सोमवार, 26 सितंबर 2011

ममता से हारी मौत



 ये है केन्या का मसाई मारा रिजर्व पार्क। इतना दुर्गम जंगल कि यहां हर कदम पर मौत के साथ जिंदगी की जंग लडऩी पड़ती है। चाहे फिर जंगल का होने वाला राजा ही क्यों न हो, कुदरत किसी के साथ रियायत नहीं बरतती, लेकिन कुदरत 'मां' भी होती है और मां जीवन का वरदान देती है। यह नन्हा शावक जब इस खड़ी ढाल वाले गड्ढे में फंस गया तो मां ही आगे आई और अपने बच्चे को मौत के मुंह से निकालकर ले आई। इस तस्वीर को अपने कैमरे में कैद किया वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर जीन-फ्रेनकॉइस
 लार्गोट ने।




बाघिन को पकड़ा, दांत तोड़े, फिर आंखें फोड़कर शव का जुलूस निकाला

राजनांदगांव (छत्तीसगढ़).  बखरूटोला गांव में शनिवार दोपहर सैकड़ों लोगों की भीड़ ने एक बाघिन को पत्थर और लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला। घटना के दौरान वन विभाग की टीम भी वहीं मौजूद थी। बाघिन की मौत के बाद गांव में जश्न जैसा माहौल था। लोग बाघिन के शव को उठाकर नारे लगाते हुए घूमने लगे। वह तो उसका शव भी देने को तैयार नहीं थे। किसी तरह समझा कर वन विभाग ने शव हासिल किया। गांव वालों के मुताबिक यह बाघिन पिछले डेढ़ महीने से महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर घूम रही थी। उसने इलाके में एक महिला को अपना शिकार बनाया था। इसके अलावा यह तीन से ज्यादा लोगों को  घायल कर चुकी थी।

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

रूबी आंटी और उनका तोता

रस्किन बॉन्ड 


तुम नाकारा हो। न तो तुम बोलते हो, न गाते हो और न नाचते हो!’ इन शब्दों के साथ रूबी आंटी रोज अपने अभागे तोते को कोसतीं और वह बेचारा पिंजरे में बैठा बरामदे की ओर टुकुर-टुकुर ताकता रहता। यह मेरी नानी के बंगले का बरामदा था। एक जमाना था, जब लगभग हर कोई, फिर चाहे वह भारतीय हो या यूरोपियन, तोतों को पालना पसंद करता था। कुछ लोग लवबर्डस भी रखते थे। तोतों की इस खूबी के बारे में तो सभी जानते हैं कि वे नकल करना बहुत जल्दी सीख जाते हैं। पालतू तोते घर की बोली सीख जाते थे और उसे मंत्र की तरह रटते थे। इसी से एक शब्द बना है ‘तोतारटंत’। कुछ तोते बच्चों को शिक्षा देने वाले उपदेशक की भूमिका भी निभाते थे। माता-पिता तोतों को ‘पढ़ो बेटा पढ़ो’ या ‘लालच बुरी बला है’ बोलना सिखा देते थे और तोते दिनभर इन्हें रटते रहते थे। हालांकि पता नहीं, इस उपदेश का घर के शरारती बच्चों पर कितना असर पड़ता था।


अलबत्ता तोते इतनी आसानी से बोलना नहीं सीखते थे। उन्हें सिखाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती थी और धर्य भी रखना पड़ता था। तोतों को कोई वाक्य रटाने के लिए अक्सर घर के किसी सदस्य को यह जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी कि वह दिनभर तोते के सामने बैठकर उसे दोहराता रहे। लेकिन हमारा तोता कुछ नहीं बोलता था।


रूबी आंटी ने उसे एक बहेलिये से खरीदा था, जो अक्सर हमारे घर के सामने वाली गली से गुजरता था। उसके पास कई तरह के पक्षी हुआ करते थे, फिर चाहे वह रंग-बिरंगी चिड़ियाएं हों या चहचहाने वाली मुनियाएं। बहेलिया आम पंछियों पर भी तरह-तरह के रंग पोतकर उन्हें लोगों को बेच देता था। वह कहता था कि ये खास किस्म के पक्षी हैं और लोग उसके झांसे में भी आ जाते थे। नानी और नाना दोनों को ही पक्षी पालने का कोई शौक नहीं था, लेकिन रूबी आंटी को पालतू परिंदे बहुत पसंद थे और जब वे किसी चीज को पाने की जिद ठान लेती थीं तो कोई भी उनके आड़े आने की जुर्रत नहीं करता था।

यह भी उनकी ही जिद थी कि घर में तोते पाले जाएं और उन्हें अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जाएं। लेकिन रूबी आंटी के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए, जब उन्हें पता चला कि वे जिस तोते को इतने शौक से खरीदकर लाई हैं, वह तो मौन व्रत धारण किए हुए है। इतना ही नहीं, ऐसा भी लगता था कि उसे रूबी आंटी की शक्ल ही पसंद नहीं थी और शायद उनके द्वारा उसे बंदी बनाए जाने के कारण ही उसने कुछ न बोलने की कसम खा ली थी।

रूबी आंटी तोते के पिंजरे से अपना चेहरा सटाकर उसे लुभाने की भरसक कोशिश करतीं। वे उसे पुचकारतीं, लेकिन वह चुपचाप एक कोने में बैठा रहता। उसकी नन्ही आंखें सिमटकर और छोटी हो जातीं, मानो वह रूबी आंटी पर आंखें तरेर रहा हो। एक बार तो उसने आंटी के चेहरे पर जोर का झपट्टा मारा और चोंच से उनके चश्मे की कमानी पकड़कर उसे नीचे पटक दिया।


इसके बाद रूबी आंटी ने उसे बहलाने-फुसलाने के सभी प्रयासों को तिलांजलि दे दी। इतना ही नहीं, उन्होंने तो उस बेचारे बेजुबान पक्षी के विरुद्ध एक अघोषित मोर्चा भी खोल दिया। वे उसे मुंह चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। वे रात-दिन उसे कोसती रहतीं और उसे गूंगा और नाकारा तोता कहतीं।


तब मैं कुल जमा दस साल का था। आखिरकार मैंने ठान लिया कि मुझे उस तोते का ख्याल रखना चाहिए। मैंने पाया कि उसे मुझसे किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं थी। मैं उसे हरी मिर्चे खिलाता और वह बड़े मजे से उन्हें खा लेता था। आम के मौसम में मैं उसे आम की फांकें खिलाता और वह उन्हें भी गपागप खा जाता। तोते को आम खिलाने के बहाने मैं भी एक-आध आम पर हाथ साफ कर लेता था।


एक दोपहर मैंने तोते को उसका लंच कराया और फिर जान-बूझकर पिंजरे का दरवाजा खुला छोड़ दिया। चंद लम्हों बाद ही उसे आजादी का स्वाद पता चल गया और उसने आम के कुंज की ओर उड़ान भर दी। तभी नाना बरामदे में आए और उन्होंने मुझसे कहा : ‘मैंने अभी-अभी तुम्हारी रूबी आंटे के तोते को उड़ते हुए देखा है।’ मैंने कंधे उचकाते हुए कहा : ‘हो सकता है, वैसे भी उसके पिंजरे का दरवाजा ठीक से लग नहीं पा रहा था। मुझे नहीं लगता अब हम उसे कभी पिंजरे के भीतर देख पाएंगे।’


यह खबर सुनकर पहले-पहल तो रूबी आंटी नाराज हुईं और कहने लगीं कि वे एक और तोता लेकर आएंगी। हमने उन्हें यह कहकर समझाने का प्रयास किया कि तोते के स्थान पर हमें एक छोटा-सा इक्वेरियम खरीदना चाहिए, जिसमें ढेर सारी गोल्डफिश हों। रूबी आंटी ने इस विचार के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित करते हुए कहा : ‘लेकिन गोल्डफिश बोलती नहीं हैं।’ नाना ने चुटकी लेते हुए कहा : ‘बोलता तो तुम्हारा तोता भी नहीं था।’ फिर उन्होंने कहा : ‘हम तुम्हें एक ग्रामोफोन खरीद देंगे, जो तुम्हारे इशारे पर दिन-रात बोलता रहेगा।’


खैर, मैंने तो सोचा था कि हम उस तोते को फिर नहीं देखेंगे, लेकिन शायद उसे अपनी हरी मिर्चो की याद सता रही होगी, इसलिए चंद दिनों बाद मैंने उसे हमारे बरामदे की दीवार पर बैठा देखा। वह अपनी गर्दन झुकाकर मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। मैंने सहृदयता का परिचय देते हुए उसकी तरफ अपना आधा आम बढ़ा दिया। जब वह आम का मजा ले रहा था, तभी रूबी आंटी कमरे से बाहर आईं और उसे देख मारे खुशी के उछल पड़ीं : ‘देखो, मेरा तोता लौट आया!’

तोते ने उड़ान भरी और समीप ही एक गुलाब की झाड़ी पर जाकर बैठ गया। उसने रूबी आंटी को घूरकर देखा और फिर उनकी नकल करते हुए कहने लगा : ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रूबी आंटी गुस्से में लाल-पीली होकर अपने कमरे में चली गईं, लेकिन उसके बाद वह तोता अक्सर हमारे बरामदे में चला आता और रूबी आंटी को देखते ही ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रटने लगता।
आखिरकार रूबी आंटी का तोता बोलना सीख ही गया था!

