सोमवार, 17 मई 2010

मेरे घर के मेहमान

रस्किन बॉन्ड
जब हिमालय की वादियों में कोहरा उतरता है और मानसून की बारिश पहाड़ियों को भिगो देती है, तो यह लाजिमी ही है कि जंगली पशु, पक्षी, कीट-पतंगे सिर छुपाने के लिए किसी आसरे की तलाश में निकल पड़ें। तूफान आने की स्थिति में तो किसी भी जगह से उनका काम चल जाता है।

कई बार तो जंगल में मौजूद मेरा कॉटेज भी इन वन्यजीवों के लिए सबसे आरामदेह पनाहगाह बन जाता है। हालांकि इसमें शक नहीं कि मैं भी अपने कॉटेज की तमाम खिड़कियां खुली छोड़कर भीतर आने में उनकी मदद ही करता हूं। मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें अपने घर में खूब सारी ताजा हवा अच्छी लगती है और यदि हवा के साथ कुछ परिंदे, वन्यजीव या कीड़े-मकोड़े भी भीतर चले आएं तो मुझे कोई हर्ज नहीं। बशर्ते वे मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ में न डालें।

लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि पिछली रात एक गुबरैले के कारण मेरा धीरज जवाब दे गया। वह गुबरैला सीधे मेरे पानी के जग में आ गिरा था। मैंने उसे उठाया और खिड़की से बाहर फेंक दिया। लेकिन चंद सेकंडों बाद वह फिर भुनभुनाता हुआ मेरे कमरे में आ गया और छपाक से उसी जग में जा गिरा। मैंने उसे एक दफा फिर बाहर निकाला और रात की आजादी का लुत्फ उठाने के लिए बाहर छोड़ दिया। लेकिन उसे मेरे कमरे की रोशनी और गर्माहट ज्यादा लुभा रही थी, इसलिए वह फिर भीतर आ गया और किसी हेलीकॉप्टर की तरह कमरे में चक्कर काटने लगा। वह नीचे उतरने के लिए कोई उचित जगह तलाश रहा था। मैंने जल्दी से अपने पानी के जग को ढंक दिया। आखिरकार वह जंगली डेहलिया के फूलों से भरे एक मर्तबान में जा गिरा। इस दफा मैंने उसे नहीं छेड़ा। अब वह फूलों की नर्म बिसात पर आराम फरमा सकता था।

कभी-कभी दिन के समय एक नन्हा सा परिंदा मेरे घर आ जाता है। यह गाढ़े जामुनी रंग की सारिका है, जो दाएं-बाएं फुदकती रहती है। लेकिन मेरे घर में शायद वह इतनी घबराई हुई होती है कि वह कुछ नहीं गाती। वह खिड़की के नीचे अपना बसेरा बना लेती है और बाहर बारिश को निहारती रहती है। लेकिन उसे ज्यादा नजदीकी पसंद नहीं। मैं इधर अपनी कुर्सी पर चुपचाप बैठा रहता हूं और उधर वह चिड़िया खिड़की पर बैठी रहती है। कभी-कभी वह सिर घुमाकर मेरी तरफ देख लेती है कि कहीं मैं उसके करीब आने की कोशिश तो नहीं कर रहा। बारिश थमने पर वह बाहर उड़ जाती है। बाहर जाकर ही उसका आत्मविश्वास लौट पाता है और वह गाना शुरू कर देती है। बीच-बीच में टूटता हुआ मीठा स्वर, जो वादी में गूंजता रहता है और जिसे आप कभी नहीं भूल सकते।

कभी-कभी एक गिलहरी चली आती है। खास तौर पर तब जब बलूत के पेड़ पर उसके कोटर में पानी घुस आता है। वो मुझे भली तरह पहचानती है और खाने के टुकड़ों की तलाश में बेधड़क मेरे खाने की टेबल तक चली आती है। मैं जानबूझकर उसके लिए वहां कुछ निवाले छोड़ देता हूं। अगर वह मुझसे थोड़ा और पहले मिली होती तो मैं उसे अभी तक अपने हाथों से खाना सिखा चुका होता। मुझे यह सब भाता है। मुझे पालतू जानवरों की जरूरत महसूस नहीं होती। मेरे लिए मेरे ये मेहमान ही काफी हैं।

