बुधवार, 24 मार्च 2010

गांधी के देश में कानू सान्याल की त्रासदी


नक्सल आंदोलन के प्रवर्तक नेता कानू सान्याल का निधन देश में राजनीतिक आंदोलनों के एक विलक्षण और संभवत: सबसे विवादास्पद अध्याय का अंत है। करीब चार दशक पहले पिछली सदी के सत्तर के दशक के आखिरी वर्षो में उन्होंने चारू मजूमदार के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल से किसानों व मजदूरों के हक में आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उत्तर बंगाल स्थित उनके गांव नक्सलबाड़ी के नाम पर नक्सल आंदोलन कहा गया।


यह आंदोलन राजनीतिक परिवर्तन के लिए हिंसा के प्रयोग की वकालत करता था और उस दौर में युवाओं के वर्ग को इसने खासा आकर्षित किया था। अहिंसा को बदलाव के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल और प्रतिष्ठित करने के लिए जिस देश ने मोहनदास गांधी को महात्मा का दर्जा दिया, उसमें नक्सल आंदोलन की सफलता संदिग्ध ही थी।


यही कारण है कि कई इतिहासकार नक्सल आंदोलन को भारतीय राजनीति में एक भटकाव मानते हैं। बाद में इस आंदोलन में ही कई उतार-चढ़ाव आए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी) नामक जिस पार्टी का उन्होंने गठन किया था, उसमें भी कई धाराएं सामने आईं जिनमें से एक ने बाद में चुनावी राजनीति को स्वीकार किया। यह भी कम विडंबना नहीं कि जीवन के आखिरी दिनों में निराश कानू सान्याल का शव उनके कच्चे मकान की छत से लटका पाया गया।
उन्होंने उन दिनों प्राण त्यागे, जब माओवादी कुछ राज्यों में बंद को सफल बनाने के लिए रेल की पटरियां उखाड़ रहे हैं। वह न इस माओवादी हिंसा के समर्थक थे और न ही इसे अंजाम देने वाले संगठन के। कानू सान्याल की राजनीतिक त्रासदी में सबक यह है कि हिंसा के माध्यम से बदलाव का रास्ता अंतत: आत्मछलना ही है, लेकिन लगता नहीं कि जिस मौजूदा माओवादी राजनीति के लिए कानू सान्याल पहले ही अप्रासंगिक हो चुके थे, वह उनकी त्रासदी से कुछ सीखने को तैयार होगी।

आज देश प्रगति की नई इबारतें लिख रहा है। आर्थिक विकास ने युवाओं में नए वैश्विक सपनों को जन्म दिया है। फिर भी हिंसक आंदोलन कायम है तो इसीलिए कि समाज के कुछ हिस्सों में विकास की लहर नहीं पहुंच सकी है।


प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि गरीबी और बेरोजगारी से निजात पाने के लिए दस फीसदी से ऊपर की विकास दर हासिल करना जरूरी है। हिंसा के रास्ते से विश्वास तभी खत्म होगा, जब समाज के पिछड़े हिस्सों तक न्याय और विकास की रोशनी पहुंचाई जा सके।
(दैनिक भास्कर से साभार)

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