मंगलवार, 29 मार्च 2011

रमेश का ‘द ग्रेट इंडियन टाइगर शो’




बाघों की तादाद में बढ़ोतरी की जो रिपोर्ट सनसनीखेज बनाकर वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पेश की है, दरअसल उसकी सच्चाई कुछ और है। आंकड़ों पर गौर करें तो बाघों की तादाद 1411 (2006) से बढ़कर 1706 हो गई है, लेकिन यह उपलब्धि आंकड़ों की शानदार बाजीगरी से ज्यादा कुछ नहीं है।

पिछली के मुकाबले इस बार की गणना में 295 बाघ ज्यादा पाए गए हैं, लेकिन यह नहीं बताया गया है इस बार सुंदरबन और पश्चिम बंगाल व उड़ीसा के नक्सल प्रभावित इलाकों को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है जो पिछली बार शामिल नहीं थे। अकेले सुंदरबन में ही तकरीबन 70 बाघ हैं।

यानी जो बाघ बढ़े हैं वो पिछली बार भी थे लेकिन उनकी गिनती नहीं की गई थी। बाघों की वृद्धि के आंकड़े कई और सवालों की ओर भी इशारा कर रहे हैं। मसलन, बाघों की जो बढ़ोतरी रिपोर्ट में दर्ज है वह उन इलाकों से नहीं आई है जहां प्रोजेक्ट टाइगर दशकों से चल रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि अब तक प्रोजेक्ट टाइगर पर साल 2010 तक खर्च हो चुके 892.18 करोड़ रु. आखिर जा कहां रहे हैं?

और तो और बाघों का आवास स्थल भी बढऩे के बजाय कम होकर 728000 हेक्टे. में ही रहा गया है। 2006 में यह 936000 हेक्टे. था। राजस्थान के संदर्भ में भी इस रिपोर्ट में कोई खुशखबरी नहीं है। यहां की स्थिति कमोबेश वही है जो पिछली गणना के वक्त थी। लब्बोलुआब यह है कि वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बाघों की वृद्धि की खूबसूरत मार्केटिंग तो की है, जबकि आंकड़े इतना खुश नहीं करते।

केवल पहाड़ों पर आता है वसंत


रस्किन बॉन्ड

आज जब पीछे लौटकर देखता हूं तो एकबारगी यकीन ही नहीं होता कि मैंने इन पहाड़ों पर इतने साल बिता दिए। 25 गर्मियां और मानसून और सर्दियां और वसंत (वसंत केवल पहाड़ों पर ही होता है, मैदानी इलाकों में नहीं)। मुझे वह आज भी कल ही की बात लगती है, जब मैं यहां पहली बार आया था।

समय गुजर जाता है, लेकिन गुजरकर भी गुजर नहीं पाता। लोग आते और चले जाते हैं, लेकिन पहाड़ अपनी जगह पर बने रहते हैं। पहाड़ जिद्दी होते हैं। वे अपनी जगह छोड़ने से इनकार कर देते हैं। हम चाहें तो विस्फोट करके उनके दिल में छेद कर दें या उनसे उनके वृक्षों का आवरण छीन लें या उनकी नदियों पर बांध बनाकर उनका रुख मोड़ दें या सुरंगें, सड़कें और पुल बना दें, लेकिन हम इन पहाड़ों को उनकी जगह से बेदखल नहीं कर सकते। मुझे उनकी यही बात सबसे अच्छी लगती है।

मुझे यह सोचकर अच्छा लगता है कि मैं पहाड़ों का एक हिस्सा बन गया हूं। मैं यहां इतने समय से रह रहा हूं कि अब मेरा इन दरख्तों, जंगली फूलों और चट्टानों से गहरा नाता बन चुका है। कल शाम जब मैं बलूत के दरख्तों के नीचे से होकर गुजर रहा था, तब मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं इस जंगल का एक हिस्सा हूं। मैंने अपना हाथ एक बूढ़े दरख्त के तने पर टिका दिया। जैसे ही मैं मुड़ा, पेड़ की पत्तियों ने मेरे चेहरे को सहला दिया। मानो वे इसके लिए मेरा आभार स्वीकार रही हों।