पिछले हफ्ते जब मैं अपनी डेस्क पर बैठा एक लंबा लेख लिख रहा था, तब अचानक हल्के हरे रंग के एक टिड्डे को अपने पैड पर बैठा देख मैं चौंक गया। हम दोनों एक-दूसरे को ताकते रहे। जब मैंने उसे हल्के से धकियाया तो वह धीमे से वहां से जाने लगा। बाद में मैंने उसे विटमैन की लीव्ज ऑफ ग्रास की जिल्द का मुआयना करते हुए पाया। उसके बाद वह दो दिन तक नजर नहीं आया। दो दिन बाद वह मुझे अपनी ड्रेसिंग टेबल पर नजर आया, जहां वह खुद को एक आईने में निहार रहा था। लेकिन शायद मैं गलत हूं। वह खुद को निहार नहीं रहा था, शायद उसे लगा हो कि वहां एक और टिड्डा है और वह उससे जान-पहचान करने की कोशिश कर रहा हो।

उसके बाद मुझे अपने बगीचे में एक और टिड्डा नजर आया। वह जास्मीन की झाड़ियों में बैठा हुआ था। उसकी बाहें किसी मुक्केबाज की तरह खुली हुई थीं। मुझे लगा वह मेरे घर वाले टिड्डे को बुला रहा है। मैं भीतर गया और टिड्डे को ले आया। मैंने दोनों को साथ-साथ रख दिया। लेकिन यह क्या, उसे तो इस बगीचे वाले टिड्डे की शक्ल ही पसंद नहीं आई और वह वहां से भाग खड़ा हुआ। आईने में उसने अपनी जो शक्ल देखी थी, आखिर उससे इसकी तुलना कहां?

लेकिन मेरा सबसे दिलचस्प मेहमान रातों को आता है। और वह है एक नन्हा चमगादड़। वह कभी दरवाजे से तो कभी खिड़की से भीतर चला आता है। मैंने आज तक जितने भी चमगादड़ देखे, वे सभी ऊपर छत से लगभग सटकर उड़ते हैं। लेकिन यह नन्हा चमगादड़ काफी नीचे उड़ता है, जैसे कोई बमवर्षक विमान हो। वह मेरे फर्नीचर के नीचे तक पहुंच जाता है और कभी टेबल की टांगों के इर्द-गिर्द यहां-वहां टकराता हुआ उड़ता रहता है। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि वह मेरे कमरे में डगमगाते हुए उड़ता रहा और फिर मेरी टांगों के बीच से निकल गया!

मैंने सोचा क्या उसका रडार काम नहीं कर रहा है या वह कोई सिरफिरा चमगादड़ है? मैंने अपनी किताबों की अलमारी में प्राकृतिक इतिहास की किताबें टटोलीं और चमगादड़ों की किस्मों के बारे में जानने की कोशिश की, लेकिन मुझे इस तरह का कोई उदाहरण नहीं मिला। आखिरकार मैंने एक काफी पुरानी किताब (वर्ष 1884 में कलकत्ता से छपी स्टर्नडेल की किताब इंडियन मैमालिया) की शरण ली। और मेरी खुशी का तब कोई ठिकाना नहीं रहा, जब मुझे वहां वह चीज मिल गई, जिसकी मैं तलाश कर रहा था। किताब में साफ-साफ लिखा था कि कैप्टन हटन को मसूरी के नजदीक दक्षिणी श्रंखला पर 5500 फीट ऊंचाई पर ऐसा चमगादड़ मिला था, जो ऊंचे उड़ने की बजाय काफी नीचे उड़ा करता था। यह चमगादड़ महज 1.4 इंच का था और सामान्यत: हिमालय के दक्षिण पश्चिम में स्थित झरीपानी में पाया जाता था। वर्ष 1884 में भी इस किस्म का चमगादड़ काफी दुर्लभ ही हुआ करता था।

शायद मेरी मुठभेड़ इस प्रजाति के कुछ दुर्लभ जीवित बचे सदस्यों में से किसी एक से हो गई थी। जहां मैं रहता हूं, वहां से झरीपानी महज दो मील दूर है। मुझे खासा अफसोस हुआ कि आधुनिक प्राणीविज्ञानियों ने इस नन्हे चमगादड़ की प्रजाति पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। शायद उन्हें ये लगता है कि इस तरह की प्रजाति पहले ही विलुप्त हो चुकी है। यदि ऐसा है तो मुझे बेहद खुशी है कि मैंने उनमें से एक को ढूंढ़ निकाला। मैं खुश हूं उसे मेरे छोटे-से घर में सिर छुपाने लायक जगह मिल जाती है और मुझे भी उसके बारे में कविता या गद्य में कुछ न कुछ लिखने का मौका मिल जाता है।

लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

सोमवार, 10 मई 2010

क्या सोचते होंगे पहाड़?

