सोमवार, 25 जनवरी 2010

पहाड़ों में बसा बनारस

रस्किन बॉन्ड
पहली बार किसी नदी का दूसरी विशाल नदी के साथ संगम होते हुए देखना मेरे लिए बहुत खास क्षण था। वह नदी थी मंदाकिनी। रुद्रप्रयाग में मंदाकिनी के जल का अलकनंदा के साथ महामिलन हुआ। एक केदारनाथ के बर्फीले शिखरों से बहकर आई और दूसरी बदरीनाथ के ऊपर हिमालय की चोटियों से। दोनों ही पवित्र नदियां हैं। दोनों ही आगे चलकर पवित्र गंगा हो जाती हैं। पहली ही नजर में मुझे मंदाकिनी से प्रेम हो गया। या फिर मुझे उस घाटी से प्रेम हो गया।

ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन इस बात से ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता। घाटी ही नदी है। अलकनंदा घाटी की ऊंचाई पर बहुत गहरे और संकरे रास्ते हैं। वहां ढालू चट्टानें पर्यटक के ऊपर डरावनी होकर लटकी रहती हैं। मंदाकिनी घाटी काफी चौड़ी, सुकूनदेह और बड़े-बड़े खेतों से भरी हुई है। कई जगहों पर नदी के तट बहुत हरे-भरे हैं। रुद्रप्रयाग काफी गर्म है। जाड़े के दिनों में संभवत: यह काफी खुशनुमा और आरामदेह जगह होती है, लेकिन जून महीने के आखिर में यह निश्चित रूप से काफी तपती हुई जगह है। लेकिन जैसे-जैसे कोई नदी के साथ-साथ चलता जाता है और घाटी में धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है तो बर्फ के बीच से ठंडी हवाएं बहती हैं और हवाओं में बारिश की महक घुली हुई होती है।

नदी के एक चौड़े घाट पर एक भरा-पूरा कस्बा अगस्तमुनि भी बसा हुआ है और नदी की धारा के साथ और ऊपर जाने पर एक जगह है चंद्रपुर। हम अपने सफर को कुछ देर रोकने और वहां की नर्म-हरी घास पर थोड़ी देर सुस्ताने से खुद को रोक नहीं पाते। यह हरी घास नदी के साथ-साथ ढालू होती चली गई है। इस जगह पर गढ़वाल मंडल विकास निगम एक छोटा सा विश्रामगृह बना रहा है और कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि क्यों। यह ऐसी जगह है, जहां सिर्फ एक या दो घंटे नहीं, बल्कि एक या दो या फिर कई-कई दिन रुका जाए। एक हंसमुख सा चौकीदार हमारे लिए चाय बनाता है, जबकि उसके ढेर सारे बच्चे हमारे आसपास फिरते रहते हैं। केले की पत्तियां झूमती हैं और पीपल की पत्तियां हवा के साथ नाचती हैं।

नदी तेजी से कलकल करती, चट्टानों पर बलखाती, गोते खाती बहती जाती है। अपने बर्फीले फेनिल जल के संग पहाड़ों से बचकर भाग निकलने के लिए वह सबसे आसान रास्ते तलाशती है। बचकर भाग निकलना तो एक शब्द है। बहुत से गढ़वालियों की एक सतत दुख की अभिव्यक्ति यह होती है कि उनके पहाड़ विपुल नदियों से भरे हुए हैं, लेकिन सारा पानी बहकर नीचे चला जाता है और अगर थोड़ा-बहुत कहीं पहुंचता भी है तो ऊपर के खेतों और गांवों में। सड़क धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ती है। वह अभी भी नदी के साथ-साथ चल रही है। गुप्तकाशी के ठीक बाहर एकाएक हमारा ध्यान विशालकाय वृक्षों के एक झुंड की तरफ जाता है। उन वृक्षों की छाया में एक छोटा सा प्राचीन मंदिर है। हम वहां जाते हैं और वृक्षों की छाया में प्रवेश करते हैं। मंदिर बिलकुल निर्जन है।