एक दिन मैंने सोचा कि यदि हम इन दरख्तों को बहुत ज्यादा सताएंगे तो कहीं ऐसा न हो किसी दिन वे अपनी जड़ें समेटकर कहीं और चले जाएं। शायद किसी और पर्वत श्रंखला पर, जहां मनुष्यों की पहुंच न हो। मैंने कई जंगलों को इसी तरह गायब होते देखा है। अब तो इन जंगलों को कहीं और जाने से रोकने के लिए काफी बातें की जाने लगी हैं। आजकल पर्यावरणविद् होना भी एक फैशन है। ठीक है। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि हमसे बहुत देर हो चुकी हो?

कॉनराड, मेलविल, स्टीवेंसन, मेसफील्ड जैसे कई महान लेखकों ने समुद्र के वैभव का उत्सव मनाया है, लेकिन ऐसे कितने लेखक हैं, जो पहाड़ों की निरंतरता को अपनी विषयवस्तु बनाते रहे हैं? पहाड़ों के बारे में कोई सच्ची भावना प्राप्त करने के लिए संभवत: मुझे प्राचीन चीन के ताओ कवियों की ओर मुड़ना होगा। किपलिंग जरूर कभी-कभी पहाड़ों का उल्लेख कर देते हैं, लेकिन मुझे पता नहीं कि किन भारतीय लेखकों ने हिमालय के बारे में महत्वपूर्ण साहित्य रचा है। कम से कम आधुनिक लेखकों में से तो किसी ने हिमालय पर नहीं लिखा। आमतौर पर लेखकों को अपनी आजीविका चलाने के लिए मैदानी इलाकों में ही गुजर-बसर करनी पड़ती है। लेकिन मेरे जैसे लेखक के लिए पहाड़ बहुत ही उदार साथी साबित हुए हैं।

वास्तव में पहाड़ शुरू से ही मेरे प्रति उदार रहे। मैंने दिल्ली में अपनी नौकरी छोड़ दी थी और पहाड़ों की गोद में रहने चला आया था। आज बहुतेरे हिल स्टेशन अमीरों की आरामगाह हैं, लेकिन पच्चीस साल पहले यहां गरीब-गुरबे लोग बहुत कम आमदनी में भी मजे से रहते थे। यहां बहुत कम कारें दिखाई देती थीं और अधिकतर लोग पैदल ही चलते थे। मेरी कॉटेज बलूत और मेपल के जंगल के किनारे पर थी और मैंने वहां आठ-नौ साल बिताए। वे बहुत खुशनुमा साल थे और इस दौरान मैं कहानियां, निबंध, कविताएं और बच्चों के लिए किताबें लिखता रहा। पहाड़ों पर रहने से पहले मैं बच्चों के लिए कुछ नहीं लिख पाया था।

मुझे लगता है कि इसका कोई न कोई संबंध प्रेम के बच्चों से होगा। प्रेम और उसकी पत्नी ने मेरे घर की देखरेख का पूरा जिम्मा अपने कंधों पर उठा लिया था। मैं तो खैर इन मामलों में अनाड़ी ही हूं। मैं तो अपने आपको बिजली के फ्यूज, गैस सिलेंडर, पानी के पाइप, आंधी में उड़ जाने वाली टिन की छत जैसी चीजों के सामने असहाय ही महसूस करता हूं। प्रेम और उसकी पत्नी के कारण ही मैं लेखन में मन लगा पाया। उनके बच्चे मुकेश, राकेश और सावित्री हमारे मेपलवुड कॉटेज में ही पले-बढ़े। यह स्वाभाविक ही था कि मैं उनके परिवार का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। एक दत्तक पितामह। राकेश के लिए मैंने चेरी के एक ऐसे दरख्त की कहानी लिखी, जो पनप नहीं पा रहा था। नटखट मुकेश के लिए मैंने भूकंप से संबंधित एक कहानी लिखी। सावित्री के लिए मैंने कविताएं और गीत लिखे।