विनोद भारद्वाज

सुबह-सुबह शिमला से निकलकर कुफ्री व फागू के घुमावदार रास्तों पर टैक्सी चलाते मंगतराम के मन में पहाड़ों के बदलते हालात को लेकर जो भाव आ रहे थे, शायद वह उन्हें मुझसे बांटना चाह रहा था। आखिर एक बेहद हरीभरी घाटी के पास गाड़ी रोककर उसने जब यह बताया कि इससे ज्यादा घनी व सुरम्य घाटी आपको हिमाचल में शायद ही देखने को मिले, तो लगा कि उसे अपनी इस धरोहर पर तो गर्व है, लेकिन इस बात की पीड़ा भी है कि पहाड़ के अन्य हिस्सों की सघनता व हरियाली अब अपना स्वरूप खोती जा रही है। वास्तव में उस घाटी को देखकर मुझे भी लगा कि जब मेजर सर विलियम लायड शिमला में भवन बनाने के लिए जमीन का जायजा ले रहे थे तो उन्होंने ठीक ही टिप्पणी की थी कि पहाड़ की हवा एक तेज की तरह मेरी धमनियों में समा गई, जिससे मुझे लगा कि मैं सबसे गहरी संकरी घाटी में कुलांचे भर सकता हूं अथवा उतनी ही आसानी से पहाड़ के दुरारोह छोरों तक फुर्ती से उछलता जा सकता हूं... आज का दिन मैं कभी नहीं भूलूंगा।



घाटी के उस मोह से निकलकर जब हम फागू की तरफ बढ़े तो पहाड़ों की बदहाली पर मंगतराम लगातार बोलता रहा। अंग्रेजों का जमाना देख चुके उन हिंदुस्तानियों की तरह वह भी अंग्रेजी राज का प्रशंसक लगा जो मानते हैं कि स्वराज तो आया पर सुराज की जगह हमारे लोकतंत्र ने अराजकता को ही जन्म दिया। इसलिए लोकराज से तो अंग्रेजों का राज ठीक था। मंगतराम को इस मुद्दे पर जब मेरा कोई साथ नहीं मिला तो वह उन इमारतों, पुलों व सड़कों के बारे में बताने लगा जो अंग्रेजों ने सौ साल से अधिक समय पहले बनवाए थे और ऐसे निर्माण आज भी अपनी आभा व मजबूती के साथ विद्यमान हैं। कुशल कार चालन और अपनी तमाम जानकारियों के साथ जब मंगतराम ने मुझे जाखू की खूबसूरत पहाड़ी पर ले जाकर खड़ा किया तो मानो मन से कई तरह की परतें हटती चली गईं। याद आया कि पंडित नेहरू अक्सर पहाड़ों के बारे में कहा करते थे कि मेरी आंखों के सामने सदैव पहाड़ों का दृश्य घूमता रहता है और वहां के खतरे भी सुहाने लगते हैं। मेरा हृदय सदैव उन शांत हिमकणों के लिए तरसता रहता है।

पहाड़ों के मौन पत्थरों की भाषा पढ़कर ही नेहरू ने कभी सन उन्नीस सौ पैंतीस में अपने एक लेख में यह भी लिखा था कि इन पत्थरों ने अपनी लंबी जिंदगी में न जाने कितनी बातें देखीं। इनके सामने बड़े-बड़े साम्राज्य गिरे, पुरानी सल्तनतों का नाश हुआ, धार्मिक परिवर्तन हुए। खामोशी से इन पहाड़ों ने यह सब देखा और हर क्रांति और बदलाव पर उसने अपनी भी पोशाक बदली। वर्षों के तूफानों को इन्होंने बर्दाश्त किया, बारिश ने उन्हें धोया, हवा ने अपने बाजुओं से उनको रगड़ा। कभी-कभी मिट्टी ने उनके बहुत से हिस्से को ढंक दिया। फिर भी बुजुर्गी और शान उनके एक-एक हिस्से से टपकती है। मालूम होता है कि उनकी रग-रग और रेशे-रेशे में हजारों वर्षों का तजुरबा भरा पड़ा है।