पहाड़ों की मेहमाननवाजी

रस्किन बॉन्ड   


नींद खुली तो फैक्टरी के सायरन सरीखी वह दूरस्थ गूंज सुनाई दी, लेकिन वह वास्तव में मेरे सिरहाने मौजूद नींबू के दरख्त पर एक झींगुर की मीठी भिनभिनाहट थी। हम खुले में सो रहे थे। इस गांव में जब मैं पहली सुबह जागा था तो छोटी-छोटी चमकीली पत्तियों को देर तक निहारता रहा था। पत्तियों के पीछे पहाड़ थे।

आकाश के अनंत विस्तार की ओर लंबे-लंबे डग भरता हिमालय। हिंदुस्तान के अतीत की अलसभोर में एक कवि ने कहा था ‘हजारों सदियों में भी हिमालय के वैभव का बखान नहीं किया जा सकता’ और वाकई तब से अब तक कोई भी कवि इस पहाड़ के भव्य सौंदर्य का वास्तविक वर्णन नहीं कर पाया है।

हमने हिमालय के सर्वोच्च शिखर को अपने कदमों तले झुका लिया, लेकिन इसके बावजूद वह हमारे लिए सुदूर, रहस्यपूर्ण और आदिम बना हुआ है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिमालय की धुंध भरी तराइयों में रहने वाले लोग विनम्र और धर्यवान होते हैं।

मैं कुछ दिनों के लिए इन्हीं लोगों का मेहमान हूं। मेरा दोस्त गजधर मुझे अपने गांव लेकर आया है। गढ़वाल घाटी में स्थित इस गांव का नाम है मंजरी। यह मेरी चौथी सुबह है। तीन सुबहों से मैं चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर जाग रहा था, लेकिन आज झींगुर की गुनगुनाहट में चिड़ियों के सभी गीत डूब गए हैं।

अलबत्ता अभी भोर ही है, लेकिन मुझसे पहले सभी लोग जाग चुके हैं। पहलवानों सरीखी काया वाला गजधर आंगन में कसरत कर रहा है। वह जल्द से जल्द सेना में दाखिल होना चाहता है। उसका छोटा भाई भैंसें दुह रहा है। मां चूल्हा फूंक रही है। छोटे बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे हैं।

गजधर के पिता फौज में हैं, लिहाजा वे अधिकतर वक्त घर से दूर रहते हैं। गजधर कॉलेज पढ़ने जाता है तो उसकी मां और भाई खेती-बाड़ी का काम संभालते हैं। चूंकि गांव नदी से ऊंचाई पर स्थित है, इसलिए वे मानसून की बारिश पर निर्भर रहते हैं। एक गिलास गर्म दूध पीने के बाद मैं, गजधर और उसका छोटा भाई घूमने निकल पड़ते हैं।

धूप पहाड़ों पर रेंग रही है, लेकिन वह अभी तक संकरी घाटियों में नहीं उतरी है। हम नदी में नहाते हैं। गजधर और उसका भाई एक बड़ी-सी चट्टान से नदी में गोता लगाते हैं, लेकिन मैं एहतियात बरतना चाहता हूं। पानी के वेग और गहराई का मुझे अभी अंदाजा नहीं है। साफ और ठंडा पानी सीधे ग्लेशियरों से पिघलकर आ रहा है।

मैं जल्दी से नहाता हूं और फिर रेत में दुबककर बैठ जाता हूं, जहां अब धूप घुसपैठ करने लगी है। हम फिर पहाड़ की ऊंचाई से जूझने के लिए चल पड़ते हैं। रास्ते में पहले स्कूल आता है और फिर एक छोटा-सा मंदिर। एक दुकान भी आती है, जहां से साबुन, नमक और अन्य जरूरी चीजें खरीदी जा सकती हैं। यह गांव का डाकघर भी है।

डाकिया अभी तक नहीं पहुंचा है। तकरीबन तीस मील दूर स्थित लैंसडोन से डाक आती है। डाकिये को आठ मील के दायरे में अनेक गांवों तक संदेश पहुंचाना होता है और वह यहां दोपहर तक ही पहुंच पाता है। वह डाकिये के साथ ही खबरनवीस की भूमिका भी निभाता है, क्योंकि गांववालों को देश-दुनिया की खबरें सुनाने की जिम्मेदारी उसी की है। हालांकि गांववाले उसकी अधिकांश खबरों को मनगढ़ंत मानते हैं, इसीलिए जब उसने बताया था कि आदमी चांद पर पहुंच गया है तो किसी ने भी उसकी बात पर यकीन नहीं किया था।

गजधर एक पत्र का इंतजार कर रहा है। उसे सेना की प्रवेश परीक्षा के नतीजों का इंतजार है। यदि वह पास हो गया तो उसे इंटरव्यू के लिए बुलाया जाएगा। यदि वह वहां भी कामयाब हो गया तो उसे ट्रेनिंग दी जाएगी। दो साल बाद वह सेकंड लेफ्टिनेंट बन जाएगा। सेना में बारह साल बिताने के बावजूद उसके पिता अभी तक महज कापरेरल ही हैं। लेकिन उसके पिता कभी स्कूल नहीं गए थे। उन दिनों इस इलाके में स्कूल थे ही नहीं।

जब हम गांव के स्कूल के समीप से गुजरते हैं तो मुझे देखकर बच्चे दौड़े चले आते हैं और हमें घेरकर खड़े हो जाते हैं। उन्होंने इससे पहले कभी कोई गोरा चेहरा नहीं देखा था। गांव के बड़े-बुजुर्गो ने ब्रिटिश फिरंगियों को देखा था, लेकिन बीते कई सालों से गांव में कोई यूरोपियन नहीं आया है। बच्चों की नजर में मैं कोई अजीब-सा जंतु हूं। वे पूरी मुस्तैदी से मेरा मुआयना करते हैं और फिर एक-दूसरे के कानों में कुछ फुसफुसाते हैं। उन्हें लगता है मैं घुमक्कड़ लेखक नहीं, बल्कि दूसरे ग्रह से आया एक प्राणी हूं।

गजधर के लिए यह दिन उसके धर्य का इम्तिहान है। पहले हमें खबर मिलती है कि भूस्खलन के कारण सड़क जाम हो गई है और आज डाकिया गांव नहीं आएगा। फिर हमें पता चलता है कि भूस्खलन से पहले ही डाकिया उस जगह को पार कर चुका था। अफवाह तो यह भी है कि डाकिये का कहीं कोई पता-ठिकाना नहीं है। जल्द ही यह अफवाह झूठी साबित होती है। डाकिया पूरी तरह सुरक्षित है। बस उसका चिट्ठियों का झोला ही गुम हुआ है!

और फिर, दोपहर दो बजे डाकिया नमूदार होता है। वह हमें बताता है कि भूस्खलन हुआ जरूर था, लेकिन किसी और रास्ते पर। किसी शरारती लड़के ने सारी अफवाहें फैलाई थीं। लेकिन हमें संदेह है कि इन अफवाहों में डाकिये का भी कुछ न कुछ योगदान रहा होगा।
 

जी हां, गजधर इम्तिहान में पास हो गया है और कल सुबह वह इंटरव्यू देने मेरे साथ रवाना हो जाएगा। एक दिन में तीस मील का सफर तय करने के लिए हमें जल्दी उठना पड़ेगा। लिहाजा अपने दोस्तों और पड़ोस में रहने वाले गजधर के भावी ससुर के साथ शाम बिताने के बाद हम सोने चले जाते हैं। मैं नींबू के उसी दरख्त के नीचे अपनी चारपाई पर लेटा हूं। आकाश में चांद अभी नहीं उगा है और दरख्त के झींगुर भी चुप्पी साधे हुए हैं।

मैं तारों जड़े आकाश के तले चारपाई पर पसर जाता हूं और आंखें मूंद लेता हूं। मुझे लगता है दरख्त और उसकी पत्तियों को कोई धीमे-से सहलाकर आगे बढ़ गया है। रात की हवा में नींबू की ताजी महक फैल जाती है। मैं इन लम्हों को ताउम्र नहीं भुला पाऊंगा।

रविवार, 11 सितंबर 2011

कुदरत की नायाब इंजीनियरिंग










ये है मेघालय का चेरापूंजी। दुनिया में सबसे अधिक वर्षा वाले स्थानों मे से एक। यहां कुदरत पानी बनकर रास्ता रोकती भी है तो खुद ही पुल बनकर उसे पार भी करा देती है। चेरापूंजी के सघन वन क्षेत्रों में नदियों को पार करने के लिए ऐसे ही पुल बने हुए हैं। इन्हें सीमेंट या कंक्रीट से नहीं बल्कि पेड़ों की जड़ों और लताओं को मिलाकर बनाया गया है। नदी के किनारे उगे पेड़ों की टहनियों और जड़ों को लोग दूसरे किनारे तक बांध देते हैं। धीरे-धीरे बढ़ते हुए ये मजबूत पुल जैसा रूप ले लेते हैं। ये इतने मजबूत हैं कि एक बार में 50 लोग को एक साथ नदी पार करा सकते हैं। हालांकि, इन्हें पूरी तरह पनपने में 15 से 20 साल लग जाते हैं। सीमेंट और कंक्रीट का पुल समय के साथ जहां कमजोर हो जाता है, वहीं यह पहले से ज्यादा मजबूत होते जाते हैं। खास बात यह भी है कि ये पत्थरों की तरह निर्जीव नहीं हैं। यह कुदरत की इंजीनियरिंग है।