पहाड़ों पर रहते हुए मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि मेरे पास लिखने के लिए कुछ भी नहीं है। पहाड़ी के नीचे एक छोटी-सी नदी बहती थी और उसने मुझे छोटे जीव-जंतुओं, जंगली फूलों, परिंदों, कीड़े-मकोड़ों, पौधों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। आस-पड़ोस के गांव और वहां रहने वाले खुशमिजाज लोग हमेशा मुझे आकर्षित करते रहे। लेंडूर और मसूरी हिल स्टेशनों के पुराने घर और इनमें रहने वाले लोग भी हमेशा मेरी दिलचस्पियों के दायरे में रहे। मैं पहाड़ों की पगडंडियों पर पैदल चलता रहा। कभी-कभी मैं सड़क किनारे चाय की दुकान या किसी देहाती स्कूल में जाकर थोड़ी देर सुस्ता लेता। किपलिंग ने कहा था कि पहाड़ों की गोद में जाना मां की गोद में जाने की तरह है। इससे सच्ची बात शायद ही कोई दूसरी हो सकती है। पहाड़ एक गर्वीली किंतु प्रेम करने वाली मां की तरह हैं। जब भी मैं लौटकर उनके पास गया, उन्होंने स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया। मैं कभी उनसे दूर नहीं हो पाया।

लेकिन कुछ कठिनाइयां भी आती रहीं। कभी-कभी ऐसा होता कि मेरा सारा पैसा खत्म हो जाता। मैं अपने लेखन से इतना पैसा कभी नहीं कमा पाया कि अपने लिए एक अच्छा-सा घर बनवा पाऊं। अगर मैं लंदन में होता या अपने भाई की तरह कनाडा में या फिर मुंबई में ही होता तो शायद मैं इससे ज्यादा पैसे कमा पाता। लेकिन अगर मुझे फिर से चुनाव करने का मौका मिले, तब भी मैं इन पहाड़ों को ही चुनूंगा। पहाड़ हमें जिस तरह की स्वतंत्रता देते हैं, वह कोई और जगह नहीं दे सकती। इस मायने में पहाड़ स्वर्ग के बहुत करीब हैं।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

पहाड़ों में अमेरिकी आतंक

पहाड़ों का मतलब है शांत, सुंदर और दिलकश नजारे, पर अफगानिस्तान में शांति के नाम पर अमेरिकी आतंकी सैनिकों ने वादियों की खूबसूरती को खंजर भोंक दिया।

एक किसान का बेटा गुल मदीन 15 जनवरी 2011 को अमेरिकी सैनिकों ने मार डाला। और तो और इस अमेरिकी किल टीम का यह सदस्य शव के साथ जानवरों-सा बर्ताव कर अपनी बहादुरी की फोटो खिंचवा रहा है। हालांकि अमेरिकी सरकार जल्द ही इन सैनिकों के कोर्ट-मार्शल की कार्रवाई करने जा रही है।
दूसरा अमेरिकी आतंकीशव के साथ हंसते हुए। इस घटना से अमेरिकी सेना की दुनियाभर में काफी किरकिरी हुई है।
दो अन्य अफगान लोगों को किसी जानवर की तरह हाथ-पैर बांध कर मार डाला गया है। ये चित्र एक अमेरिकी सैनिक के फोटो कलेक्शन में मिले हैं।

सोमवार, 14 मार्च 2011

पहाड़ जैसी चुनौतियां परिंदों जैसा जीवन:कीर्ति राणा


फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से मित्र की आवाज सुनाई दी। उन्होंने बताया कि परिवार सहित शिमला घूमने आना चाहते हैं। मैंने पहला प्रश्न किया - ‘पैदल चलने की आदत है या नहीं?’ ‘हां-हां क्यों नहीं, यहां भी तो पैदल चलते हैं।’ बातचीत में ही उन्होंने बताया, ‘एक दिन ही रुकेंगे, दूसरे दिन बाकी जगहों पर घूमने का प्रोग्राम है।’