यह भगवान शिव का मंदिर है। मंदिर के प्रांगण में नदी के जल से घिसकर गोलाकर हुए पत्थर के ढेर सारे शिवलिंग हैं, जिनके इर्द-गिर्द पत्तियां और फूल गिरे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां कोई आता नहीं है। यह थोड़ा विचित्र है, क्योंकि यह मंदिर तीर्थयात्रियों के मार्ग में है। पास के खेत से दो लड़के अपने जुते हुए बैलों को छोड़कर हमारे पास आते हैं और बात करते हैं, लेकिन वे भी उस मंदिर के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता पाते, सिवाय इसके कि इस मंदिर में कभी-कभार ही कोई आता है। बस यहां रुकती नहीं है। यह पर्याप्त वाजिब वजह लगती है। बस जहां जाती है, तीर्थयात्री भी वहीं जाते हैं और एक तीर्थयात्री जहां जाता है, बाकी तीर्थयात्री भी उसी राह का अनुसरण करते हैं। उससे ज्यादा नहीं और उससे आगे नहीं।

वह वृक्ष अपनी महक और फूलों के आकार के कारण चंपक प्रजाति के लगते हैं और वे लड़के उन्हें चंपास बोलते हैं। लेकिन मैंने कभी चंपास पेड़ों को इतनी भारी संख्या में उगते हुए नहीं देखा। संभवत: वे कोई और वृक्ष हैं। कोई बात नहीं। उन वृक्षों को एक मधुर-सुगंधित रहस्य ही बना रहने देते हैं। जब हम वृक्षों को अलग-अलग वर्गो में बांटते हैं और उन्हें लंबे-लंबे लैटिन नाम देते हैं तो हम किसी चीज को उनसे अलग कर रहे होते हैं - उन वृक्षों का जादू और उनमें लिपटा हुआ आश्चर्यलोक। शाम का समय गुप्तकाशी में काफी हलचलों से भरा होता है। केदारनाथ की ओर जाती हुई तीर्थयात्रियों से भरी हुई एक बस अभी-अभी पहुंची है और बस अड्डे के पास चाय की दुकानों में खासी कमाई हो रही है। तभी नदी पार ओखीमठ से एक स्थानीय बस वहां पहुंचती है और ढेर सारे यात्री चाय की दुकान का रुख करते हैं। वह दुकान अपने समोसे के लिए विख्यात है। स्थानीय बस का नाम है ‘भूख हड़ताल बस’। ‘इस बस का ये नाम कैसे पड़ा?’ मैं एक समोसा खाने वाले से पूछता हूं।

‘ये बड़ी मजेदार कहानी है। बहुत दिनों से हम अधिकारियों से यहां के स्थानीय लोगों और सड़क के पास रहने वाले गांव वालों के लिए एक बस की व्यवस्था करने की मांग कर रहे थे। बाकी बसें श्रीनगर से आती हैं और तीर्थयात्रियों से भरी होती हैं। स्थानीय लोगों को उनमें बैठने की जगह नहीं मिलती। लेकिन हमारी मांग को तब तक अनदेखा और अनसुना किया जाता रहा, जब तक हम सबने मिलकर भूख हड़ताल पर जाने का निर्णय नहीं लिया। हड़ताल सफल रही और उस सफल भूख हड़ताल के नाम पर ही इस बस का नाम पड़ा। गुप्तकाशी में कोई सिनेमा हॉल या मनोरंजन की जगह नहीं है। पूरा कस्बा जल्दी सो जाता है और जल्दी उठ जाता है। सुबह छह बजे ताजातरीन बारिश से हरी-भरी पहाड़ियां सूर्य की रोशनी में जगमगा उठती हैं। हवा स्वच्छ है। मुझे बताया गया कि यहां मौसम पूरे वर्ष सुहावना रहता है। दूसरी पहाड़ी पर ओखीमठ अभी भी धुंधलके में छिपा हुआ है।

