सोमवार, 23 अगस्त 2010

उत्तराखंड के जनकवि 'गिरदा' का निधन


शालिनी जोशी
पहाड़ के जल, जंगल और जमीन के सरोकारों को लेकर अपनी कविताओं के जरिए जन-जन से संवाद करने की ताकत रखने वाले मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी 'गिरदा' का निधन हो गया.

हल्द्वानी के सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज में एक ऑपरेशन के बाद रविवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली. गिरीश तिवारी 'गिरदा' का जन्म 10 सितंबर, 1942 को अल्मोड़ा के एक गांव में हुआ था. अपने ओज और अक्खड़पन के कारण वो 'गिरदा' नाम से लोकप्रिय हुए.

बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'गिरदा' लोकधुनों और लोकमंच के तो जानकार थे ही, उनके गीत चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, अलग राज्य के उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन की पहचान थे.

गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती.
मंगलेश डबराल, हिंदी कवि
उन्होंने खुद भी कई आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई.

उन्हें सुनने और देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते. लोगों को एकजुट करने की उनमें गजब की शक्ति थी.

हिंदी में उनकी एक लोकप्रिय रचना है-

अजी वाह क्या बात तुम्हारी

तुम तो पानी के व्यापारी

सारा पानी चूस रहे हो

नदी समंदर लूट रहे हो

गंगा यमुना की छाती पर कंकड़ पत्थर कूट रहे हो

उफ़ तुम्हारी ए ख़ुदग़र्ज़ी चलेगी कब तक ए मनमर्ज़ी

जिस दिन डोलेगी ए धरती

सर से निकलेगी सब मस्ती

दिल्ली देहरादून में बैठे योजनकारी तब क्या होगा

वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा.
कुमांऊनी में उनका लिखा आज हिमालै तुमुकैं धत्यूंछौ... जागो जागो हो मेरा लाल...’ एक नारे की तरह जाना जाता है.

उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे.
ज़हूर आलम, नैनीताल के रंगकर्मी
देशभर के संस्कृतिकर्मियों और लोकचेतना से जुड़े साहित्यकारों और पत्रकारों में उनके जाने से शोक की लहर है.

वरिष्ठ हिंदी कवि मंगलेश डबराल ने कहा, " गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कृतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती. उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मियों के लिए उनकी मृत्यु बड़ा आघात है."

नैनीताल के रंगकर्मी ज़हूर आलम का कहना है, " उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया, वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे."

गिरदा नैनीताल में रहे लेकिन उनके विचार और काम का फलक पूरे पहाड़ में फैला था.

आखिरी दिनों में भी वो सक्रिय रहे थे. उनकी सादगी, प्रखरता, जीवंत और जुझारू व्यक्तित्व को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.

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