खैर वे सपरिवार आए। ऊंचे-नीचे घुमावदार रास्तों के कारण हालत खराब हो गई। सामान उतारते ही नजरें ऑटो रिक्शा तलाशने लगीं। मैंने समझाया - यहां टेम्पो-ऑटो नहीं चलते। उनका चेहरा देखने लायक था। मैंने कहा - घबराओ मत, कुली कर लेते हैं। कुली ने पांच लोगों का सामान कंधों पर लादा। उसके पीछे हम कदमताल करते चल पड़े। जो लोग पहाड़ी इलाकों में पहली बार जाते हैं, वे एक दिन में ही इतना पैदल चल लेते हैं, जितना मैदानी इलाकों में महीनों में चलते होंगे। जैसे-तैसे होटल पहुंचे। कमरों की चाबी मिलते ही सीधे पलंग पर लेट गए और फरमान सुना दिया कि अब एक दिन यहीं रुकेंगे, बहुत थक गए हैं। मैंने याद दिलाया कि शिमला में दो दिन रुकने का तो प्रोग्राम था ही नहीं। जवाब मिला, थक गए हैं। सुबह जल्दी नहीं उठ पाएंगे। मैंने याद दिलाया, तुम तो कह रहे थे कि पैदल चलने की आदत है तुम्हारी।

अब वह मुझ से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहा था - यहां के लोग कैसे रोज के काम निपटाते होंगे? ऑटो-टेम्पो-तांगे नहीं चलते? माल रोड और आसपास के रास्ते ‘नो व्हीकल जोन’ क्यों कर रखे हैं? मैंने उसे समझाया कि ज्यादातर पहाड़ी क्षेत्रों में पैदल ही आना-जाना करते हैं लोग। बसें भी चलती हैं, लेकिन लोग शॉर्टकट रास्तों से पैदल जल्दी पहुंच जाते हैं। शिमला चूंकि अपनी खूबसूरती के कारण जाना जाता है, इसलिए भी कई इलाकों को ‘नो व्हीकल जोन’ घोषित कर रखा है। पहाड़ी शहरों में रास्ते संकरे होते हैं। जाम की स्थिति न बने, इसलिए भी भीड़ वाले इलाकों में पैदल ही आवाजाही रहती है। अब मित्र के बच्चों की जिज्ञासा थी कि क्या सभी जगह पैदल ही आना-जाना पड़ेगा? मैंने उन्हें समझाया - पैदल चलना तो अच्छा है सेहत के लिए। हमारे धार्मिक स्थल, शक्तिपीठ आदि पहाड़ियों पर इसलिए स्थापित हैं कि हम पैदल दर्शन को जाएं तो पहाड़, जंगल, पशु-पक्षी देखने के साथ ही पहाड़ी लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन को भी जान-समझ सकें।

हमारी जीवन शैली में कितना बदलाव आ गया है। अब पैदल चलने का मतलब है मॉर्निग वॉक। वह भी तब जब डाक्टर पैदल चलने की सलाह दें। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले हर रोज पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना करते हैं। शायद इसीलिए उनका दिल उदार होता है। कब आंधी चल पड़े, पानी बरसने लगे, बर्फ गिरने लगे, इन सारे हालात का चाहे जब सामना करने के लिए तत्पर रहने के कारण ही पहाड़ के लोग विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते-मुस्कराते नजर आते रहते हैं। मैदानी इलाकों में नल न आए तो पानी के लिए खून बहाने के हालात बन जाते हैं। बिजली गुल हो तो हाहाकार मच जाता है। पहाड़ी इलाकों में महीनों तक 8 से 12 फीट बर्फ जमी रहती है। बिजली गुल रहती है। मैदानी इलाकों में तो दसवीं पढ़ रहा स्टूडेंट भी शान से बाइक लेकर जाता है। पहाड़ों में 5-7 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल आना-जाना सामान्य बात है। जो है, जैसा है, हर हाल में खुश रहने की आदत पड़ जाने का ही नतीजा है कि पहाड़ के लोगों का स्वभाव अधिक शांत है। हर छोटी-मोटी बात पर धरना-प्रदर्शन-चक्काजाम-तोड़फोड़ करना इनके खून में शामिल नहीं है। अलबत्ता लोगों के इस ‘कोल्ड नेचर’ का फायदा उन राजनेताओं को ज्यादा हो रहा है, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में दुआ-सलाम करके इन लोगों का गुस्सा शांत करने का फॉमरूला पता होता है।