शनिवार, 20 अगस्त 2011

कोयल: 5000 किमी के सफर पर नजर


पक्षी विज्ञान से जुड़ी ब्रितानी संस्था - ब्रिटिश ट्रस्ट फ़ॉर ऑरनिथोलोजी के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट के ज़रिए पांच ब्रितानी कोयल के प्रवासन के रास्तों का पता लगाया है. इन वैज्ञानिकों ने इन पक्षियों के पैरों से उपकरण लगा दिए थे ताकि सैटेलाइट के ज़रिए उनके उड़ान के रास्ते को जाना जा सके. वैज्ञानिकों की इस टीम ने जून महीने में इन पक्षियों को पकड़ा और ये उपकरण लगाए ताकि उनकी उड़ान के रास्तों पर नज़र रखी जा सके. अब ये पांचों कोयल अफ्रीका पहुंच गई हैं.
इन पांच कोयलों ने अपनी यात्रा ईस्ट एग्लिया से शुरु की थी और अब ये 3000 किलोमीटर की दूरी पर महाद्वीप में फैल चुकी हैं.
कोयल पर जो ये उपकरण लगाए गए हैं वह अपने आप हर दो दिनों में एक बार दस घंटे के लिए अपने आप ही चालू हो जाते हैं. ये उपकरण रेडियों सिग्नल के ज़रिए इन पक्षियों के ठिकानों के बारे में जानकारी देता है. सैटेलाइट के ज़रिए उपलब्ध हो रही इस जानकारी से अब ट्रस्ट के दफ़्तर में बैठ कर ही ये वैज्ञानिक इन पक्षियों की यात्रा के बारे में जानकारी एकत्र कर रहे हैं.

प्रजनन की चिंता

पक्षियों पर नज़र रख रही टीम के अध्यक्ष डॉक्टर ह्यूसन ने बीबीसी को बताया, "अब हम पक्षियों पर लगे उपकरणों के ज़रिए ताज़ा जानकारी हासिल कर सकते हैं. अब हम इन पक्षियों के बारे में तस्वीरों के द्घारा भी जान सकते है कि वह आख़िर है कहां."
अब हम पक्षियों पर लगे उपकरणों के ज़रिए ताज़ा जानकारी हासिल कर सकते हैं.अब हम इन पक्षियों के बारे में तस्वीरों के द्घारा भी जान सकते है कि वह आख़िर है कहां
डॉक्टर क्रिस हेवसन
डॉक्टर ह्यूसन का कहना है,"चार पक्षी पहले ही सहारा पार कर चुके हैं, दो दक्षिणी चाड़, एक उत्तरी नाइजीरिया और चौथा बरकिना फासो तक पहुंच चुका है. लेकिन इनमें से एक कोयल पीछे है जो अभी तक केवल मॉरक्को तक पहुंची है."
लेकिन इन वैज्ञानिकों को इस बात का डर था कहीं सहारा पार करते वक्त इनकी मौत न हो जाए. ये देखा गया है कि सहारा के रेगिस्तान से गुज़रते वक्त पक्षियों की मौत हो जाती है लेकिन अब ये वैज्ञानिक खुश हैं इन सब पक्षियों ने सहीसलामत सहारा पार कर लिया है.
वैज्ञानिकों की ये टीम ये पता लगाना चाहती है कि ये पक्षी किस तरह के वातावरण में आश्रित रहते हैं और ये खाने के लिए कहां रुकते हैं.
डॉक्टर ह्यूसन का कहना है, "इन प्रवासी पक्षियों की प्रजनन की जगह के साथ-साथ जाड़ो के मौसम में रहने की भी जगह होती है बल्कि उड़ान के वक्त भी उनकी अलग-अलग ठहरने की जगह होती है जहां वह समय बिताते हैं."
अब इन वैज्ञानिकों को ये चिंता है कि ब्रिटेन और यूरोप अब गर्म हो रहा है तो इन पक्षियों को अपने प्रजनन के क्षेत्र में वापस लौट आना चाहिए.
डॉक्टर का ह्यूसन का कहना है, "अगर हमें ये पता नहीं चल पाता है कि ये पक्षी कहां  हैं, तो हमें ये नहीं पता चल पाता की इन पक्षियों की ब्रिटेन वापसी में कहां समस्या आ रही है."
Content Courtesy: BBC Hindi 

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

एक भुला दी गई सच्चाई

जगमोहन

जहां हम लगातार यह दावा करते हैं कि 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में सम्मिलन हो गया था और वह भारत का अभिन्न अंग बन गया था, वहीं हम इसमें कम ही रुचि रखते हैं कि फिलवक्त उस बड़े क्षेत्र में क्या हो रहा है, जो पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। जून में इस क्षेत्र के एक हिस्से में विधानसभा चुनाव हुए, लेकिन हमारे मीडिया ने इस घटना को तकरीबन नजरअंदाज कर दिया। यह क्षेत्र अत्यधिक रणनीतिक महत्व का है और चीन पाकिस्तान के सहयोग से इसमें लगातार घुसपैठ कर रहा है।

हम इस क्षेत्र को पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं। नियंत्रण रेखा के दूसरी तरफ इसे ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के नाम से जाना जाता है, जिसके इर्द-गिर्द संप्रभुता का एक मनगढ़ंत ताना-बाना बुना गया है। पाकिस्तान के संविधान में इस क्षेत्र के नाम का भी उल्लेख नहीं है। न ही पाकिस्तान की नेशनल असेंबली या सीनेट में इस क्षेत्र का कोई प्रतिनिधित्व है। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ का क्षेत्रफल लगभग 78114 वर्ग किलोमीटर है, जो कि पूर्व कश्मीर रियासत का लगभग एक-तिहाई है।

इसके लगभग 85 फीसदी क्षेत्र में गिलगित और बाल्टिस्तान जैसे बड़े और हुंजा, नगर और पुनियल जैसे छोटे प्रांत हैं। ये प्रांत कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ से पृथक हैं। ये पृथक प्रांत संयुक्त रूप से फेडरल एडमिनिस्टर्ड नॉर्दर्न एरियाज (एफएएनए) कहलाते हैं, जबकि ‘आजाद जम्मू और कश्मीर’ कहलाने वाला इलाका पाक अधिकृत कश्मीर का महज 15 फीसदी है। इसी इलाके में गत 26 जून को 49 सदस्यीय विधानसभा के लिए चुनाव हुए थे।

पाकिस्तान की कोशिश रही है कि इस इलाके को दुनिया के सामने ‘अर्ध संप्रभु किंतु जनतांत्रिक’ क्षेत्र के रूप में पेश करे। लेकिन इस कोशिश की राह में कुछ कठोर तथ्य खड़े हैं। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ 1974 के अंतरिम संविधान के तहत संचालित होता है। यहां विधानसभा के अलावा एक पृथक सर्वोच्च अदालत और चुनाव आयोग भी है। इसकी सरकार के मुखिया को प्रधानमंत्री और संवैधानिक मुखिया को राष्ट्रपति कहा जाता है। लेकिन इन तमाम प्रपंचों का वास्तविकता में बहुत कम महत्व है।

वास्तव में पाकिस्तानी हुकूमत इस इलाके को अपनी जागीर की तरह संचालित करती है। संविधान के प्रावधानों के मुताबिक कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ काउंसिल के अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं और कश्मीर मामलों के केंद्रीय मंत्री इसके सचिव हैं। ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के प्रधानमंत्री इसके उपाध्यक्ष हैं। काउंसिल में ग्यारह अन्य सदस्य हैं, जिनमें से पांच हुकूमत के मेंबरान हैं। यह एक स्वायत्त संस्था है, हालांकि संविधान इसे महज एक ‘लिंक काउंसिल’ ही बताता है।

इसकी शक्तियों और प्रभाव के दायरे का पता इस बात से चलता है कि इसके न्यायाधिकार में कम से कम 52 नियामक तत्व हैं और इसके निर्णयों को कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ की सर्वोच्च अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। काउंसिल को इमरजेंसी की घोषणा करने का भी अधिकार है। एक ऐसी काउंसिल, जिसके अध्यक्ष पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हों, वह यकीनन वही फैसले लेगी, जो पाकिस्तानी हुकूमत और सत्तारूढ़ पार्टी के हित में होंगे। इसकी व्यापक शक्तियों के चलते कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ की हुकूमत के पास न के बराबर अधिकार हैं। यहां तक कि इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियां भी पाकिस्तान की हुकूमत द्वारा ही की जाती है।

बात साफ है। ‘आजाद’ सरकार एक नख-दंतहीन संस्था है और इसके अधिकार एक नगर पालिका से अधिक नहीं हैं। इसके ‘राष्ट्रपतियों’ और ‘प्रधानमंत्रियों’ को हुकूमत द्वारा जब चाहे बदल दिया जाता है। पाकिस्तान की हुकूमत बदलते ही ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ के हुक्मरान भी बदल जाते हैं। हैरत नहीं कि यूनाइटेड नेशंस कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीस ने इस क्षेत्र को ‘अस्वतंत्र’ चिह्न्ति किया है। कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ का सम्मिलन भी पूर्वनिर्धारित था।

1974 का अंतरिम संविधान कहता है: ‘किसी भी व्यक्ति या दल को पाकिस्तान की विचारधारा के विरुद्ध प्रचार करने या पूर्वग्रहग्रस्त गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’ न ही कोई व्यक्ति इस क्षेत्र के पाकिस्तान में सम्मिलन का समर्थन किए बिना विधानसभा चुनाव लड़ पाएगा। उत्तर के क्षेत्र तो और मुसीबत में हैं।

