शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बुरांश की लालिमा में खोए नेहरू

अपनी पहाड़ यात्रा के इस दौर में पंडित नेहरू ने प्रकृति का जी भर कर रसास्वादन किया। यह बसंत का मौसम था और जवाहर लाल पहाडिय़ों पर गुलाब की तरह खिले हुए बड़े बड़े रोडडेन्ड्रन (बुरांश) के फूलों की लालिमा में खोये हुए थे। विनोद भारद्वाज बता रहे हैं कि अपनी इस यात्रा के अंतिम चरण में  नेहरू ने किस तरह पहाड़ों कि रूमानियत और खूबसूरती को महसूस किया। वह लिखते हैं-

खाली से चार मील पंद्रह सौ फुट ऊंचाई पर बिनसर है। हम वहां गए और एक चिर स्मरणीय दृश्य देखा। हमारे सामने तिब्बत के पहाड़ों तक फैला हुआ हिमालय, हिम - माला का एक सौ छह मील का विस्तार था और इसके केंद्र स्थान पर सिर ऊंचा किए नंदा देवी खड़ी थी। इसी के विशाल विस्तार में बद्रीनाथ, केदारनाथ और कई तीर्थ स्थान हैं और इसके पास ही है मानसरोवर और कैलाश। कितना महान दृश्य था वह ! मैं इसकी दिव्यता से मंत्रमुग्ध सा होकर, चकित सा इसे एकटक देख रहा था।
मुझे ये सोचकर थोड़ा सा गुस्सा भी आया कि मैं सारे हिन्दुस्तान का चक्कर लगा आया था और दूर के बहुत से देशों की यात्राएं भी कर चुका था, लेकिन अपने ही प्रांत के एक कोने में इक्कठे इस सौंदर्य को भूला रहा। हिन्दुस्तान के कितने लोगों ने इसे देखा या इसके बारे में सुना ही है ? न जाने ऐसे कितने  हजारों लोग हैं, जो दिखावटी सजे हुए पहाड़ी मुकामों पर हर साल नाच और जुए की तलाश में जाया करते हैं।"

लगातार बीतते समय के साथ ही नेहरू अब इस चिंता में परेशान होने लगे कि उनकी छुट्टियों  के समाप्त होने का समय नजदीक आ रहा था। उनके पास कभी-कभार समाचार पत्रों के जो बंडल व चिट्ठियां आया करती थीं,  उन्हें भी वह बेमन से खोलकर देखा करते थे, लेकिन किसी प्रिय की चिट्ठी  का लालच उन्हें अपना डाक से अलग नहीं कर पाता था। तभी उन्हें हिटलर के ऑस्ट्रिया तक पहुंचने की खबर मिली और वह बैचेन होने लगे। इसी बीच इलाहाबाद में संम्प्रदायिक दंगों की सूचना ने तो उन्हें अंदर तक विचलित कर दिया । वह अनायास ही पहाड़ों के मोहपाश से बाहर आ गए । इन घटनाओं पर उन्होंने लिखा, " मैं खाली को भूल गया और भूल गया पहाड़ों और बर्फ की शिलाओं को !  मेरा शरीर तन गया और मन चंचल हो उठा। जब संसार सर्वनाश के मुख में था, उस समय मैं यहां पर्वतों के दूर कोने में पड़ा क्या कर रहा था ? लेकिन मैं कर ही क्या सकता था ? लेकिन संम्प्रदायिक दंगा !  यह कैसा  खिजाने वाला पागलपन और नीचता है, जिसने हमारे देशवासियों को समय समय पर पतन के गड्ढे में ढकेला है ?
मैं थोड़े दिन खाली में और ठहरा किंतु एक अस्पष्ट अशांति ने मेरे  दिमाग को जकड़ रखा था। फिर भी आदमी की शठता से अछूते, सुनसान और अज्ञेय  उन सफेद पहाड़ों को देखने भर से ही मुझे फिर शांति महसूस हुई।"
विचारों में खोए नेहरू ने उत्तर की सफेद पर्वत चोटियों को निहारा और उनके पावन रेखाचित्रों को अपने दिल में अंकित करके वह इस यात्रा से वापस लौटे।
(नेहरू ने इस यात्रा का वर्णन 1938 में किया)                                     समाप्त .
 