गुलों से गुपचुप दो-चार बातें: रस्किन बॉन्ड


अब मैं इतना भी नहीं कहूंगा कि एक सुंदर-सा बगीचा हर समस्या का हल है या हर दुख का इलाज है। लेकिन फिर भी यह जानना कितना आश्चर्यजनक है कि जब हम कमजोर और असहाय महसूस करते हैं तो इस धरती के साथ संवाद हमें फिर से नई ऊर्जा और ताकत से भर देता है।

जब भी मैं कोई कहानी या निबंध लिखते हुए बीच में अटक जाता हूं तो पहाड़ी के एक कोने पर बने अपने छोटे-से बगीचे में चला जाता हूं। वहां मैं पौधे लगाता हूं। कूड़ा-करकट और घास-पात साफ करता हूं। पौधों की कटाई-छंटाई करता हूं या फिर मुरझाई हुई कलियों की छंटाई करता हूं और ये सब करते हुए तुरंत मेरे मन में नए विचार आते हैं और रुकी हुई कहानी या ठहरे हुए निबंध को रास्ता मिल जाता है। थम गई कविता को मंजिल मिल जाती है।

ऐसा नहीं है कि हर माली लेखक ही होता है। लेकिन अपने बगीचे की सुंदरता और गुणों को अपने भीतर आत्मसात कर लेने के लिए लेखक होना कोई जरूरी भी नहीं है। मेरा दोस्त बलदेव दिल्ली में बहुत बड़ा बिजनेस चलाता है। उसने मुझे बताया कि अपने बगीचे में कम से कम आधा घंटा बिताए बगैर वह ऑफिस जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। अगर आप अपने दिन की शुरुआत बगीचे में गिरी ओस की बूंदों को देखने से करते हैं तो आप ऑफिस में भयावह बोर्ड मीटिंगों का भी सामना कर सकते हैं।

एक और पुराना दोस्त है सिरिल। उसी का उदाहरण ले लीजिए। जब मैं उससे मिला तो वह एक इमारत की पहली मंजिल पर एक छोटे-से अपार्टमेंट में रहता था। मैंने सोचा बेचारा सिरिल, यहां तो वह एक बगीचा भी नहीं बना सकता। लेकिन जब मैं उसके घर में गया तो देखा कि उसका कमरा एक लंबे-चौड़े बरामदे से घिरा हुआ था। वहां काफी मात्रा में धूप और हवा आने की जगह थी। नतीजा यह कि वहां ढेर सारे फूल और लहलहाती हरी पत्तियां नजर आईं। एक क्षण को तो मुझे ऐसा लगा कि मैं लंदन के क्यू गार्डन के किसी ग्रीन हाउस में आ गया हूं। लंदन में अपने छोटे-से प्रवास के दौरान वहां मैं अकसर चहलकदमी किया करता था। लहरदार लताओं और पौधों के बीच से सिरिल मेरे लिए एक कुर्सी निकाल लाया। एक पौधे के पीछे से एक छोटी-सी कॉफी टेबल भी प्रकट हो गई।

अब तक चारों तरफ पेड़-पौधों और हरियाली से खिले हुए इस माहौल में मैं काफी जीवंत हो उठा था। मैंने पाया कि वहां पर कम से कम दो मेहमान और थे। एक बड़ा-सा फिलोडेन्डॉम का पौधा था। उसका बड़ा-सा आकार किसी पेड़ सरीखा ही था। दूसरा भी एक बड़े-से गमले में विराजमान मासूम-सा पौधा था। बेशक सिरिल अपवाद है। जरूरी नहीं कि हम सबके पास ऐसा बरामदा हो ही, जहां धूप और हवा की ऐसी आवाजाही हो सके। लेकिन एक बात और भी है। सिरिल उन पौधों से घर में आने वाली इल्लियों और झींगों के प्रति जितना उदार और सहनशील है, संभवत: मैं नहीं हो सकता। वह तब तक अच्छा-खासा खुशहाल व्यक्ति था, जब तक नीचे रहने वाले उसके मकान मालिक की यह शिकायत उस तक नहीं पहुंची कि छत से रिसकर पानी नीचे तक पहुंच रहा है। सिरिल ने कहा - छत की मरम्मत करवा दीजिए और इतना कहकर वह वापस अपने पौधों में पानी डालने लगा। और इसी के साथ मकान मालिक और किराएदार के उस खूबसूरत रिश्ते का अंत हो गया।