2009 तक यहां प्रतिनिधि संस्था जैसी कोई चीज नहीं थी और उन्हें सीधे केंद्रीय हुकूमत के रक्षा मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव द्वारा संचालित किया जाता था। इन वजहों से लोगों में आक्रोश उपजा। कई हिंसक-अहिंसक प्रदर्शन हुए। हुकूमत नर्म पड़ी। उसने गिलगित-बाल्टिस्तान सशक्तीकरण व स्वशासन आदेश 2009 नामक अध्यादेश जारी किया। उत्तरी क्षेत्रों का नामकरण गिलगित-बाल्टिस्तान कर दिया गया और एक निर्वाचित विधानसभा का प्रावधान भी रखा गया।

लेकिन अधिक महत्व की बात यह है कि यह समूचा क्षेत्र, जिस पर वैधानिक रूप से भारत का स्वामित्व है, औपचारिक रूप से पाकिस्तान में सम्मिलित कर लिया गया है। भारत सरकार और जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक दलों के साथ ही कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ द्वारा किए गए अशक्त विरोध को पाकिस्तानी हुकूमत ने नजरअंदाज कर दिया। भारत ने नियंत्रण रेखा के उस तरफ हो रही गतिविधियों की उपेक्षा करने की भारी कीमत चुकाई है।

बीते दो दशकों के दौरान जहां कथित ‘आजाद जम्मू-कश्मीर’ सीमापार आतंकवाद के लिए एक सक्रिय केंद्र बन गया, वहीं गिलगित-बाल्टिस्तान घुसपैठियों की शरणगाह बन गया, जिसकी परिणति 1999 के कारगिल युद्ध के रूप में हुई थी। भारत के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि पाकिस्तान-चीन मिलकर इस क्षेत्र में आगामी मुश्किलों के बीज बो रहे हैं।

चीन गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र में रेल और सड़क मार्ग बना रहा है। कराकोरम हाईवे को विस्तारित किया जा रहा है। पाकिस्तान और चीन मिलकर कश्मीर समस्या के संबंध में भारत के लिए और मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। अब समय आ गया है कि भारत नियंत्रण रेखा के उस तरफ हो रही घटनाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करे और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए एक प्रभावी रणनीति का निर्माण करे।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

धरती का उत्सव है बारिश

रस्किन बॉन्ड 


पानी की बूंदें नन्ही जरूर होती हैं, लेकिन वे किसी जादू के पिटारे से कम नहीं होतीं। एक मायने में ये बूंदें सीप भी हैं और मोती भी। पानी की हर बूंद सृजन और स्वयं जीवन के एक अंश का प्रतिनिधित्व करती है। जब गर्मियों के लंबे और थका देने वाले मौसम के बाद धरती पर मानसून की पहली फुहारें पड़ती हैं तो धरती के उल्लास के बारे में कुछ न पूछिए। तपिश से झुलसी धरती बारिश की हर बूंद का मनप्राण से स्वागत करती है। वह अपने तमाम रंध्रों को खोल देती है और हर बूंद से अपनी प्यास बुझाती है। वह पिछले कई माह से धूप में तप रही थी।

उसमें दरारें पड़ गई थीं और मिट्टी की नमी समाप्त हो चुकी थी। इस विषादग्रस्त धरती पर बारिश की बूंदें क्या पड़ती हैं, मानो कोई चमत्कार हो जाता है। रातोंरात जाने कहां से घास उग आती है। धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। सब कुछ नया-नया नजर आने लगता है। ऐसा लगता है जैसे धरती ने नए सिरे से जीवन की शुरुआत की हो। बारिश की पहली बूंदें पड़ने के बाद जो सौंधी महक उठती है, उसकी तुलना मनुष्य द्वारा ईजाद किए गए किसी भी इत्र से नहीं की जा सकती। उसके सामने अच्छे से अच्छा परफ्यूम भी फीका है।

बारिश धरती का उत्सव है। घास, पत्तियों, फूलों की पंखुरियों, कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों, जीव-जंतुओं और मनुष्यों के धड़कते हुए हृदय के लिए बारिश खूब सारी खुशियां लेकर आती है। बारिश की फुहार में भीगने के लिए बच्चे सड़कों पर दौड़े चले आते हैं। यहां तक कि मवेशी भी, जिन्होंने गर्मियों की लंबी दुपहरें सूखे जलस्रोतों और चरागाहों के इर्द-गिर्द भटकते हुए काटी थीं, बारिश के बाद कीचड़ में कुछ इस तरह मजे से पसर जाते हैं, जैसे कि वह स्वर्गलोक की आरामगाह हो। मानसून की मेहरबानी अगर बनी रहे तो जल्द ही नदियां और झीलें भी उफनने लगती हैं।

कुछ दिन पहले की बात है। मैं हिमालय की तराइयों में टहल रहा था कि मैंने पाया कि कई किलोमीटर तक सफर करने के बावजूद कहीं कोई बस्ती नजर नहीं आ रही है। मैं खुद को कोस रहा था कि मैं अपने साथ पानी क्यों नहीं लेकर आया। तभी मुझे फर्न की हरी-भरी झाड़ियों के पीछे कुछ हलचल नजर आई। मैंने आहिस्ता से झाड़ियां हटाईं तो देखता क्या हूं कि चट्टान के पीछे पानी का एक छोटा-सा सोता है! एक प्यासे मुसाफिर के लिए पानी का सोता अमृत की धारा से कम नहीं होता।

मैं वहां घंटों रहा और सोते से पानी की एक-एक बूंद को टपकते और नीचे बहते देखता रहा। हर बूंद से सृजनात्मकता झलक रही थी। बाद में मैंने पाया कि इस सोते से निर्मित हो रही जलधारा अन्य धाराओं के साथ मिलकर एक हहराती हुई नदी बन गई है, जो पहाड़ी रास्तों पर उछलकूद मचाती हुई नीचे मैदानों की ओर अपनी उर्वरता का वरदान लिए चली जा रही है। यह नदी किसी अन्य नदी से जाकर मिलती है और वह किसी अन्य से। विशालकाय महानदियों का जन्म इसी तरह होता है। हजारों किलोमीटर का सफर तय करने के बाद अंत में वे जाकर समुद्र में मिल जाती हैं। बूंद से सागर तक की यात्रा पूरी हो जाती है।

ताओ धर्म के प्रवर्तक और दार्शनिक लाओत्से ने कहा था : पानी की तरह हो जाओ। जो व्यक्ति पानी की तरह तरल, मृदुल और सहनशील होता है, वह किसी भी बाधा को पार कर सकता है और समुद्र तक पहुंच सकता है। पानी की तरह तरल हो जाने का अर्थ है विनम्र हो जाना, किसी से व्यर्थ विवाद न करना और चुपचाप अपनी राह पर बढ़ते चले जाना।

मसूरी हिल्स स्थित मेरे कॉटेज के बाहर एक छोटा-सा पोखर है। वह मेरे लिए अपार आनंद का स्रोत है। पोखर के पानी की सतह पर गुबरैले तैरते हैं। उनकी हलचल से पानी में तरंगें बनती हैं। तरंगों के ये जादुई घेरे फैलते रहते हैं और एक सीमा के बाद विलीन हो जाते हैं। छोटी-छोटी मछलियां छिछले पानी में दुबकी रहती हैं। कभी-कभी एक चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया पोखर पर पानी पीने आती है और एक चट्टान से दूसरी चट्टान तक फुदकती रहती है। पानी की तरंगों के खामोश संगीत के साथ यदा-कदा सुनाई दे जाने वाली मछलियों की सरसराहट और चकत्तेदार फोर्कटेल की चहचहाहट एक सुंदर और विस्मयपूर्ण संसार रचते हैं। मैं देर तक इस पोखर के समीप बैठकर यह सब निहारता रहता हूं।

एक बार मैंने पोखर के समीप एक हिरण को देखा। वह चुपचाप सिर झुकाए पोखर के पानी से अपनी प्यास बुझा रहा था। मैं सांस थामे उसे देखता रहा। मुझे डर था कि जरा-सी आहट से वह सशंकित हो जाएगा और प्यास बुझने से पहले ही वहां से दौड़ लगा देगा। मैंने अपनी ओर से शांत रहने की पूरी कोशिश की, लेकिन आखिर वही हुआ, जिसका डर था। जाने कौन-सी आहट सुनकर अचानक हिरण ने ऊपर देखा और मुझे देखकर लंबे-लंबे डग भरता हुआ वहां से रफूचक्कर हो गया।

गर्मियों के दिनों में यह पोखर तकरीबन पूरी तरह सूख जाता है। कुछ दिनों पहले तक इसमें महज इतना ही पानी था कि वह मछलियों और मेंढकों के जीवित रहने भर के लिए ही काफी था। लेकिन अब जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो तस्वीर काफी कुछ बदल चुकी है। मेरे कॉटेज की टिन की छत पर बारिश की बूंदें टपाटप बरस रही हैं। मैं बाहर झांककर देखता हूं तो पाता हूं कि आकाश से हो रही अमृतवर्षा पोखर के खाली प्याले को धीरे-धीरे भर रही है। अब यहां से प्राणी प्यासे नहीं लौटेंगे, मछलियों के लिए भी पोखर में पर्याप्त पानी होगा।

जल्द ही वह चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया यहां लौट आएगी। शायद एक न एक दिन वह हिरण भी लौटकर आए, जो उस दिन अपनी प्यास बुझाए बिना यहां से चला गया था। मैं कॉटेज की खिड़कियां खोल देता हूं और बारिश और उससे नम हुई धरती की अतुल्य सौंधी गंध को भीतर आने देता हूं।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

बैटल फॉर लाइफ



राजस्थान के रणथमभौर नेशनल पार्क में पिछळे दिनों एक ऐसा नजारा दिखा जो बरसों में एकाध बार होता है। एक बाघ और मादा भालू का आमना सामना। हुआ यूं कि मां भालू अपने दो छोटे बच्चों के साथ उन्हें पानी पिलाने ले जा ही रही थी कि सामने से एक बाघ आ गया और उसे लगा कि इन दो छोटे भालुओं से बेहतर शिकार क्या होगा। लेकिन मां भालू ने ये होने नहीं दिया और बाघ को पटखनी दे दी। वो सीधी लड़ाई के मूड में आ गई , जिससे बाघ को बैकफुट पर आना पड़ा। मां अपने दोनों बच्चों को पीठ पर बैठाकर वहां से गायब हो गई...