         

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

पहाड़ों से आत्म साक्षात्कार

खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।
 
हाड़ों से अपने आत्म साक्षात्कार में नेहरू आगे लिखते हैं,
..पश्चिम और दक्षिण - पूर्व  की ओर हमारे बहुत नजदीक से दो - तीन हजार फुट  नीचे गहरी घाटियां दूर के प्रदेशों में जाकर मुड़ गई थीं।उत्तर की ओर नंदा देवी और सफेद पोशाक में उसकी सहेलियां सिर ऊंचा किए खड़ी थीं। पहाड़ों के करारे  बड़े डरावने थे और लगभग सीधे कटे हुए कहींं कहीं बहुत गहराई तक चले गए थे , परन्तु उपत्यकाओं के आकार तरूण पयोधरों की तरह बहुधा गोल और कोमल थे। कहीं-कहीं वह छोटे -छोटे  टुकड़ों में बंट गए थे, जिन पर हरे-हरे खेत इंसान की मेहनत को जाहिर कर रहे थे।
सबेरा होते ही मैं कपड़े उतार कर खुले में लेट जाता और पहाड़ों का सुकुमार सूर्य मुझे अपने हल्के आलिंगन में कस लेता। ठंडी हवा से कभी -कभी मैं तनिक  कांप उठता, परंतु फिर सूर्य की किरणें मेरी रक्षा के लिए आकर मुझे गर्म और स्वस्थ कर देतीं। कभी-कभी मैं चीड़ के पेड़ों  के नीचे लेट जाता।
यहां आकर नेहरू पहाड़ों के मोहक वातावरण की तुलना इस सुरम्य वातावरण से दूर मैदानी इलाकों में चल रहे सामाजिक बदलाव,पतन व राजनीति में बढ़ती कलह से करते हैं वह कहते हैं,
पर्वतों पर सन -सन करती हुई हवा मेरे कानों में उनेक विचित्र बातें मंद - मंद कह जाती। मेरी संज्ञा  उसकी थपकियों से सो सी जाती और मस्तिष्क शीतल हो जाता।  मुझे आरक्षित  देखकर वही हवा चतुराई से नीचे मैदान में संसार के मनुष्यों के शठता भरे ढंगों, सतत चलती कलहों, उन्मादों तथा घृणाओं, धर्म के नाम  पर हठधर्मी, राजनीति में व्याभिचार  और आदर्शों से पतन की ओर संकेत करती । नेहरू सोचते कि, क्या ऐसे वातावरण में लौट कर जाना उचित है ? क्या उस तरह की मनस्थिति से पुन सम्पर्क स्थापित करना  अपने जीवन के उद्योगों को व्यर्थ कर देना नहीं है ?
यहां शांति है, नीरवता है, स्वस्थ वातावरण है और संगी -साथियों  के रूप में बर्फ है पर्वत हैं, तरह - तरह  के फूल और घने पेड़ों से लदे हुए पर्वतों के बाजू है पक्षियों का कलरव गान !

जारी........

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सूरज डूब रहा है, चोटियां चमक रही हैं

खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।
मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।