अब मैं उस धोबन के बारे में बताता हूं, जो मेरे घर से कुछ दूरी पर सड़क के दूसरी ओर रहती है। उसका परिवार बेहद गरीब है और वे बहुत अभाव की स्थिति में जीवन बसर करते हैं। उन्हें दोपहर में ही खाना नसीब होता है और बचा-खुचा भोजन वे शाम के लिए रख देते हैं। लेकिन उनकी मामूली-सी झोपड़ी की ओर जाने वाली जो सीढ़ियां हैं, उन पर दोनों ओर टिन के डिब्बों में जिरेनियम के पौधे लगे हुए हैं। हर तरह के रंगों वाले फूलों से वह रास्ता गुलजार रहता है। मैं कितनी भी कोशिश कर लूं, लेकिन उसकी तरह इतने सारे जिरेनियम के पौधे नहीं उगा सकता। क्या वह अपने पौधों को भी वैसे ही डांट लगाती है, जैसे अपने बच्चों को? जो भी हो, लेकिन उसका वह मामूली-सा घर मसूरी के बड़े-बड़े अधिकारियों के आलीशान घरों से भी कहीं ज्यादा खूबसूरत और आकर्षक है।

इस खूबसूरत हिल स्टेशन मसूरी में सभी के घरों में सुंदर बगीचे नहीं हैं। कुछ महलनुमा घर और विशालकाय होटल के बगीचे तो सूखकर बेजान हुए जा रहे हैं। मुरझाती हुई झाड़ियां हैं और सूख चुके गुलाब। इन घरों के मालिक अपनी निजी समस्याओं और दुखों में ही इतने डूबे हुए हैं कि अपने बगीचों की मुर्दनी सूरत पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। रसहीन, प्रेमविहीन जिंदगियां हैं और वैसे ही प्रेम और रंग से वंचित सूख चुके बगीचे। लेकिन वहीं दूसरी ओर एन्नी पॉवेल भी हैं, जो 90 साल की उम्र में रोज तड़के उठकर अपने पौधों में पानी डालती हैं। एक हाथ में पानी डालने का झारा लिए हुए एन्नी एक फूल की सेज से दूसरे फूल की सेज का रुख करती रहती हैं। वह पूरे समर्पण के साथ एक-एक पौधे को पानी की फुहारों से नहलाती जाती हैं। वह कहती हैं कि उन्हें ताजे पानी की फुहारों में भीगते हुए फूलों और पत्तियों को निहारना बहुत अच्छा लगता है। इस तरह मानो हर दिन उन्हें एक नई जिंदगी मिलती है।

देहरादून में मेरे नाना-नानी का घर भी चारों तरफ फूल-पत्तियों, पौधों और पेड़ों से घिरा हुआ था। उनका बगीचा बहुत सुंदर और करीने से सजा था। नाना बाग और पेड़ों की देखभाल करते थे और नानी फूलों की। और उन सभी लोगों की तरह जो सालों-साल साथ रहते हैं, मौके-बेमौके उनके बीच भी पौधों की देखभाल को लेकर असहमतियां हो ही जाया करती थीं। जब वे बहस कर रहे होते तो हम भाई-बहन संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों की तरह उनका निरीक्षण किया करते। काश उस वक्त मैं इतना बड़ा होता कि उस बगीचे को दूसरों के हाथों में जाने से रोक पाता। खैर, जो भी हो, स्मृतियों को कौन रोक सकता है भला? वह तो आपकी आत्मा की खोह में सुरक्षित मौजूद रहती ही हैं।


लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

आवारा परिंदों की आरामगाह: रस्किन बॉन्ड


झाड़ियों के बारे में जो चीज मुझे सबसे अच्छी लगती है, वह यह है कि वे अमूमन मेरे कद के बराबर ही होती हैं। अधिकांश पेड़ बहुत ऊंचाई तक जाते हैं। कुछ ही सालों में हमें उन्हें सिर उठाकर देखना पड़ता है। हमें लगता है कि उनके और हमारे कद में बहुत अंतर है। होना भी चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ झाड़ी, चाहे उसकी उम्र तीस या चालीस साल ही क्यों न हो, हमेशा हमारी पहुंच के भीतर और हमारे कद के बराबर बनी रहती है। झाड़ियां फैल सकती हैं या बहुत घनी भी हो सकती हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि उनकी ऊंचाई हमसे भी अधिक हो जाए। इसका मतलब यह है कि हम झाड़ियों के साथ अधिक आत्मीय हो सकते हैं। हम उसकी पत्तियों, फूलों, बीजों और फलों से अधिक अच्छी तरह से परिचित हो सकते हैं। साथ ही झाड़ियों में बसने वाले कीड़ों, पक्षियों और अन्य छोटे जीवों से हमारा ज्यादा करीबी रिश्ता हो सकता है।

यह तो हम सभी जानते हैं कि मिट्टी के कटाव पर रोक लगाने के लिए झाड़ियां बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। इस मामले में उनकी महत्ता पेड़ों जितनी ही है। हर बारिश में मुझे जगह-जगह से भूस्खलन की खबरें मिलती हैं, लेकिन मेरे घर के ठीक ऊपर जो पहाड़ी भूमि है, उसे करौंदे, जंगली मोगरे और रसभरी की झाड़ियों ने कसकर बांध रखा है। मैंने इन्हीं के बीच एक बेंच लगा रखी है। यहां बैठकर मैं अपने घर की छत के साथ ही इधर-उधर के दृश्यों पर भी नजर रख सकता हूं। यह मेरी पसंदीदा जगह है। जब तक मैं यहां होता हूं, तब तक मुझे कोई खोज नहीं सकता। तब तक नहीं, जब तक मैं खुद ही झाड़ियों के भीतर से आवाज लगाकर उसे यह न बताऊं कि मैं यहां छिपा बैठा हूं। मैं पक्षियों के लिए अनाज के दाने बिखेर देता हूं और वे मेरे इर्द-गिर्द फुदकते रहते हैं। उनमें से एक पक्षी, जो सबसे ज्यादा दबंग होता है, मेरे जूते पर आ बैठता है और उस पर अपनी चोंच रगड़कर उसे चमकाने की कोशिश करने लगता है। यहां सालभर चिड़ियां नजर आती हैं। कुछ गाने वाली बुलबुल भी हैं, जो घरों और पहाड़ों की तराई के बीच की जगह में रहती हैं। इन जगहों की झाड़ियां जरा नम होती हैं और बुलबुलों को यह अच्छा लगता है।

गर्मियों के आगमन के साथ ही फल कुतरने वाले पक्षी जाने कहां से चले आते हैं, क्योंकि इस मौसम में बेरियां पक चुकी होती हैं। इन्हीं में शामिल है हरे कबूतरों का एक जोड़ा। मैंने इस प्रजाति के कबूतर इससे पहले कभी नहीं देखे थे। वे एक कंटीली झाड़ी के ऊपर मंडराते रहते हैं और उसके फलों को बड़ी नफासत के साथ कुतर डालते हैं। रसभरी की झाड़ियों पर छोटी फिंच चिड़ियाएं और पीले पेट वाली बुलबुलें धावा बोल देती हैं। हरे तोतों का एक झुंड फलदार पेड़ों पर झपट्टा मारता है। वे यहां कुछ देर ही रुकते हैं। मेरी पदचाप सुनते ही तोतों का झुंड हवा में हरे रंग की एक लहर बनाते हुए उड़ जाता है। इसके बाद वे निचले पहाड़ी रास्तों पर मौजूद बालूचे के दरख्तों पर दावत मनाने में मशगूल हो जाते हैं।

