रविवार, 3 अगस्त 2008

हिमालय में आंतक

लक्ष्मी प्रसाद पंत


एक जमाना था जब हिमालय का नाम सुनकर मन पुलकित हो जाता था। पहाड़ी सुबह का शांत सौंदर्य, पेड़ों से छनकर आती गुलाबी धूप, विशाल बफीüली चोटियां, घाटियां, झरने और धुंध में लुकते-çछपते चीड़-देवदार के जंगलों का जिक्र भर ही जिंदगी के मायने बदल देता था।

हिमालय की दुर्गम्य भव्यता, रोमांच, बादलों की गहराई में होती वषाü की नमी और ठंडी ताजगी हवा को छूने के लिए अगर किसी का मन मचलता था तो वह सीधे किसी पहाड़ी राज्य की ओर सरपट दौड़ा चला आता था। पहाड़ी संगीत की ताल और किसी सर्द शाम में लपकती आग में झलक आते हंसते पहाड़ी चेहरों का उन्माद भी मन को गहरी शांति से भर देता था।



हिमालय की सुबह, दोपहर, शाम और रात सभी हमें जिंदगी जीने के नए-नए अर्थ बताते थे। पहाड़ों का सन्नाटा हमें सुकून देता था और जैसे सिरदर्द के लिए हम एनासिन-डिस्प्रीन लेते हैं, मन में मची उथल-पुथल को शांत करने के लिए पहाड़ व जंगल ठीक वैसा ही असर करते थे। रोमांस और रोमांच तो हिमालय में था ही।दो दशकों में हिमालय की प्रकृति की यह परिभाषा दरअसल अब पूरी तरह बदल चुकी है। पहाड़ों का एकांत दरहम-बरहम हो चुका है।



पेड़ों से छनकर अब गुलाबी धूप नहीं आती बल्कि बंदूक लहराते आंतकी आते हैं। विशाल पर्वतों के दुर्गम्य आंचल में धुंध और बादलों का नहीं, आंतकियों और उन्हें खदेड़ने के लिए तैनात सैनिकों का बसेरा है। बारूद की गंध से घबराकर हिमालय का अंतहीन, शांत, सरल प्रवाह जमींदोज हो गया है। बरसात के मौसम के बाद चरवाहों की बनाई हुई जगहों का भी स्वरूप बदल चुका है। अब वहां बकरियों के गले में बंधी घंटियां नहीं बल्कि आतंकियों की एके-47 गरजती है। चरवाहों के जिंदादिल समूह भी सहमे हुए हैं।



बारिश के साथ बादल अब भी उतरते हैं लेकिन उन्हें थामने वाले पहाड़ी हाथ कांपने लगे हैं। जाने क्यों सूरज की रोशनी में सीढ़ीदार खेतों में जमा पानी भी शीशे की तरह नहीं चमकता। जनवरी-फरवरी के साफ मौसम में आसमान और बर्फ से ढके सफेद पहाड़ भी अब रोमांचित नहीं करते। टिडि्डयों की तरह पहाड़ों पर फौज और आतंकियों के फैलने के कारण बफीüली चोटियों का अनुपम सौंदर्य और विराट स्वरूप के अर्थ पूरी तरह बदल गए हैं। तपस्वियों जैसी शांत पहाडि़यों पर जमी भारी-भरकम तोपें हिमालय को मुंह चिढ़ा रही हैं।हिमालय पर दावे की लड़ाई के कारण उत्तरांचल और हिमाचल को छोड़कर सभी आठ पहाड़ी राज्य अशांत हैं। धरती का स्वर्ग कश्मीर 16 सालों से सिसक रहा है और वहां मनुष्य और प्रकृति का सामंजस्य गड़बड़ा गया है।



फौजी ट्रकों की घुरघुराहट और आतंकियों की कारगुजारियों ने कश्मीर के नाक में दम कर दिया है। श्रीनगर, बारामुला, कुपवाड़ा, डोडा और राजौरी जैसे रूमानी पहाड़ी कस्बे की शांति भंग हो चुकी है और वहां आए दिन सामूहिक हत्याकांड हो रहे हैं। बर्फ, बारिश, बादल, पेड़-पहाड़ की भाषा समझने वाले पहाड़ी कान दहशतगर्द, चरमपंथी, जंगजू, क्रेकडाउन और हीलिंग टच जैसे बेसुरे शब्द सुनने के आदी हो गए हैं। गुलमर्ग,सोनमर्ग में बफीüली फुहारों की लय तक बिगड़ गई है। देवदार के वृक्षों का विशाल सौंदर्य विलुप्त हो रहा है।



