खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।
पहाड़ों से अपने आत्म साक्षात्कार में नेहरू आगे लिखते हैं,
..पश्चिम और दक्षिण - पूर्व की ओर हमारे बहुत नजदीक से दो - तीन हजार फुट नीचे गहरी घाटियां दूर के प्रदेशों में जाकर मुड़ गई थीं।उत्तर की ओर नंदा देवी और सफेद पोशाक में उसकी सहेलियां सिर ऊंचा किए खड़ी थीं। पहाड़ों के करारे बड़े डरावने थे और लगभग सीधे कटे हुए कहींं कहीं बहुत गहराई तक चले गए थे , परन्तु उपत्यकाओं के आकार तरूण पयोधरों की तरह बहुधा गोल और कोमल थे। कहीं-कहीं वह छोटे -छोटे टुकड़ों में बंट गए थे, जिन पर हरे-हरे खेत इंसान की मेहनत को जाहिर कर रहे थे।
सबेरा होते ही मैं कपड़े उतार कर खुले में लेट जाता और पहाड़ों का सुकुमार सूर्य मुझे अपने हल्के आलिंगन में कस लेता। ठंडी हवा से कभी -कभी मैं तनिक कांप उठता, परंतु फिर सूर्य की किरणें मेरी रक्षा के लिए आकर मुझे गर्म और स्वस्थ कर देतीं। कभी-कभी मैं चीड़ के पेड़ों के नीचे लेट जाता।
यहां आकर नेहरू पहाड़ों के मोहक वातावरण की तुलना इस सुरम्य वातावरण से दूर मैदानी इलाकों में चल रहे सामाजिक बदलाव,पतन व राजनीति में बढ़ती कलह से करते हैं वह कहते हैं,
पर्वतों पर सन -सन करती हुई हवा मेरे कानों में उनेक विचित्र बातें मंद - मंद कह जाती। मेरी संज्ञा उसकी थपकियों से सो सी जाती और मस्तिष्क शीतल हो जाता। मुझे आरक्षित देखकर वही हवा चतुराई से नीचे मैदान में संसार के मनुष्यों के शठता भरे ढंगों, सतत चलती कलहों, उन्मादों तथा घृणाओं, धर्म के नाम पर हठधर्मी, राजनीति में व्याभिचार और आदर्शों से पतन की ओर संकेत करती । नेहरू सोचते कि, क्या ऐसे वातावरण में लौट कर जाना उचित है ? क्या उस तरह की मनस्थिति से पुन सम्पर्क स्थापित करना अपने जीवन के उद्योगों को व्यर्थ कर देना नहीं है ?
यहां शांति है, नीरवता है, स्वस्थ वातावरण है और संगी -साथियों के रूप में बर्फ है पर्वत हैं, तरह - तरह के फूल और घने पेड़ों से लदे हुए पर्वतों के बाजू है पक्षियों का कलरव गान !
जारी........