मंगलवार, 17 अगस्त 2010

कश्मीर को क्या चाहिए

कुमार प्रशांत
एक तरफ कश्मीर उबल रहा है, लोग मर और मार रहे हैं, शेष भारत से उनका जुड़ाव कम से कम होता जा रहा है, पाकिस्तान इसका फायदा उठाने में लगा है, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला बैठकें बुलाने और दिल्ली भागने से अधिक कुछ कर नहीं पा रहे। प्रधानमंत्री कश्मीर को लेकर बैठकें ही बुला रहे हैं और फारूक अब्दुल्ला बेटे की गद्दी बचाने की कोशिश से ज्यादा कोई पहल नहीं कर पा रहे। यह हमारा वह कश्मीर है, जिसे भारत का अभिन्न अंग बताने के लिए हम फेफड़े का पूरा जोर लगाते हैं, लेकिन गोली और गाली से अधिक कुछ भी खर्चने को तैयार नहीं होते। उमर अब्दुल्ला कश्मीर की किस्मत पलटने की संभावना बनकर वर्ष २००८ में आए थे। उम्र से भी, राजनीति की दकियानूसी चालों के प्रति हिकारत का भाव रखने के कारण भी और तथाकथित आधुनिक पीढ़ी के प्रतिनिधि होने के नाते भी देश ने सोचा था कि अब कश्मीर में नई पहल होगी। चुनाव में उमर को कश्मीरियों का अच्छा समर्थन मिला था। लेकिन आज वह कश्मीरी राजनीति के सबसे बदरंग पत्ते बनकर रह गए हैं। ऐसा ही उनके पिता के साथ हुआ था। ऐसा ही मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद के साथ हुआ। महबूबा मुफ्ती का तो आज हाल यह है कि वह किसी समस्या का हल नहीं, अपने आप में एक समस्या बन गई हैं।

वैसे भी, कश्मीर के बारे में हमारी राजनीतिक सोच शुरू से दिल्ली केंद्रित रही है। आज भी हम कश्मीर को राष्ट्रीय संकट के रूप में नहीं देखते। आखिर कितना नुकसान करने के बाद हमारी समझ में आएगा कि कश्मीर एक राज्य का नाम नहीं है, वह भारत जैसे बहुधर्मी-बहुभाषी देश के लिए राजनीतिक परंपरा व ढांचा बनाने की सबसे तीखी चुनौती का नाम है। बहुत संभव था कि हम कश्मीर के संदर्भ में ऐसा कुछ विकसित कर पाते! कश्मीर को यह भरोसा दिलाने की जरूरत है कि अपने राजनीतिक हित के लिए दिल्ली उसमें फेरबदल नहीं करेगी। अब भी उमर पर महबूबा की अवसरवादी राजनीतिक चालों का ज्यादा दबाव है। उमर जिस तरह से घिरते जा रहे हैं, दिल्ली उतनी ही उनके अधिकार अपने हाथ में समेटती जा रही है। रबर की मुहर जैसा मुख्यमंत्री कश्मीर को नहीं चाहिए।

कश्मीर को आज क्या चाहिए? भारत में बने रहने का राजनीतिक आधार! यह राजनीतिक भरोसा कि उसकी चुनी सरकार को दिल्ली उलटेगी नहीं; दिल्ली किसी भी राजनीतिक स्थिति की आड़ में उसे अपने कठपुतली नहीं बनाएगी; कश्मीर की स्थिति जितनी नाजुक है, उसमें यह खतरा तो केंद्र सरकार नहीं ही उठाएगी कि फौज को वापस बुला ले, लेकिन राजनीतिक दूरदर्शिता का तकाजा है कि फौज को तुरंत बैरकों में भेज दिया जाए और स्पेशल आर्मी पावर ऐक्ट को सारे देश में अप्रभावी घोषित किया जाए। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई को ढीला करने की जरूरत नहीं है, न सीमा पर ढील देने की जरूरत है और न पाकिस्तान की अनदेखी करने की जरूरत है। यह सब आसान नहीं है, लेकिन कश्मीर समस्या ही आसान नहीं है। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि राजनीतिक ईमानदारी और प्रशासनिक पारदर्शिता का माहौल बनाए बगैर आप कश्मीर में कुछ नहीं कर सकेंगे। कोई उमर अबदुल्ला इसीलिए लोगों में आशा जगाता है कि राष्ट्रीय राजनीति को निकट से जानने के कारण कश्मीर को वह राजनीतिक न्याय दिला सकता है। लेकिन वही उमर जब पुरानी राजनीतिक शैली की लकीर पीटते नजर आते हैं, तब निराशा गहरी होती है।

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