अपना अधिकांश समय राजनीति में बिताने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू की रूचि बेहद व्यापक थी। यात्राओं के प्रति उनका लगाव उन्हें अक्सर पहाड़ों की ओर खींचकर ले जाता था। पहाड़ दरअसल पं. नेहरू के स्वाभाव का हिस्सा थे। सन 19३8 में जब हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन समाप्त हो चुका था और ताप्ती नदी के किनारे पर बांसों का बना अधिवेशन स्थल सूना - सूना सा लग रहा था तो फुरसत ने नेहरू को पहाड़ों पर जाने के लिए बाध्य कर दिया।
नेहरू ने अपनी मनोस्थिति इस तरह व्यक्त की "रात के बढ़ते अंधेरे में मैं ताप्ती के बहते हुए पानी की धारा तक चला गया। मुझे यह सोचकर अफसोस सा हुआ कि अधिवेशन के लिए बनाया गया यह नगर और डेरे, जो खेतों और ऊसर भूमि पर बनाए गए थे जल्द ही गायब हो जाएंगे, और फिर उनकी यादगार ही बाकी रह जाएगी"  इस विचार से नेहरू की कहीं दूर जाने की इच्छा बलवती हो गई । उन्हें शारीरिक थकान नहीं थी, दरअसल उन्हें तब्दीली और ताजगी की भूख थी । वह राजनीति के उबाने वाले माहौल से निकलने को छटपटा रहे थे। वह उन दिनो लोगों के सवालों के जवाब तो देते समय वह भरसक नम्रतापूर्वक व्यवहार करने की कोशिश करते थे, लेकिन उनका मन कहीं और ही रहता था। वह लिखते हैं " सुदूर उत्तर के पहाड़ो की गहरी घाटियों और बर्फ से ढकी चोटियों व चीड़ व देवदार के कगारों  व हल्के ढालों पर मेरा मन विचर रहा होता। अब मैं हर तरफ से घेरे रहने वाले सवालों और समस्याओं से निकलकर कोलाहल से दूर ,शांति तथा विश्राम की एक हल्की सी सांस के लिए बेचैन हो रहा था। मैंने जल्दी से इलाहाबाद से प्रस्थान किया, बाहर निकलते ही कई समस्यायें तो मेरे मन के किसी कोने में जाकर खो गईं।
कुमाऊं की पहाडिय़ों से होकर अल्मोड़े जाने वाली चक्करदार सड़क  पर जैसे  ही हम पहुंचे, मैं तो पहाड़ी हवा की मादकता में अपने को भूल सा गया।
अल्मोड़े से आगे हम खाली तक गए और अपनी इस यात्रा के आखिरी हिस्से को मजबूत पहाड़ी खच्चरों की पीठ पर तय किया। अब मैं खाली में था, जहां पहुंचने की पिछले दो वर्षों से बेचैनी हो रही थी।"
नेहरू यहां पहाड़ों के उस मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं जो वही व्यक्ति महसूस कर सकता है जिसका लम्बे समय तक पहाड़ों से रिश्ता रहा हो। वे आगे लिखते हैं,
"सूरज डूब रहा था, पहाड़ी की चोटियां उसकी रोशनी में चमक रहीं थी और घाटियों में खामोशी छाई थी। मेरी आंखे  नंदा देवी और उसकी पर्वत मालाओं की सहचरी बर्फ से ढकी चोटियों को खोज रही थीं।
हल्के बादलों ने उन्हें छुपा लिया था। एक दिन जाता और दूसरा आता।  मैंने  जी भर कर पहाड़ी हवा का आनंद लिया और बर्फ तथा घाटियों की रंग -बिरंगी छटा को जमकर निहारा।
कितनी सुंदर तथा शांत थे वे! संसार की बुराइयां इनसे कितनी दूर और कितनी निस्सार थीं"।


(जारी..........)
खाली* (वर्तमान में इसे खाली स्टेट के नाम से जाना जाता है. जो बिन्सर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अंदर  स्थित है।)

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कत्ल होते बेजुबान, तमाशबीन हम

ये सिर्फ तस्वीरें नही हैं बल्कि  हमारे समय का भयानक सच है। और कुछ सयाने लोग इन तस्वीरों को सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट का उदाहरण कहकर भी परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन हकीकत के एक चेहरे से कुछ यूं रूबरू होइए.......
ये वाक्या है एक हिरन की मौत का..जिसे पहले तो कुत्तों ने दौड़ा दौड़ा कर मौत के करीब पहुंचा दिया उसके बाद जब उसे बचाने के लिए जंगल और जानवरों के रहनुमाओं से कहा गया तो वो अपनी रेंज का रोना रहते रहे..ये सबकुछ हुआ विश्व प्रसिद्ध कॉर्बेट नेशनल पार्क के पास बसे गांव टेड़ा में।
मामले की जानकरी जब वन्यजीव प्रेमी और वाइल्ड रेंजर्स - कॉर्बेट के नीरज उपाध्याय को मिली तो वो फौरन मौके पर पहुंचे और घायल हिरन को देखा.उस वक्त तक हिरन जीवित था लेकिन हालत बेहद नाजुक .वाइल्ड रेंजर्स ने तुंरत ही वन विभाग के उच्च अधिकारियों को दी.लेकिन फौरी कार्यवाही के बदले अधिकारी दूसरे विभाग और दूसरे का क्षेत्र होने की बात कहकर टालते रहे.इस बीच अंधेरा गहराने लगा और डूबते सूरज के साथ ही हिरन की सांसे भी थम गई। (जैसा कि मौके पर मौजूद नीरज उपाध्याय ने बताया-देखा )