रेंग रही है, लेकिन वह अभी तक संकरी घाटियों में नहीं उतरी है। हम नदी में नहाते हैं। गजधर और उसका भाई एक बड़ी-सी चट्टान से नदी में गोता लगाते हैं, लेकिन मैं एहतियात बरतना चाहता हूं। पानी के वेग और गहराई का मुझे अभी अंदाजा नहीं है। साफ और ठंडा पानी सीधे ग्लेशियरों से पिघलकर आ रहा है।

मैं जल्दी से नहाता हूं और फिर रेत में दुबककर बैठ जाता हूं, जहां अब धूप घुसपैठ करने लगी है। हम फिर पहाड़ की ऊंचाई से जूझने के लिए चल पड़ते हैं। रास्ते में पहले स्कूल आता है और फिर एक छोटा-सा मंदिर। एक दुकान भी आती है, जहां से साबुन, नमक और अन्य जरूरी चीजें खरीदी जा सकती हैं। यह गांव का डाकघर भी है।

डाकिया अभी तक नहीं पहुंचा है। तकरीबन तीस मील दूर स्थित लैंसडोन से डाक आती है। डाकिये को आठ मील के दायरे में अनेक गांवों तक संदेश पहुंचाना होता है और वह यहां दोपहर तक ही पहुंच पाता है। वह डाकिये के साथ ही खबरनवीस की भूमिका भी निभाता है, क्योंकि गांववालों को देश-दुनिया की खबरें सुनाने की जिम्मेदारी उसी की है। हालांकि गांववाले उसकी अधिकांश खबरों को मनगढ़ंत मानते हैं, इसीलिए जब उसने बताया था कि आदमी चांद पर पहुंच गया है तो किसी ने भी उसकी बात पर यकीन नहीं किया था।

गजधर एक पत्र का इंतजार कर रहा है। उसे सेना की प्रवेश परीक्षा के नतीजों का इंतजार है। यदि वह पास हो गया तो उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाएगा। यदि वह वहां भी कामयाब हो गया तो उसे ट्रेनिंग दी जाएगी। दो साल बाद वह सेकंड लेफ्टिनेंट बन जाएगा। सेना में बारह साल बिताने के बावजूद उसके पिता अभी तक महज कापरेरल ही हैं। लेकिन उसके पिता कभी स्कूल नहीं गए थे। उन दिनों इस इलाके में स्कूल थे ही नहीं।

जब हम गांव के स्कूल के समीप से गुजरते हैं तो मुझे देखकर बच्चे दौड़े चले आते हैं और हमें घेरकर खड़े हो जाते हैं। उन्होंने इससे पहले कभी कोई गोरा चेहरा नहीं देखा था। गांव के बड़े-बुजुर्गो ने ब्रिटिश फिरंगियों को देखा था, लेकिन बीते कई सालों से गांव में कोई यूरोपियन नहीं आया है। बच्चों की नजर में मैं कोई अजीब-सा जंतु हूं। वे पूरी मुस्तैदी से मेरा मुआयना करते हैं और फिर एक-दूसरे के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं। उन्हें लगता है मैं घुमक्कड़ लेखक नहीं, बल्कि दूसरे ग्रह से आया एक प्राणी हूं।

गजधर के लिए यह दिन उसके धर्य का इम्तिहान है। पहले हमें खबर मिलती है कि भूस्खलन के कारण सड़क जाम हो गई है और आज डाकिया गांव नहीं आएगा। फिर हमें पता चलता है कि भूस्खलन से पहले ही डाकिया उस जगह को पार कर चुका था। अफवाह तो यह भी है कि डाकिये का कहीं कोई पता-ठिकाना नहीं है। जल्द ही यह अफवाह झूठी साबित होती है। डाकिया पूरी तरह सुरक्षित है। बस उसका चिट्ठियों का झोला ही गुम हुआ है!

और फिर, दोपहर दो बजे डाकिया नमूदार होता है। वह हमें बताता है कि भूस्खलन हुआ जरूर था, लेकिन किसी और रास्ते पर। किसी शरारती लड़के ने सारी अफवाहें फैलाई थीं। लेकिन हमें संदेह है कि इन अफवाहों में डाकिये का भी कुछ न कुछ योगदान रहा होगा।
 

जी हां, गजधर इम्तिहान में पास हो गया है और कल सुबह वह इंटरव्यू देने मेरे साथ रवाना हो जाएगा। एक दिन में तीस मील का सफर तय करने के लिए हमें जल्दी उठना पड़ेगा। लिहाजा अपने दोस्तों और पड़ोस में रहने वाले गजधर के भावी ससुर के साथ शाम बिताने के बाद हम सोने चले जाते हैं। मैं नींबू के उसी दरख्त के नीचे अपनी चारपाई पर लेटा हूं। आकाश में चांद अभी नहीं उगा है और दरख्त के झींगुर भी चुप्पी साधे हुए हैं।

मैं तारों जड़े आकाश के तले चारपाई पर पसर जाता हूं और आंखें मूंद लेता हूं। मुझे लगता है दरख्त और उसकी पत्तियों को कोई धीमे-से सहलाकर आगे बढ़ गया है। रात की हवा में नींबू की ताजी महक फैल जाती है। मैं इन लम्हों को ताउम्र नहीं भुला पाऊंगा।

रविवार, 11 सितंबर 2011

कुदरत की नायाब इंजीनियरिंग










ये है मेघालय का चेरापूंजी। दुनिया में सबसे अधिक वर्षा वाले स्थानों मे से एक। यहां कुदरत पानी बनकर रास्ता रोकती भी है तो खुद ही पुल बनकर उसे पार भी करा देती है। चेरापूंजी के सघन वन क्षेत्रों में नदियों को पार करने के लिए ऐसे ही पुल बने हुए हैं। इन्हें सीमेंट या कंक्रीट से नहीं बल्कि पेड़ों की जड़ों और लताओं को मिलाकर बनाया गया है। नदी के किनारे उगे पेड़ों की टहनियों और जड़ों को लोग दूसरे किनारे तक बांध देते हैं। धीरे-धीरे बढ़ते हुए ये मजबूत पुल जैसा रूप ले लेते हैं। ये इतने मजबूत हैं कि एक बार में 50 लोग को एक साथ नदी पार करा सकते हैं। हालांकि, इन्हें पूरी तरह पनपने में 15 से 20 साल लग जाते हैं। सीमेंट और कंक्रीट का पुल समय के साथ जहां कमजोर हो जाता है, वहीं यह पहले से ज्यादा मजबूत होते जाते हैं। खास बात यह भी है कि ये पत्थरों की तरह निर्जीव नहीं हैं। यह कुदरत की इंजीनियरिंग है।