गुप्तकाशी का सौंदर्य अभी भी बैरक जैसी दिखने वाली इमारतों से खराब नहीं हुआ है, जो कई विकसित हो रहे पहाड़ी कस्बों में खड़ी हो रही हैं। पुराने दोमंजिले मकान पत्थर के बने हुए हैं, जिनके ऊपर भूरे स्लेट की छतें हैं। वहां के लोगों में से एक हमें गुप्तकाशी के प्रसिद्ध मंदिर में ले जाता है। बनारस की तरह वहां विश्वनाथ और दो धाराओं (भूमिगत धारा) के रूप में शिव की पूजा होती है।

यह दोनों धाराएं पवित्र यमुना और भगीरथी की प्रतीक हैं। इसी मंदिर की वजह से इस जगह का नाम गुप्तकाशी पड़ा है - छिपा हुआ बनारस। उस कस्बे और उसके आसपास के क्षेत्रों में ढेर सारे शिवलिंग हैं। वहां रहने वाले लोग कहते हैं - जितने कंकर, उतने शंकर। वहां की पवित्रता को व्यक्त करने के लिए यह एक जन कहावत बन गई है। मैं इस नदी तक फिर लौटकर आऊंगा। इस नदी ने मेरे हृदय को अपने मोहपाश में बांध लिया है। और उसी तरह इस नदी तट पर रहने वाले यहां के उदार और भाईचारे से भरे हुए लोगों ने मेरा दिल जीत लिया है।

रस्किन बॉन्ड लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

आज भी हनुमान से नाराज हैं लोग

सबसे बड़ी चीज होती है विश्वास। पर जब उस पर चोट पहुंचती है तो पीड़ा देनेवाले को बख्शा नहीं जाता है। फिर चाहे वह देवता या भगवान ही क्यों न हो। जी हाँ! दुर्गम पर्वतॊं पर बसा एक गांव ऐसा भी है जहां के लोग आज भी हनुमान जी से सख्त नाराज हैं। कारण कि हनुमान ने उन लोगों के आराध्य देव पर चोट पहुंचायी है और सरासर अहित किया है। यह आराध्य देव कोई और नहीं स्यंव साक्षात ‘पर्वत ही हैं, जिसका नाम है-द्रोणागिरी। सभी जानते हैं कि इस पर्वत में संजीवनी बूटी विद्धमान होने से हनुमान एक भाग तोड़कर ले उड़े थे। इसी पुराण-प्रसिद्ध द्रोणागिरि पर्वत की छांव में बसे हनुमान से नफरत करने वाले गांव का नाम है-द्रोणागिरि।

इस बारे में द्रोणागिरि गांव में एक दूसरी ही मान्यता प्रचलित है। बताते हैं कि जब हनुमान बूटी लेने के लिये इस गांव में पहुंचे तो वे भ्रम में पड़ गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि किस पर्वत पर संजीवनी बूटी हो सकती है। तब गांव में उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी। उन्होंने पूछा कि संजीवनी बूटी किस पर्वत पर होगी? वृद्धा ने द्रोणागिरि पर्वत की तरफ इशारा किया। हनुमान उड़कर पर्वत पर गये पर बूटी कहां होगी यह पता न कर सके। वे फिर गांव में उतरे और वृद्धा से बूटीवाली जगह पूछने लगे। जब वृद्धा ने बूटीवाला पर्वत दिखाया तो हनुमान ने उस पर्वत के काफी बड़े हिस्से को तोड़ा और पर्वत को लेकर उड़ते बने। बताते हैं कि जिस वृद्धा ने हनुमान की मदद की थी उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया।