इन पलों को कैमरे में कैद किया है आदित्य सिंह ने

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बीच बहस में जम्मू-कश्मीर


  जगमोहन

जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।
                                                                    
जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

जीवन और प्रकृति का संग-साथ


रस्किन बॉण्ड
 
जैसे-जैसे साल के अंतिम दिन करीब आने लगते हैं, हिमालय की चोटियों पर टंगे बादल अजीबोगरीब रूप अख्तियार करने लगते हैं। हालांकि ये पानी वाले बादल नहीं होते। आकाश में वे लुकाछिपी का खेल खेलते रहते हैं और फिर सूर्यास्त की वैभवशाली खोह में गुम हो जाते हैं। मुझे हमेशा यही लगता है कि पहाड़ों पर साल का सबसे अच्छा वक्त यही होता है।

धूप से धुली हुई तराइयां हरे पन्ने की तरह चमकती हैं। हवा साफ होती है और जाड़ों की चुभन भी अभी एकाध माह दूर होती है। जो लोग पहाड़ों पर पैदल चलना पसंद करते हैं, उन्हें इस मौसम में वे झरने बहुत लुभाते हैं, जो साल के अधिकांश समय सूखे रहते हैं। पिछली गर्मियों में जो छिपकली ग्रेनाइट के पत्थरों पर धूप सेंकती थी, वह अब नजर नहीं आती है। लेकिन उसकी जगह छोटी-छोटी चिड़ियों ने ले ली है। झींगुरों की कर्कश आवाज की जगह ले ली है टिड्डों की किटकिटाहट की मद्धम-सी ध्वनि ने।

इसी मौसम में जंगली फूल पूरे शबाब पर होते हैं। पूरी वादी पर फूलों की चादर-सी बिछ जाती है। जंगली अदरक की तीखी गंध, बेतरह उलझी हुई बेलें और लताएं, वनस्पतियों के गुच्छे और लेडीज मेंटल कहलाने वाले अल्कैमिलिया के पौधों की लंबी कतार। धतूरे के फल सफेद गेंदों सरीखे लगते हैं। तंबाकू की टहनियों से देहाती लड़के बांसुरियां बनाते हैं। इसी मौसम में एरॉइड की झाड़ियां भी बहुतायत में नजर आती हैं। इनकी बेलों का आकार सांप की जीभ की तरह होने के कारण इन्हें कोबरा लिली भी कहा जाता है।

कोबरा लिली की यह जीभ मक्खियों के लिए एक बेहतरीन ‘लैंडिंग स्टेज’ साबित होती है। इसी की एक खूबसूरत प्रजाति का नाम है ‘सॉरोमोटम गुट्टाटम’। मुझे नहीं पता कि इसका क्या अर्थ होता है। यदि आप इसका मतलब जानना चाहते हैं तो किसी वनस्पति विज्ञानी से संपर्क करें। इसमें केवल एक पत्ती होती है। जब बारिश का मौसम बीत चुका होता है और मिट्टी की नमी समाप्त होने लगती है, तब उसकी टहनियों पर फिर से लाल बेरियां दिखाई देने लगती हैं। पहाड़ी लोग मानते हैं कि लाल बेरियां दिखाई देने का अर्थ है कि मानसून का मौसम अब खत्म हो गया। वे किसी भी मौसम विज्ञानी से ज्यादा भरोसा इन लाल बेरियों पर करते हैं।

यमुना और भगीरथी के बीच स्थित इस इलाके में इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हुआ जा सकता है कि सॉरोमोटम गुट्टाटम की टहनियों पर लाल बेरियां नजर आने के बाद सबसे सुहावना मौसम महज एक पखवाड़ा दूर है। लेकिन मुझे इन सबसे ज्यादा लुभाते हैं कॉमेलीनिया के फूल। हिमालय की तराई में पाए जाने वाले इतने सारे फूलों में से किसी में वह बात नहीं, जो कॉमेलीनिया में है। इसकी खूबसूरती का राज छिपा है इसके रंगों में। हल्की नीली रंगत।

ऐसा लगता है जैसे वह कोई आईना हो, जिसमें आकाश का अनंत नीलापन झांक रहा हो। बारिश का मौसम खत्म होते ही ये फूल जाने कहां से आ जाते हैं और पूरी वादी में छा जाते हैं। दो हफ्तों तक ये अपने रंगों का जादू बिखेरते हैं और फिर जाने कहां खो जाते हैं। हमें उन्हें फिर से देखने के लिए अगली बारिश बीत जाने का इंतजार करना होगा। जब मैंने पहली बार ये फूल देखे थे तो अवाक रह गया था। मुझे लगा जैसे समूची दुनिया स्थिर हो गई हो।

वह मेरे लिए प्रार्थना की तरह एक पवित्र क्षण था। मुझे महसूस हुआ जैसे यह अचीन्हा सौंदर्य ही एकमात्र वास्तविकता है और इसके सिवाय सब कुछ अवास्तविक है।

लेकिन यह केवल एक लम्हे का ख्याल था। तभी किसी ट्रक का हॉर्न जोरों से चीखा और मुझे तत्काल यह अहसास हो गया कि मैं अभी इसी धरती पर हूं। मैं सड़क पर खड़ा था। ट्रक मेरे पास से होकर गुजरा। धूल का एक गुबार उड़ा और मुझे हवा में डीजल की गंध तैरती हुई महसूस हुई। मुझे इस बात के और सबूत मिले कि दुनिया में कई तरह की वास्तविकताएं होती हैं। मुझे ऐसा लगा कि ट्रक की इस चिल्लपौं से मेरी कॉमेलीनिया भी जरा सहम गई है। मैंने सड़क छोड़ दी और एक छोटी-सी पगडंडी पकड़कर आगे बढ़ने लगा।

बहुत जल्द ही मैं शहर की चहलपहल को अपने बहुत पीछे छोड़ आया था। इन शहरों के बारे में रूबी आंटी उस दिन कह रही थीं : अगर यहां हम पांच मिनट के लिए भी अपनी जगह पर स्थिर खड़े रहे तो लोग हमारे ऊपर एक होटल बना देंगे। मुझे बुक्स ऑफ जेनेसिस की उस महिला की याद हो आई। उसने जब अपने शापग्रस्त शहर को पलटकर देखा था तो वह नमक का एक खंभा बनकर रह गई थी। मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगने लगा। मुझे लगा कि अगर मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मैं सीमेंट का खंभा बन जाऊंगा। इसलिए मैं बिना पीछे मुड़े देवसारी तक नाक की सीध में चलता रहा। यह घाटी का एक प्यारा-सा गांव है। लेकिन संभव है ‘डेवलपर्स’ और पैसों का खेल खेलने वाले लोग जल्द ही यहां भी आ धमकें।

चाय की दुकान। मुझे ऐसा लगा जैसे उसने आवाज देकर मुझे पुकारा हो। अगर पहाड़ी इलाकों में सड़क के किनारे ये चाय की दुकानें न हों, तो क्या हो? वास्तव में ये किसी छोटी-मोटी सराय की तरह होती हैं। यहां भोजन भी मिलता है और आप चाहें तो यहां आराम भी कर सकते हैं। अक्सर तो यहां इतनी जगह होती है कि दर्जनभर लोग एक साथ आराम फरमा सकते हैं। मैं चाय के साथ डबलरोटी भी लेता हूं, लेकिन यह तो पत्थरों की तरह सख्त है। मैं गर्म चाय के साथ उसके कुछ टुकड़े जैसे-तैसे निगल लेता हूं।

यहां एक छोटा-सा देवस्थल भी है। चाय की दुकान के ठीक सामने। देवस्थल क्या, पत्थर का चबूतरा है। उस पर सिंदूर पुता है। पूजा के दौरान अर्पित किए गए फूल जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। सभी धर्मो में से हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो प्रकृति के सबसे करीब है। हिंदू लोग नदियों, पत्थरों, पेड़-पौधों, जीवों, पक्षियों सभी को पूजते हैं। ये सभी उनके जीवन के साथ ही उनकी धार्मिक आस्था के भी अभिन्न अंग हैं। जो इलाके शहरों की चहलपहल से दूर बसे होते हैं, जैसे कि पहाड़, वहां प्रकृति और जीवन का यह सामंजस्य सबसे ज्यादा नजर आता है। मैं आशा करता हूं कि शहरों के फैलते दायरे के बावजूद यह जीवन दृष्टि अपनी विलक्षणता को बरकरार रखेगी।

रविवार, 12 जून 2011

अब बिकेंगी पहाड़ों की चोटियां

 ऑस्ट्रिया के आलप्स पर्वत श्रृंखला की दो चोटियां एक लाख इक्कीस हज़ार यूरो में बिक्री के लिए उपलब्ध हैं.
ऑस्ट्रिया की सरकारी रियल एस्टेट कंपनी पूर्वी टेरोल में स्थित छह हज़ार पांच सौ फीट ऊंची दो चोटियों को बेचना चाहती है.
कंपनी का कहना है कि ‘ग्रॉसी किनिगट’ और ‘रॉसकोप्फ’ पर्वत चोटियों से घाटी के सबसे मनोरम दृश्य का आनंद उठाया जा सकता है.
हांलाकि कंपनी ने संभावित ख़रीदारों को पहले ही बता दिया है कि ख़रीदने के बाद उन्हें चोटी को घेरने या फिर बाड़ लगाने की अनुमति नही होगी और न उन्हें रास्ता रोकने का अधिकार होगा.