कश्मीर के अर्थ बदल गए हैं। खूबसूरती के बजाए यहां खून-खराबा है। झेलम व चिनाब नदी के तट पर प्रचंड वेग से गरज रही बंदूकों की आवाजें धरती के स्वर्ग के अस्तित्व को निरंतर झकझोरती हैं। दहशत में डूबी कश्मीरी लोगों की बैचेन आंखें और खुश्क फटे होंठ पहाड़ों में अपने होने के मायने तलाश रहे हैं।सिçक्कम और गंगटोक का नाम सुनकर भी अब गुदगुदी नहीं होती। आतंक के कारण दार्जलिंग से दिखने वाली कंचनजंगा की ऊंची चोटियों की रूप-रेखाएं भी नहीं चौंकाती। नाथूला और जलेप ला दरोZ की रौनक भी गायब हो गई है। आतंक से असम भी आहत है। उसके चाय बागानों की खुशबू आतंक के अंधेरे में विलीन हो रही हैं।




परीलोक की रहस्यमयी कथा की तरह खुलता अरूणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम,नागालैंड.त्रिपुरा में पहली बारिश से धुली हवा अब नींद की थपकी देने के बजाए सांप की तरह फुंफकारती है। देह से ऐसे टकराते हैं-मानों कोई शिकारी बाज गोश्त के टुकड़ों पर झपट्टा मार रहा हो। आतंक के कारण हवा से तपे तिब्बती चेहरे, प्रार्थना चक्र घुमाते लामा भी उदास हैं। आतंकी तूफानों के कारण पेड़ घायल सिपाही की तरह जमीन पर धराशाही हैं। इन पहाड़ी राज्यों के बाजार सशस्त्र पुलिस और र्मी की गश्त से भयावह दृश्य पेश करते हैं। वे बाजार, जो आज से पहले सैलानियों की भीड़ से भरे रहते थे अब किसी नामालूम खौफ से सूने पड़े हैं। पहाड़ी त्यौहार, उत्सव और मेले सब यहां कितने फीके और उदास हैं।आतंक हिमालय में मनी प्लांट की तरह फैल रहा है। परी देश जैसे ग्यारह हिमालयी राज्यों के अर्थ उलट गए हैं। सिर्फ उत्तरांचल और हिमाचल ही ऐसे पहाड़ी प्रदेश हैं जहां सैलानी बादल, बारिश, बर्फ और देवदार-चीड़ के पेड़ों की सरसराहट महसूस कर सकते हैं। पहाड़ी संवेदनाओं और अनुभवों की थरथराहट से रूबरू हो सकते हैं।



ख्ाौफनाक, भयाक्रांत, यातनादायक और बैचेनी से भरे सपने के वजूद ने भी सिर नहीं उठाया है। हिमाचल और उत्तरांचल की पहाड़ी सुबह और शामें हालांकि अभी रेशमी ही हैं, लेकिन यह खूबसूरती आगे भी बनी रहेगी यकीनी तौर पर कहना मुश्किल है। पहाड़ी समाज का ताना-बाना यहां भी गड़बड़ा रहा है।


नेपाल से आतंक की आहट उत्तराचंल में दस्तक देने लगी है। जम्मू-कश्मीर से सटे होने के कारण हिमाचल के चम्बा जिले से हो रही आतंकी घुसपैठ ने यहां भी अशांति का बिगुल बजा दिया हैसयाने लोग कहते हैं कि हिमालय में आतंकवाद अपने ही वक्त में नकार दिये लोगों की एक सहज प्रतिक्रिया है। आतंकवाद के लिए कुछ मुद्दे होते हैं। पहाड़ों की जिंदादिल कौम, जो आतंक और हथियार की परिभाषा से किसी भी स्तर पर परिचित नहीं थी, अगर हिमालय के विरूद्ध खड़ी है तो कुछ बात है। हरी-भरी घाटियां, वीरान और बफीüले पहाड़ यूं ही तो नहीं सिसकते। पहाड़ी फूलों ने अगर अपना चमत्कारिक रूप खो दिया है तो इसका कारण भी है। बहरहाल, तर्क तमाम हैं, शांति के दावे भी बहुत हैं। सच मगर यही है कि आतंक के कारण पहाड़ों पर बुरांश (पहाड़ी फूल) का खिलना लगातार कम हो रहा है। आंतक को मार भगाने के तमाम दावों के बीच हिमालय के दुश्मन कोहरे की दीवारों के पार बैठे हैं। धरती के स्वर्ग कश्मीर को निहारने पहुंचे पर्यटक अब भी आंतकी घृणा और बबüरता का शिकार हो रहे हैं।


हिमालय की शांत वादियां किसी अपने की दर्दनाक मौत और बिछुड़ने के विलाप में आज भी सारी रात गूंजती हैं। हिमालय की पीड़ा के इन क्षणों में पूरी आस्था के साथ प्रार्थना कीजिए कि बफीüली चोटियों का अनुपम सौंदर्य और विराट स्वरूप बरकरार रहे। यह इसलिए भी क्यों कि हिमालय हमारी सांसों से भी ज्यादा जरूरी है।

3 टिप्‍पणियां:

ni:shabd ने कहा…

sir,
it's reaaly nice.
sorry i couldn't work on urs blog bcz of wasp.

bambam bihari ने कहा…

sorry, ek aur thaka hua blog.

rajesh kumar ने कहा…

res/pant sir
app ka blog aaj dekha pahle se behtar laga. aapka prakriti prem saf jhalakta h.

with best wishes...
jangir_rajesh