आज भी इस गांव के आराध्य देव पर्वत क विशेष पूजा पर लोग महिलाओं के हाथ का दिया नहीं खाते हैं और न ही महिलायें इस पूजा में मुखर होकर भाग लेती हैं। गांव की पत्रिता के लिए आज भी जब किसी महिला का बच्चा होता है तो प्रसव के दौरान उस महिला को गांव से अलग काफी दूर नदी के किनारे वाले स्थान पर डेरा बनाकर रखा जाता है। शिशु जनने के बाद ही वह गांव आ सकती है। इस दौरान उसका पति, सास अन्य परिवारजन उसकी मदद करते हैं।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

प्राइवेट कंपनी ने काट डाले ११५ बीघा जंगल

हिमाचल प्रदेश के मलाना इलाके में एक निजी ऊर्जा कंपनी ने सैकड़ों पेड़ काट डाले और ११५ बीघा जमीन पर फैली हरियाली को नष्ट कर दिया। कंपनी ने इस इलाके में उगी बेशकीमती जड़ी-बूटियों को मलबे के नीचे दबाकर नष्ट कर दिया। यही नहीं कंपनी ने ऐसा करने से पहले केंद्रीय न तॊ वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को इसकी सूचना दी न ही किसी प्रकार का कॊई मुआवजा ही दिया। अब सरकार भी कुछ करॊड रुपए जुर्माना करके ११५ बीघे में फैले जंगल कॊ नष्ट करने का लाइसेंस दे दिया है।

अब इसकी सुधा हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य विप्लव ठाकुर ने लिया है। उन्हॊंने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से सवाल किया है कि क्या इस कंपनी के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई या जांच की गई है। अगर ऐसा किया गया है तो जिम्मेदार कंपनी अधिकारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई है। ठाकुर के सवाल के जवाब में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने मामले को सही बताया लेकिन ये भी कहा है कि पेड़ काटे नहीं गए हैं हालांकि उन्हें नुकसान जरूर पहुंचा है। मलाना-द्वितीय हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट के दौरान केल दो पेड़ अवैध तरीके से एवरेस्ट पावर प्राइवेट लिमिटेड ने गिराए थे। मलाना के जिस इलाके को कंपनी के कामकाज के दौरान नुकसान पहुंचा है वह ११५ बीघा न होकर मात्र १५ बीघा ही है।

सड़क बनाने के दौरान जो मलबा डाला गया उसके लिए मंत्रालय से परमिशन ली गई थी और वह स्थान भी केंद्रीय मंत्रालय ने ही सुझाया था। रमेश ने यह भी कहा कि जिस जगह मलबा डाला गया वहां किसी तरह की कोई जड़ी-बूटियां न होकर केवल घास ही थी। गिराए गए पेड़ों के एवज में डेमेज बिल जारी किए गए हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्री ने यह भी बताया कि इस मामले में जांच भी कराई गई थी और मंत्रालय के निर्देशों के खिलाफ किए गए कामों के लिए इस कंपनी पर जुर्माना भी लगाया गया है। कंपनी को जारी किए गए बिलों के एवज में मैसर्स एवरेस्ट पावर प्राइवेट लिमिटेड ने १,१८,४६,८६६ रुपये जुर्माना दिया है।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

तबले में गूंजे शंख-डमरू, गरजी तोप

उस्ताद जाकिर हुसैन सॊमवार कॊ जयपुर में थे। गुलाबी शहर में उनके हॊने का मतलब है कि तबले की थाप पर यकीनन कुछ नया हॊने वाला है। शहर के बिडला आडिटॊरियम की शाम उन्ही के नाम रही। हाल के बाहर हिमालय से उठने वाली सर्द हवाएं सितम ढाह रहीं थीं और अंदर हाल के उस्ताद की अंगुलियॊं की कशिश गजब की गरमाहट पैदा कर रही थी। हमारे स्टेट एडिटर नवनीत गुर्जर भी इस शाम में शरीक हुए। सिर्फ शामिल ही नहीं हुए लौटकर जब आए तॊ तबले की थाप कॊ शब्दॊं की ताल देने से खुद कॊ नहीं रॊक पाए। उस्ताद की ताल और थाप उन्हीं की जुबानी। नवनीत गुर्जर