स्थानीय लोगों की नाराज़गी

स्थानीय लोग इन चोटियों को बेचे जाने के प्रस्ताव से नाराज़ है क्योंकि इनमें से एक चोटी प्रथम विश्व युद्ध की लड़ाई का स्मारक स्थल है.
कार्टिशच गांव के मेयर जोज़फ ऑसलेचनर का कहना है कि उनके लिए इन चोटियों को बेचा जाना एक रहस्य है. ग्रीस में द्वीपों को बेचा जा रहा है और ऑस्ट्रिया में पहाड़ो की इन चोटियों को.
एक स्थानीय अख़बार के मुताबिक़ इन चोटियों को ख़रीदने की इच्छा रखने वाले ग्राहक आठ जुलाई तक बोली लगा सकते हैं और 20 लोग अब तक ऐसा कर भी चुके है.

साभार  BBC

सोमवार, 6 जून 2011

कहां से आती हैं ये आवाजें?

  रस्किन बॉन्ड

रातभर बारिश टिन की छत को किसी ढोल या नगाड़े की तरह बजाती रही। नहीं, वह कोई आंधी नहीं थी। न ही वह कोई बवंडर था। वह तो महज मौसम की एक झड़ी थी, एक सुर में बरसती हुई।

अगर हम जाग रहे हों तो इस ध्वनि को लेटे-लेटे सुनना मन को भला लगता है, लेकिन यदि हम सोना चाहें तो भी यह ध्वनि व्यवधान नहीं बनेगी। यह एक लय है, कोई कोलाहल नहीं। हम इस बारिश में बड़ी तल्लीनता से पढ़ाई भी कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि बाहर बारिश है तो भीतर मौन है। अलबत्ता टिन की छत में कुछ दरारें हैं और उनसे पानी टपकता रहता है, इसके बावजूद यह बारिश हमें खलती नहीं। बारिश के करीब होकर भी उससे अनछुआ रह जाने का यह अहसास अनूठा है।

टिन की छत पर बारिश की ध्वनि मेरी प्रिय ध्वनियों में से है। अल सुबह जब बारिश थम जाती है, तब कुछ अन्य ध्वनियां भी मेरा ध्यान खींचती हैं, जैसे पंखों से पानी की बूंदें झाड़ने का प्रयास करता कौआ, जो लगभग निराशा भरे स्वर में कांव-कांव करता रहता है, कीड़े-मकोड़ों की तलाश करती बुलबुलें, जो झाड़ियों और लंबी घासों में फुदकती रहती हैं, हिमालय की तराई में पाए जाने वाले पक्षियों की मीठी चहचहाहट, नम धरती पर उछलकूद मचाते कुत्ते। मैं देखता हूं कि चेरी के एक दरख्त की शाखें भारी बारिश के कारण झुक गई हैं। शाखें यकायक हिलती हैं और मैं अपने मुंह पर पानी के छींटों की ताजगी को महसूस करता हूं।

दुनिया की कुछ सबसे बेहतरीन ध्वनियां पानी के कारण पैदा होती हैं। जैसे किसी पहाड़ी नदी की ध्वनि, जो हमेशा कहीं जाने की जल्दी में नजर आती है। वह पत्थरों पर से उछलती-मचलती अपनी राह पर आगे बढ़ती रहती है, मानो हमसे कह रही हो कि बहुत देर हो चुकी है, मुझे अपनी राह जाने दो। किसी सफेद खरगोश की तरह चंचल पहाड़ी नदियां हमेशा निचले इलाकों की तरफ जाने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं। एक अन्य ध्वनि है समुद्र की लहरों के थपेड़े, खासतौर पर तब, जब समुद्र हमसे थोड़ी दूर हो। या सूखी-प्यासी धरती पर पहली फुहार पड़ने की ध्वनि। या किसी प्यासे बच्चे द्वारा जल्दी-जल्दी पानी पीने की ध्वनि, जबकि पानी की धारा उसकी ठोढ़ी और उसकी गर्दन पर देखी जा सकती हो।

किसी गांव के बाहर एक पुराने कुएं से पानी उलीचने पर कैसी ध्वनि आती है, जबकि कोई ऊंट चुपचाप कुएं के इर्द-गिर्द मंडरा रहा हो? गांव-देहात की सूखी पगडंडियों पर चल रही बैलगाड़ी के पहियों की चरमराहट की ध्वनि की तुलना क्या किसी अन्य ध्वनि से की जा सकती है? खासतौर पर तब, जब गाड़ीवान उसके साथ ही कोई गीत भी गुनगुना रहा हो।

जब मैं ध्वनियों के बारे में सोचता हूं तो एक के बाद कई ध्वनियां याद आने लगती हैं: पहाड़ियों में बजने वाली घंटियां, स्कूल की घंटी और खुली खिड़की से आने वाली बच्चों की आवाजें, पहाड़ पर मौजूद किसी मंदिर की घंटी की ध्वनि, जिसकी मद्धम-सी आवाज ही घाटी में सुनी जा सकती है, पहाड़ी औरतों के पैरों में चांदी के भारी कड़ों की ध्वनि, भेड़ों के गले में बंधी घंटियों की टनटनाहट।

क्या धरती पर गिरती पत्तियों की भी ध्वनि होती है? शायद वह सबसे महीन और सबसे मद्धम ध्वनि होती होगी। लेकिन जब हम ध्वनियों की बात कर रहे हों, तब हम पक्षियों को नहीं भूल सकते। पहाड़ों पर पाए जाने वाले पक्षियों की आवाज मैदानों में पाए जाने वाले पक्षियों से भिन्न होती है। उत्तरी भारत के मैदानों में सर्दियों की सुबह यदि आप जंगल के रास्ते चले जा रहे हों तो आपको काले तीतर की जानी-पहचानी आवाज सुनाई देगी।

ऐसा लगता है जैसे वह कह रहा हो : ‘भगवान तेरी कुदरत’ और ऐसा कहते हुए वह ईश्वर द्वारा रची गई इस अद्भुत प्रकृति की सराहना कर रहा हो। ऐसा लगता है कि झाड़ियों से आ रही उसकी आवाज सभी दिशाओं में फैल रही हो, लेकिन मात्र एक घंटे बाद ही यहां एक भी पक्षी दिखाई-सुनाई नहीं देता और जंगल इतना शांत हो जाता है कि लगता है, जैसे सन्नाटा हम पर चीख रहा हो।

कुछ ध्वनियां ऐसी हैं, जो बहुत दूर से आती हुई मालूम होती हैं। शायद यही उनकी खूबसूरती है। ये हवा के पंखों पर सफर करने वाली ध्वनियां हैं। जैसे नदी पर मछुआरे की हांक, दूर किसी गांव में नगाड़ों की गड़गड़ या तालाब में मेंढकों की टर्र-टर्र।

लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें मोटरकार के हॉर्न की आवाज बहुत भाती है। मैं एक टैक्सी ड्राइवर को जानता हूं, जो जोरों से हॉर्न बजाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। उसके हॉर्न की ध्वनि सुनकर साइकिल चलाने वाले या पैदल चलने वाले लोग इधर-उधर हो जाते हैं। लेकिन वह अपने हॉर्न की ध्वनि पर मुग्ध रहता है। उसे देखकर लगता है, जैसे कुछ लोगों की पसंदीदा ध्वनियां दूसरों के लिए कोलाहल भी हो सकती हैं। हम अपने घर की ध्वनियों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते, लेकिन ये ही वे ध्वनियां हैं, जिन्हें हम बाद में सबसे ज्यादा याद करते हैं। जैसे केतली में उबलती हुई चाय, दरवाजे की चरमराहट, पुराने सोफे की स्प्रिंग की ध्वनि।

मुझे अपने घर के आसपास रहने वाली बत्तखों की भी याद आती है, जो बारिश में चहकती हैं। मैं एक बार फिर बारिश की ओर लौटता हूं, जिसकी ध्वनियां मेरी पसंदीदा हैं। एक भरपूर बारिश के बाद हवा झींगुरों और टिड्डों और छोटे-छोटे मेंढकों की आवाजों से भर जाती है। एक और आवाज है, बड़ी मीठी, मोहक और मधुर। मुझे नहीं पता यह किसकी आवाज है।

किसी टिड्डे की या किसी मेंढक की? शायद मैं कभी नहीं जान पाऊंगा। शायद मैं जानना चाहता भी नहीं। एक ऐसे दौर में, जब हमारी हर अनुभूति के लिए वैज्ञानिक और तार्किक कारण दिए जा सकते हैं, कभी-कभी किसी छोटे-मोटे राज के साथ जीना अच्छा लगता है। एक ऐसा राज, जो इतना मधुर हो, इतना संतुष्टिदायक हो और जो पूरी तरह मेरी आत्मा की गहराइयों में बसा हुआ हो।
 

लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

मंगलवार, 24 मई 2011

नदी के साथ-साथ एक सफर : रस्किन बांड


पहाड़ी की तलहटी में एक छोटी-सी नदी है। जहां मैं रहता हूं, वहां से मैं हमेशा उसकी सरसराहट सुन सकता हूं, लेकिन मैं आमतौर पर उसकी ध्वनि पर ध्यान नहीं दे पाता। मेरा ध्यान उसकी तरफ केवल तभी जाता है, जब मैं मैदानी इलाकों में थोड़ा समय बिताकर वापस पहाड़ों में लौटता हूं। इसके बावजूद मैं नदी के बहते जल के इस संगीत का इतना अयस्त हो गया हूं कि
जब मैं उससे दूर चला जाता हूं, तो मुझे लगता है जैसे मैं अकेला हो गया हूं। अपने बंदरगाह से दूर। यह ठीक उसी तरह है, जैसे हम
हर सुबह जागने पर चाय के ह्रश्वयालों की  खनखनाहट के आदी हो जाते हैं और फिर एक सुबह उस खनखनाहट की अनुपस्थिति के बीच जागते हैं और अनिष्ट की आशंका से भर जाते हैं। मेरे घर से नीचे की ओर बलूत और मेपल के दरख्तों का एक जंगल है। एक छोटी-सी पगडंडी बलखाते हुए इन दरख्तों से होकर एक खुली रिज की ओर चली जाती है, जहां लाल सोरेल के जंगली पौधों की चादर बिछी हुई है। यहां से यह पगडंडी तेजी से नीचे की ओर मुड़ती है और कांटे की उलझी हुई झाडिय़ों, लताओं और बांस के झुरमुटों से होती हुई कहीं खो जाती है। पहाड़ी की तलहटी में पगडंडी जंगली गुलाबों और हरी घास से भरी हुई एक कगार तक चली जाती है। वह छोटी-सी नदी इस कगार के करीब से गुजरती है। वह छोटे-छोटे पत्थरों पर से कूदती-फांदती हुई मैदानी इलाकों की ओर बढ़े चली जाती है। आगे चलकर वह सोंग नदी में मिल जाती है, जो अंतत: पवित्र गंगा में विलीन हो जाती है। मुझे अच्छी तरह याद है जब मैंने पहली बार उस छोटी सी नदी को देखा था, तब वह अप्रैल का माह था। जंगली गुलाबों पर बहार आई हुई थी और छोटे-छोटे सफेद फूल गुच्छों में लदे हुए थे। पहाड़ी की तराई पर सेवंती के गुलाबी और नीले फूल अब भी मौजूद थे और बुरुंश के फूलों की लाल रंगत पहाड़ी के गाढ़े हरे रंग के कैनवास पर बिछी हुई थी। जब मैंने इस नदी के साथ चहलकदमी करनी शुरू की थी, तब मुझे वहां अक्सर एक चकत्तेदार फोर्कटेल पक्षी दिखाई देता था। वह नदी के गोल पत्थरों पर फुर्ती से चलता था और लगातार अपनी दुम हिलाता रहता था। हम दोनों को ही नदी के बहते पानी में खड़े होना अच्छा लगता था। एक बार जब मैं नदी में खड़ा था, मैंने पानी में एक सांप को तेजी से सरसराते हुए देखा। पतला-दुबला भूरा सांप, खूबसूरत और अकेला। पानी के सांप बहुत खूबसूरत होते हैं। मई और जून के महीनों में, जब पहाडिय़ां भूरी और सूखी हो जाती हैं, तब भी इस नदी के आसपास का इलाका नम और हराभरा रहता है। नदी के साथ थोड़ा आगे चलने पर मुझे एक छोटा सा तालाब भी नजर आया, जहां मैं नहा सकता था, साथ ही मुझे एक गुफा नजर आई, जिसकी छत से पानी रिसता रहता था। गुफा से रिसने वाले पानी की बूंदें धूप की सुनहरी किरणों में चमकती थीं। मुझे लगा इस जगह तक बहुत कम लोग पहुंच पाए हैं। कभी- कभार कोई दूधवाला या कोई कोयले वाला गांव जाते समय नदी पार करता, लेकिन आसपास के हिल स्टेशनों में छुट्टियां बिताने आने वाले मुसाफिरों ने अभी तक इस जगह की खोज नहीं की थी। अलबत्ता काले मुंह और लंबी पूंछ वाले बंदरों ने जरूर यहां का ठौर-ठिकाना खोज निकाला था, लेकिन वे गुफा के आसपास मौजूद पेड़ों पर ही बने रहे। वे यहां मेरी मौजूदगी के अभयस्त हो चले थे और अपना काम जारी रखे हुए थे, जैसे कि उनकी नजरों में मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। बंदरों के बच्चे धींगामस्ती कर रहे थे, जबकि बड़े बंदर एक-दूसरे के साज-सिंगार में व्यस्त थे। वे भद्र बंदर थे, मैदानों में पाए जाने वाले लाल मुंह के बंदरों से कहीं बेहतर। बारिश के दिनों में नदी की छोटी-सी धारा बहुत वेगवती हो जाती। कभी-कभी नदी का प्रवाह इतना तेज हो जाता कि वह अपने साथ झाडिय़ों और छोटे पेड़ों को बहा ले जाती। नदी की मद्धिम-सी सरसराहट अब कोलाहल भरी गडग़ड़ाहट का रूप ले लेती, लेकिन में नदी के साथ यात्रा करते हुए बहुत दूर तक नहीं जा पाया। नदी के किनारों पर मौजूद लंबी घासों में जोंकें थीं और यदि मैं वहां लगातार जाता रहता तो वे मेरा खून चूस जातीं। लेकिन मुझे यदा-कदा जंगल की सैर पर निकल जाना बहुत अच्छा लगता। मेरी आंखें जंगल की मुलायम हरी काई, पेड़ों के तनों
पर मौजूद फर्न और रहस्यपूर्ण व कभी-कभी भयावह लगने वाले लिली और आर्किड के फूलों को निहारती रहतीं। मैं देखता रहता सुबह की धूप में अपने बैंजनी रहस्यों को खोलकर रख देने वाले
जंगली डेहलिया के फूलों का वैभव। और जब बारिश का मौसम बीत जाता और अक्टूबर आ जाता
तो पक्षी फिर चहचहाने लगते। मैं मीठी गंध वाली घास में धूप में लेटा रहता और बलूत की पत्तियों की बनावट को गहरे नीले आकाश की पृष्ठभूमि में निहारता रहता। मैं पत्तियों, घास, पोदीने और मेहंदी
की मिली-जुली गंध के लिए ईश्वर को धन्यवाद देता। मैं घास और हवा और आकाश को स्पर्श करता और इसके लिए ईश्वर का शुक्रियाअदा करता। मैं आकाश के अनंत नीलेपन के लिए ईश्वर को बारबार
धन्यवाद देता। और फिर नवंबर के तुषारापातों के बाद सर्दियों का मौसम चला आता। मैं इस मौसम में ओस से भीगी घास में नहीं लेट सकता। नदी की धारा का स्वर वैसा ही होता, पर मुझे परिंदों की चहचहाहट की कमी खलती। धूसर आकाश, बारिश और ओलों ने मुझे अपने घर की चहारदीवारी तक महदूद रह जाने को मजबूर कर दिया। बर्फ गिरने लगी। वह बलूत के दरख्त की शाखाओं पर जम जाती और नालियों का रास्ता रोक देती। घास, फर्न और जंगली फूल सभी बर्फ की सफेद ठंडी चादर के तले छिप जाते, लेकिन नदी बहती रहती। वह बर्फ की सफेद चादर के नीचे अपना सफर तय करती रहती एक और नदी की तरफ, एक और वसंत की तरफ।

मंगलवार, 17 मई 2011

पिघल रहे हैं हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर

 इसरो द्वारा हाल ही में किए गए एक महत्वपूर्ण अध्ययन में हिमालय की बिगड़ती हालत को लेकर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए हैं। हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जबकि आठ फीसदी ऎसे ग्लेशियर हैं जो उन्नत हैं और 17 फीसदी ही स्थिर हैं। इसरो की यह रिपोर्ट आईपीसीसी की उस विवादित रिपोर्ट के बाद आई है, जिसमें इस संगठन ने  दावा किया था कि 2035 तक हिमनद गायब हो जाएंगे।
इसरो की दूसरी रिपोर्ट: पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा कराए गए इस शोध में 2190 विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया था। हाल में जारी हुई यह ग्लेशियरों पर इसरों की दूसरी रिपोर्ट है। मार्च 2010 में 1317 ग्लेशियरों पर तैयार रिपोर्ट में कहा गया था कि 1962 के बाद ये ग्लेशियर 16 फीसदी तक पीछे हट चुके हैं।
इस प्रोजेक्टर में 50 विशेषज्ञ और 14 संगठन शामिल थे, जिन्होंने पाया कि इन पंद्रह वर्ष के दौरान औसतन 3.75 किमी के ग्लेशियर पिघले हैं। जीबी पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरॉन्मेंट एंड डेवेलपमेंट, कश्मीर यूनीवर्सिटी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय भी इस शोध में लगा रहा। विशेषज्ञों ने हिमालय का जमीनी दौरा भी किया और जो तथ्य सामने आए उसका शोध के परिणामों से मिलान भी किया।  ऎसा पहली बार है कि हिमालय के ग्लेशियरों पर कोई वृहद अध्ययन हुआ है। इस रिपोर्ट का अंतरराष्ट्रीय समुदाय बेसब्री से इंतजार कर रहा है।
रिसोर्ससैट-1: मरीन, जियो एंड प्लेनेटरी साइंस ग्रुप (एमपीएसजी) स्पेस एप्लीकेंशन्स सेंटर अहमदाबाद के  मुताबिक, इस शोध का डाटा जल्द ही प्रकाशित कर दिया जाएगा। हिमालय की ये तस्वीरें इसरो के सैटेलाइट रिसोर्ससैट-1 द्वारा उपलब्ध कराई गई हैं। सैटेलाइट 1989 से 2004 तक हिमायल के वृहद भू-भाग की पल-पल बदलती परिस्थितियों की तस्वीरें उपलब्ध कराता रहा।