इतने लंबे समय तक प्रकृति के खेलों और तूफानों को बर्दाश्त करना बेहद कठिन था, लेकिन उससे अधिक कठिन था मनुष्यों की हिमाकतों व लालच को सहना। पर उन्होंने यह सब भी सहा। पहाड़ों के इन पत्थरों की खामोश निगाहों के सामने साम्राज्य खड़े हुए और गिरे, मजहब उठे और बैठे, बड़े से बड़े बादशाह, खूबसूरत से खूबसूरत औरतें, लायक से लायक आदमी चमके और फिर अपना रास्ता नापकर गायब हो गए। हर तरह की वीरता इन पत्थरों ने देखी और देखी हर तरह की नीचता और मनुष्य का कमीनापन। बड़े और छोटे, अच्छे और बुरे सब आए और चल बसे, लेकिन ये पत्थर आज भी कायम हैं। क्या सोचते होंगे ये पत्थर! जब वे आज भी अपनी ऊंचाई से देखते होंगे, बच्चों के खेल, बड़ों की लड़ाई, फरेब और बेवकूफी! हजारों सालों में आदमी ने कितना कम सीखा। कितने और दिन लगेंगे इनको अक्ल और समझ आने में? शायद मंगतराम की भी यही पीड़ा रही हो।

शनिवार, 1 मई 2010

बदल जाएगा एवरेस्ट का इतिहास



दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को क्या तेनजिंग नोर्गे और एडमंड हिलेरी से पहले भी किसी ने फतेह कर लिया था यह सवाल आज भी रहस्य बना हुआ है। लेकिन हो सकता है 2011 में इस रहस्य से पर्दा उठ जाए। अमेरिकी एवरेस्ट रिसर्चर टॉम हॉलज़ेल इस काम को अमलीजामा पहनाने की तैयारी कर रहे हैं। इस काम के लिए वे बाकायदा फंड भी इकट्ठा करने में लगे हैं।
कुछ जानकारों का कहना है कि 8 जून 1924 को 38 वर्षीय जॉर्ज मेलोरी और 22 वर्षीय एंड्र्यू इरविन ने धरती की इस सबसे ऊंची चोटी को फतह कर लिया था। उस दिन मेलोरी और इरविन ने 26000 फीट (8138 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित अपना कैंप छोड़ दिया। बकौल नोएल ओडेल “वे अपनी फतह को लेकर काफी आशान्वित थे लेकिन वे उसके बाद कभी दिखाई नहीं दिए।“ नोएल उस पर्वतारोही दल का हिस्सा थे।
साल 1999 में एवरेस्ट की उत्तरी ढलान पर जॉर्ज मेलोरी का शव खोज लिया गया। कोनार्ड एंकेर और उनके खोजी दल, जो खास तौर पर मेलोरी और इरविन के शवों और उनके साजो-सामान की खोज के लिए बना था, ने एक बड़ी सफलता पाई थी। पड़ताल में मेलोरी के शव के साथ पत्रों का पुलिंदा, कलाई घड़ी, खाने का सामान, पॉकेट नाइफ और गॉगल्स मिले। लेकिन एक खास चीज जो एवरेस्ट के इस सबसे बड़े राज से पर्दा उठा सकती थी वो नहीं मिली, यानी मेलोरी का पॉकेट कोडेक कैमरा इस खोजी दल को नहीं मिल सका। ये भी माना जा रहा है कि उस वक्त शायद वह कैमरा मेलोरी के पास न होकर उनके जूनियर साथी एंड्रयू इरविन के पास रहा हो। गौरतलब है कि इरविन का शव आज तक नहीं मिल सका है।
लेकिन अब इरविन का शव मिलने की आशा बलवती हो रही है क्योंकि अमेरिकी एवरेस्ट रिसर्चर हॉलज़ेल का मानना है कि हाई रेजोल्यूशन एरियल फोटोग्राफी के जरिए उनकी टीम ने इरविन के शव को खोज लिया है। हॉलजेल और उनके पांच अन्य साथियों की द एंड्रयू इरविन सर्च कमेटी ने इरविन के शव को 27641 फीट (8425 मीटर) की ऊंचाई पर लोकेट कर लिया है। अब वे अगले साल यानी 2011 में एक खोजी अभियान चलाने वाले हैं जिसमें उन्हें इरविन का शव और वह कोडेक कैमरा मिलने की पूरी उम्मीद है।
पर्वतारोहियों का मानना है कि कैमरा बर्फ में दफन एवरेस्ट के खोल देगा। दरअसल,1924 में जॉर्ज मेलोरी और इरविन ईस्टमैन कोडेक कैमरा लेकर गए थे। इस कैमरे से खींची गई तस्वीरें ही इस बात का खुलासा कर सकती हैं कि क्या उन दोनों ने एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने में सफलता पा ली थी। हालांकि यह कैमरा अब तक किसी को नहीं मिला है, लेकिन कोडेक के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर कैमरा क्षतिग्रस्त नहीं हुआ होगा तो आज भी उसकी फिल्म से प्रिंट लिए जा सकते हैं चाहे घटना को 9 दशक पूरे होने जा रहे हों।