ब्रह्मांड की रचना का ध्वनि रूप कैसा रहा होगा-जैसा उस्ताद अल्लारखा बताते थे, वैसा ही जाकिर ने भी जीवंत किया। नीचे धरती पर उतरे तो पखावज और डमरू के साथ शंख गूंजने लगे। तोपें भी गरजीं। तबले पर उस्ताद जाकिर हुसैन की उंगलियां भर थीं लेकिन लग ऐसा रहा था जैसे बनारस के किसी मंदिर में आरती हो रही हो और गंगा का प्रवाह खाली ताली दे रहा हो। केवल मंदिर ही क्यों उस्ताद का तबला बनारस की गलियों में भी घूमा।

वाहनों की भीड़ के साथ वो मदमाता हाथी और इन सबके बीच से सहमा हुआ पैदल आम आदमी कैसे गुजरा, तबले ने यह कहानी बड़ी भावुकता से सुनाई। इसके बाद तो हिरण परन में पहले हिरण सहमा, फिर कूदा और कूदते-कूदते कैसे ओझल हो गया, या तो बिड़ला ऑडिटोरियम में बज रही तालियों ने जाना या उस्ताद की उंगलियों ने।

ट्रेन की छुक-छुक हो या कबूतरों की

गुटर-गू, सब कुछ रेले में ऐसा बहा कि पता नहीं चला वहां उपस्थित लोग ट्रेन में सवार हैं या उस्ताद की उंगलियों पर। गायन में जैसे भैरवी होती है वैसा ही तबला में रेला। सो, उस्ताद इति कर चुके थे लेकिन फिर भी बजाने का आग्रह हुआ तो वे रुके नहीं और रास्ता निकाल लिया। सारंगी पर राजस्थानी लोकगीत बजा और उस्ताद ने उसमें भी रेले दिखाए, बजाए और सुनाए। श्रुति मंडल की ओर से आयोजित राजमल सुराणा संगीत समारोह का यह पहला दिन था।

धरती को बचाने का बीड़ा कौन उठाए?

राजेंद्र पचौरी
भारत एक लोकतांत्रिक और जिम्मेदार देश है। 2010 में भारत को पर्यावरण प्रबंधन के लिए बेसिक देशों के साथ मिलकर वैश्विक बंधुत्व के नजरिए से काम करना होना। इसकी भूमिका नवंबर 2009 में जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन में हुए सम्मेलन में तय हो गई है।

दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भारत और चीन (बेसिक समूह) ने मिलकर इस जिम्मेदारी को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया है। बेशक विकसित देशों ने अपनी अपेक्षित जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया, लेकिन ये चार विकासशील देश मिलकर आगे आए हैं। बेसिक समूह के कंधों पर बड़ा दायित्व है और इससे भारत को बहुत उम्मीदें हैं। बेसिक समूह अमेरिका के साथ मिलकर पूरी दुनिया में कोपेनहेगन के प्रस्तावों को क्रियान्वित करने के लिए काम करेगा।

ग्लोबल वार्मिग और पर्यावरण को लेकर अब तक हुए सभी सम्मेलनों में संभवत: कोपेनहेगन सम्मेलन सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। सभी इस बात से सहमत थे कि जलवायु परिवर्तन हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है, हमारी धरती खतरे में है। वे इस बात पर भी सहमत थे कि पूरी दुनिया के स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में जबर्दस्त कटौती की जरूरत है। बहुत निराशाजनक होने और अपनी अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के बावजूद सभी देश अंत तक कुछ जरूरी मुद्दों पर महत्वपूर्ण नतीजों तक पहुंच सके। कोपेनहेगन के प्रस्तावों पर निगाहें तो सभी देशों की थीं, लेकिन उन पर अपनी स्वीकृति की मोहर दुनिया के कुछ मुट्ठी भर देशों ने ही लगाई। भारत उनमें से एक है।