हिमालय की तराइयों में किंगेरा नाम की एक झाड़ी पाई जाती है, जो करौंदे की ही तरह होती है। यह पक्षियों के साथ ही छोटे बच्चों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है। स्कूल से छूटकर घर की ओर लौटते बच्चे इनके इर्द-गिर्द एकत्र हो जाते हैं और छोटे-छोटे खट्टे-मीठे बेरों का मजा लेते हैं। वे इतने ज्यादा बेर खा लेते हैं कि उनके होंठ जामुनी रंग के हो जाते हैं। इसके बाद वे इसी तरह झूमते-गाते घर की ओर बढ़ जाते हैं। उनके जाते ही पक्षी यहां लौट आते हैं।

झाड़ियों के इस संसार में छिपकलियों-सी दिखाई देने वाली छोटी बामनियां भी नजर आ जाती हैं। वे कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचातीं। उनका ठिकाना आमतौर पर चट्टानों की दरारों या पेड़ों की जड़ों के इर्द-गिर्द होता है। वे यदा-कदा धूप सेंकने या पत्तियों की ओस से अपनी प्यास बुझाने के लिए बाहर चली आती हैं। मुझे एक बड़ी शिकारी बिल्ली से इनकी रक्षा करनी पड़ती है। इन धारीदार बिल्लियों को लगता है जैसे पहाड़ पर बसने वाले सभी छोटे-मोटे जीव-जंतु उनका भोजन हैं। अपनी बेंच पर बैठे-बैठे मैं उसे अपनी छत पर धीरे-धीरे चलते देख लेता हूं। मुझे पूरा भरोसा है कि इस बिल्ली की नजर हरे कबूतरों के जोड़े पर है। मुझे भी लगातार इस बिल्ली पर नजर बनाए रखनी होगी। जब तक यह बिल्ली है तब तक पक्षियों को झाड़ियों तक बुलाने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि यह तो उस बिल्ली के नाश्ते का इंतजाम करने की तरह होगा।

बहुत-सी झाड़ियों में सुंदर-सुंदर फूल भी लगते हैं। डॉग रोजेज की झाड़ियां, जंगली पीले मोगरे, बुडेलिया के फूल जो मधुमक्खियों को बहुत आकर्षित करते हैं और मेफ्लॉवर की फूलों भरी झाड़ियों का फैलाव, जिन पर पीले रंग की तितलियों का समूह किसी लिहाफ की तरह बिछा रहता है। सर्दियों में पीली पड़ जाने वाली घास अब हरी हो चली है। दूब का कालीन बिछा है। मैं अब अपनी बेंच छोड़कर घास पर भी लेट सकता हूं। घास को देखकर मुझे हमेशा वॉल्ट व्हिटमैन की यह कविता याद आती है : एक बच्चे ने पूछा/क्या होती है घास/उसके हाथों में थी जरा-सी घास/जमीन से उखड़ी हुई/मैं तुम्हें कैसे बता सकता हूं मेरे बच्चे? पहले जो घास थी/नहीं जानता मैं/क्या है वह अब।

मैं कोई बहुत जानकार व्यक्ति नहीं हूं, फिर भी इतना तो मैं कह ही सकता हूं कि घास बहुत अच्छी होती है, क्योंकि वह बहुत से झींगुरों, टिड्डों और अन्य छोटे-मोटे जंतुओं का आवास होती है। शिकारी बिल्ली भी इस बात पर मुझसे सहमत होगी। आखिर वह घास पर बसने वाले इन छोटे-मोटे जीवों को हजम कर ही तो इतनी मुटा गई है। बिल्ली ने समझ लिया है कि झाड़ियों के पक्षियों से तो घास के टिड्डे ही भले। मैं बिल्ली को डराकर भगा देता हूं। हरे कबूतर भी अब उड़ चले हैं। छोटे पक्षी अपनी जगह पर कायम हैं, लेकिन वे चौकन्ने हैं और बिल्ली उन्हें चकमा नहीं दे सकती। मैं अपनी बेंच पर जाकर बैठ जाता हूं और पक्षियों को निहारता रहता हूं। ये झाड़ियां पक्षियों के लिए एक प्रतीक्षालय की तरह हैं, लेकिन अगर वे चाहें तो यहां अपना बसेरा भी बना सकते हैं। उनकी मौजूदगी मेरी जिंदगी में मिठास घोल देती है।

लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।