दोस्त से कम नही हैं दरख्त



दरख्तों के लिए देहरा से अच्छी जगह और क्या  होगी। मेरे दादाजी
का घर कई तरह के दरख्तों से घिरा हुआ था : पीपल,
नीम, आम, कटहल, पपीता। वहां बरगद का एक बूढ़ा दरत भी था।
मैं इन दरख्तों के साथ ही बड़ा हुआ। इनमें से कइयों को मेरे दादाजी
ने रोपा था और उनकी व मेरी उम्र एक समान ही थी।
छुटपन में मुझे दो तरह के पेड़ सबसे ज्यादा लुभाते थे : एक तो
वे जिन पर आसानी से चढ़ा जा सकता हो और दूसरे वे जिन पर खूब
रसीले फल लगते हों। कटहल के पेड़ में कमोबेश ये दोनों ही खूबियां
थीं। कटहल के फल से बड़ा फल कोई दूसरा नहीं होता। अलबत्ता
यह मेरा पसंदीदा फल नहीं था, फिर भी उसका पेड़ बहुत बड़ा और
घना होता और उस पर आसानी से चढ़ा जा सकता था। वहीं गर्मी के
तपते दिनों में पीपल की छांव से ज्यादा सुखद और कुछ नहीं था। दिल
के आकार के पीपल के पत्ते तब भी हौले-हौले हिलते रहते हैं, जब
आकाश में बादल एक जगह दम साधे खड़े हों और दूसरे दरख्तों में
एक पत्ता भी न खड़कता हो। भारत के हर गांव में पीपल का एक न
एक पेड़ जरूर होता है और दिनभर की मेहनत-मशकत के बाद
किसानों का पीपल की छांह में पसरकर सो जाना आम बात है।
बरगद का बूढ़ा पेड़ हमारे घर के पीछे था। उसकी फैली हुई
शाखाएं और धरती को छूती जटाएं मुझे बहुत लुभाती थीं। यह पेड़
हमारे घर से भी पुराना था। उसकी उम्र मेरे दादा-दादी की उम्र से भी
अधिक थी। शायद वह मेरे शहर जितना ही उम्रदराज रहा होगा। मैं
उसकी शाखाओं में गहरी हरी पत्तियों के बीच छिप जाता था और एक
जासूस की तरह लोगों पर नजर रखा करता था। यह पेड़ अपने आपमें
एक पूरी दुनिया था। कई छोटे-बड़े जीव-जंतुओं का इस पर बसेरा था।
जब बरगद की पत्तियां  गुलाबी रंगत लिए होती थीं, तब उन पर तितलियां
डेरा डाल लेती थीं। पेड़ की पत्तियों पर गाढ़े रस की बूंदें, जिसे हम
शहद कहते थे, गिलहरियों को आकृष्ट करती थीं। मैं पेड़ की शाखाओं
में छिपकर बैठा रहता था और गिलहरियां कुछ समय बाद मेरी उपस्थिति
को लेकर सहज हो जाती थीं। जब उनकी हिमत बढ़ जाती, तो वे
मेरे पास चली आतीं और मेरे हाथों से मूंगफली के दाने खाने लगतीं।
सुबह-सुबह तोतों का एक झुंड यहां चला आता और पेड़ के चकर
लगाता रहता, लेकिन बरगद का पेड़ बारिश के बाद ही पूरे शबाब पर
आ पाता था। इस मौसम में पेड़  की टहनियों पर छोटी-छोटी बेरियां
उग आतीं, जिन्हें हम अंजीर कहा करते थे। ये बेरियां मनुष्यों के खाने
लायक नहीं होती थीं, लेकिन परिंदों का यह प्रिय भोजन थी। जब रात
घिर आती और आवारा परिंदे अपनी आरामगाह में सुस्ताने चले जाते,
तो चमगादड़ों का झुंड पेड़ के चकर काटने लगता।
मुझे जामुन का पेड़ भी बेहद पसंद था। इसके गाढ़े जामुनी रंग
के फल बारिश के दिनों में पकते थे। मैं बागबान के छोटे बेटे के साथ
जामुन के फल चुनने पहुंच जाता। हम पक्षियों की तरह जामुन खाते
थे और तब तक दम नहीं लेते थे, जब तक कि हमारे होंठों और जीभ
पर गहरा जामुनी रंग नहीं चढ़ जाता। मानसून के मौसम में जिन पेड़ों
पर बहार आ जाती थी, उनमें नीम भी शामिल है। मौसम की पहली
फुहार में ही नीम की पीली निबोलियां धरती पर गिर पड़तीं। वे राहगीरों
के पैरों से कुचलाती रहतीं और एक मीठी-भीनी-सी गंध पूरे परिवेश
में फैल जाती। नीम की पाियां हरी-पीली रंगत लिए होतीं और उनके
रंगों की खिलावट इस बहुपयोगी पेड़ के गुणों में चार चांद लगा देती
थी। नीम के गोंद और तेल का इस्तेमाल औषधि की तरह किया जाता
है। तकरीबन हर भारतीय गांव में नीम की टहनियों का इस्तेमाल दातुन
की तरह किया जाता है। नीम की पाियों में धरती की उर्वरा शति
बढ़ाने के भी गुण होते हैं।


कटहल और बरगद के पेड़ रात को भी मेहमानों की आवाजाही
से आबाद रहते थे। इन्हीं मेहमानों में से एक था ब्रेनफीवर बर्ड। इस
पक्षी का यह नाम इसलिए पड़ा, योंकि जब वह कूकता था, तो लगता
था, जैसे वह ब्रेनफीवर, ब्रेनफीवर पुकार रहा हो। उसकी यह पुकार
गर्मियों की रातों में लंबी तानकर सोने वालों की भी नींद में खलल
डालने में सक्षम थी। इस पक्षी को यह नाम ब्रितानियों ने दिया था,
लेकिन उसके और भी नाम हैं। मराठी उसे 'पावस-आला कहकर
पुकारते हैं, जिसका अर्थ होता है बारिश का मौसम आया है, लेकिन
मेरे दादाजी इस पक्षी की पुकार का अलग ही अर्थ लगाते थे। वे कहते
थे कि वास्तव में वह हम सभी से कहना चाहता है कि गर्मियां बर्दाश्त
से बाहर होती जा रही हैं, कुदरत बारिश के लिए बेचैन है।
बारिश के दिनों में बरगद के दरत पर ऐसी चिल्ल-पौं मचती कि
कुछ न पूछिए। रात को ब्रेनफीवर का कोलाहल होता तो दिन में झींगुर
एक स्वर में टर्राते। गर्मियों में ये झींगुर झाडिय़ों में छिपकर गाया करते
थे, लेकिन बारिश की पहली फुहार पड़ते ही उनका स्वर मुखर हो जाता
और वे तारसप्तक में सुरों की तान छेड़ देते। पेड़ों पर बसने वाले टिड्डे
उन कलाबाजों की तरह होते हैं, जो दिन में किसी भी समय अपनी
प्रस्तुति प्रारंभ कर सकते हैं, लेकिन उन्हें सबसे प्रिय होती हैं शामें। हरे
रंग के ये जीव बड़ी आसानी से खुद को पेड़ों की हरियाली में छुपा लेते
हैं, लेकिन एक बार किसी पक्षी की नजर उन पर पड़ जाए, तो समझिए
कि उनकी प्रस्तुति का वहीं समापन हो गया।
बारिश के भरपूर मौसम में बरगद का बूढ़ा दरत अपने आपमें
एक समूचा जलसाघर बन जाता, जहां एक के बाद एक संगीतकार
अपना हुनर पेश करने आते रहते। गर्मियों का मुश्किल मौसम खत्म
होने पर पक्षी, कीड़े-मकोड़े और गिलहरियां अपनी खुशी व्यत करते
हैं। वे मानसून की फुहारों का खुले मन से स्वागत करते हैं और उसके
लिए अपनी-अपनी भाषा में आभार जताते हैं।
मेरे हाथ में एक छोटी-सी बांसुरी है। मैं यह सोचकर उसे बजाना
शुरू कर देता हूं कि अब मुझे भी इस उत्सव में शरीक हो जाना चाहिए।
लेकिन यह या, शायद मेरी बांसुरी की कर्कश ध्वनि इन पक्षियों, कीड़े-
मकोड़ों और गिलहरियों को रास नहीं आई है। जैसे ही मैंने बांसुरी
बजानी शुरू की, वे सभी चुप्पी साधकर बैठ गए हैं।