भारत जैसे विकासशील देशों के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधानों का बहुत महत्व है। जलवायु परिवर्तन की चिंताओं के संबंध में जो भी नए अनुबंध हों, चाहे वे जिस भी नाम से हों, सबसे जरूरी यह है कि क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिंदुओं का नए अनुबंध में भी जस का तस पालन किया जाए। फरवरी के अंत तक यह परिदृश्य साफ हो चुका होगा कि किन देशों ने इस सम्मेलन के प्रावधानों को गंभीरता से लिया है और उस पर अमल कर रहे हैं। विकसित देशों ने यह वादा किया है कि वे 2010 से 2012 के बीच की अवधि में 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता प्रदान करेंगे।

विकसित देशों ने यह वादा तो कर दिया, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राशि किन स्रोतों के माध्यम से कैसे आएगी और किन कामों में उसका समुचित इस्तेमाल किया जाएगा। इसके विवरण पर नजर रखने के लिए एक उच्च स्तरीय पैनल का गठन किया जाएगा। यह पैनल धन के स्रोतों व उसके प्रबंधन की निगरानी करेगा। पैनल का गठन तो हो जाएगा, लेकिन यह बेसिक देशों का दायित्व है कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि इस पैनल में विकासशील देशों का नेतृत्व और उनकी सक्रिय भागीदारी हो। जब तक विकासशील देश बढ़कर आगे नहीं आएंगे और नेतृत्व की कमान नहीं संभालेंगे, तब तक जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की समस्या को पूरी शक्ति और सामथ्र्य के साथ चुनौती नहीं दी जा सकती है।

विकसित देश अपनी अपेक्षित जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर रहे हैं, लेकिन भारत इस प्रक्रिया में ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता कि जैसे वह दुनिया से कटा हुआ है। हमें अपने साथ-साथ सभी गरीब और कम विकसित मुल्कों को भी साथ लेकर चलना होगा। अफ्रीका के देशों, छोटे देशों और द्वीपों को ऐसा महसूस नहीं होना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिग के खिलाफ इस जेहाद में उन्हें बिल्कुल पीछे छोड़ दिया गया है। वे हाशिए पर पड़े हैं और दुनिया की बड़ी ताकतों को उनकी कोई परवाह नहीं है। यह हमारे नेताओं, सत्ता प्रतिष्ठानों और नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वह संपूर्ण विश्व को यह विश्वास दिलाएं कि भारत की चिंताएं सिर्फ अपने निजी राष्ट्रीय हितों तक ही सीमित नहीं हैं।
दैनिक भास्कर से साभार

सोमवार, 4 जनवरी 2010

चलती-फिरती फुलवारियां

आप चौंक रहे होंगे, फुलवारियां और वॊ भी चलती-फिरती। गढ़वाल में सुप्रसिद्ध हिम-क्रीड़ा स्थल औली के आसपास बसे गांवॊं में कुछ ऐसा ही दृश्य नंदाष्टमी के दिन देखने को मिलता है। इस दिन हिमालय की ऊंची श्रृंखलाओं में खिलने वाले दिव्य ब्रह्मकमल फूलों को अनूठा त्योहार मनाया जाता है और गांव-गांव में मेले लगते हैं। दो दिन पूर्व गांव-गांव से कुछ लोग किट मार्गो में चलते हुए १६ -१७ हजर फीट ऊंचे दर्रो पर पहुंचते हैं। उनके पास पीठ पर लगी एक-एक कंड व रिंगाल से बनाई गई छतरियां होती हैं, जिन पर दुर्लभ भोजपत्र वृक्ष की छालें लपेट ली जाती हैं।

ये लोग बरसात में खिलने वाले हिमपुष्प ब्रह्मकमल को बड़ी संख्या में तोड़कर छतरी व कंड में सजा कर गांव लौटते हैं। इन लोगों को स्थानीय बोली में ‘फुल्यारी कहते हैं। यह फुलवारी का ही अपभ्रंश है। सचमुच, जब ये लोग सर से पांव तक फूलों से लकदक भरे पहाड़ी ढलानों से लौटते हैं तो बिलकुल ऐसा लगता है- जैसे फुलवारियां ही चलती-फिरती आ रहीं हों। जब ये अपने-अपने गांव पहुंचते हैं तो गांवॊं में इनका भव्य स्वागत होता है। लोकगीत, नृत्य शुरू हो जाते हैं। विशेष पूजा होती है। मेले का दृश्य जीवंत हो उठता है। कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाले इस आनंदमय वातारण में सराबोर हो उठती हैं। नर-नारियों में सुख-सौभाग्य के सूचक ब्रह्मकमल फूलों को प्राप्त करने की होड़ सी लग जाती है।

दरअसल भादो माह की नंदाष्टमी को यहां शिव-पार्वती के विवाह होने के उपलक्ष्य में विशेष त्योहार उल्लासर्पूक मनाया जाता है। पार्वती ही यहां नंदादेवी है। नंदादेवीं पर पर्वतवासियों की अडिग आस्था आज भी कायम है। रहस्य-रोमांच, सुख-दुख, साहस-संघर्ष से भरी हुई दंतकथाओं और लोकगीतों में नंदादेवी का रूप देवी से कहीं ज्यादा बढ़कर एक पहाड़ी बहू-युती का है। बेटी के ब्याह में जश्न मनाये जाने की अवधारणा के अंतर्गत पर्वतीय क्षेत्र में नंदाष्टमी को विशेष उत्साह से मनाया जाता है।

बद्रीनाथ धाम से पूर्व औली (जोशीमठ) के आसपास बसे गांव हेलंग-सेलंग, सलूड़, डाडौ, परसारी, तपोन, उर्गम,-भरक, बांसा, कलगोठडुमक में यह फूलों भरा उत्सव आज भी नंदादेवी के प्रति अत्यन्त आत्मीय आस्था को दर्शाता है। नंदाष्टमी से दो दिन पूर्व एक विशेष सामूहिक पूजा के बाद फुल्यारी यानी कुछ चुनिंदा साहसी युवक प्रत्येक गांव से कठिन हिमालय दर्रे की तरफ निकल पड़ते हैं। सभी अलग-अलग रास्तों से चलते हुए अंतत: तेरह हजार फीट की ऊंचाई पर करी बुग्याल पहुंचते हैं। रात्रि विस्राम वहां प्राकृतिक गुफाओं में या भेड़-बकरी पालकों के अस्थयी डेरों में करते हैं। अगले दिन सुबह मुंह अंधेरे में ही वे अत्यंत ठंडे पानी में नहा-धोकर मसाण्गेठा नाम बीहड़ दर्रे की ओर निकल पड़ते हैं।

यह दर्रा १६ से १७ हजार फीट ऊंचाई तक पसरा हुआ है। चारों ओर हिमखंड, चट्टानों पत्थरों का महाराज्य फैला हुआ दिखता है एक अविनाशी मौन में डूबा हुआ। इन दिनों यहां इन चट्टानों और पत्थरों में चारों ओर खिले होते हैं ब्रह्मकमल। पूजा-अर्चना के इन्हीं ब्रह्मकमलों को लेने जाते हैं फुल्यारी युवक।

रविवार, 3 जनवरी 2010

देव वन: जंगल में रहते हैं देवता

उस मौन महकते जंगल का नाम ही ‘देवता है और वहां एकान्त में जो मुग्ध और चकित कर देनेवाला भव्य मंदिर है उस स्थान का नाम ‘देववन। मंदिर शीतकाल में बर्फ से ढका रहता है। मंदिर के कपाट खुलने के समय और विशेष धार्मिक असरों पर यहां अत्यधिक संख्या में लोग दर्शन करने आते हैं। ११ वीं से १६वीं शताब्दी के बीच देवदार की लकड़ियों से बना यह मंदिर आज भी सुगंध बिखेरता है।

यह पान स्थल हिमाचल प्रदेश की सीमा से सटे गढ़वाल के उत्तरकाशी देहरादून जनपदों के सरहद पर लगभग १०,००० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। निकटतम मोटर मार्ग इस स्थल से १२ किमी दूर है। हनोल नामक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल तक ही मोटर मार्ग की सुविधा है। हनोल में सम्पूर्ण क्षेत्र के आराध्य ईष्ट महासू देवता का अत्यंत कलात्मक प्राचीन मंदिर दर्शनीय है। यह देवता गढ़वाल सहित हिमाचल प्रदेश के क्षेत्र जुब्बल, सिरमौर, बुशैहर, जौनसार, बार और रांई परगने में विशेष रूप से पूजा जाता है। इस देवता का प्रत्यक्ष और प्रबल प्रभाव आज भी क्षेत्र में देखा जाता है। यदि दो पक्षों में झगड़ा चल रहा हो तो मुकदमे की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि देवपंचायत बैठती है और देवता का आदेश ही सर्वमान्य होता है। न्यायप्रियता के लिए यह दयालु देवता बहुत प्रसिद्ध हैं।

बड़ी विपदा पर लोग देववन के देव दरबार में फरियाद लेकर पहुंचते हैं। यह देव दरबार बड़ा विचित्र होता है। देवता का एक प्रवक्ता होता है जिसे माली कहते हैं। उस व्यक्ति में देवांश प्रवेश करता है। जब वह कांपता है तो समझा जाता है अब देवता ने प्रवेश कर लिया है। फिर दुखी व्यक्तियों से एक-एक कर बातें करता है। देवता जो कुछ बोलता है उसे देववाणी समझ लिया जाता है और जो निर्णय देता है उसे अटल मान लिया जाता है। संकटग्रस्त व्यक्तियों पर इन बातों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।

यहां का भव्य मंदिर छत्रशैली का अनुपम उदाहरण है। स्थापत्य कला का जैसा जादुई सौन्दर्य यहां छिटका हुआ है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। दृष्टि इन कलाकृतियों के मोहक आकर्षण में बंधी की बंधी रह जाती हैं। यहां के लिए मान्यता है कि बहुत समय पहले इस क्षेत्र के टौंस, पब्बर नदी घाटी में राक्षसों का अराजकतापूर्ण राज चल रहा था। तपस्यारत ऋषि-मुनि बेहद आकुल और व्यथित थे। जब राक्षसों का आतंक बढ़ने लगा तो सभी ऋषि -मुनि देन आकर महाशिव की आराधना करने लगे। तब रघुकुल के छत्रपति राजा राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न ने अपने सहचरों की मदद से सभी राक्षसों का वध किया।

जनश्रुति के अनुसार कालान्तर में राजा दशरथ के चारों पुत्र इस पर्वतीय क्षेत्र में चार भाइयों के रूप अवतरित हुए। मुख्यत: इनका नाम महासू है। इन चारों का नाम है- चलदा महासू, पासी महासू, बौठा महासू, और बासीक महासू। इन चारों देव भाइयों के सेनापति योद्धाओं के नाम शेड़कुड़िया, गुडारू, कइला पीर, कपला आदि हैं। इस समूचे सीमान्त अन्तरप्रदेशीय क्षेत्र के लोग इन चार भाई महासू को अपना ईष्ट देवता मानते हैं। यत्र-तत्र इन देताओं के एक से बढ़कर एक भव्य कलात्मक खूबसूरत मंदिर बने हुए हैं।