गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सूरज डूब रहा है, चोटियां चमक रही हैं

खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।
मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।

अपना अधिकांश समय राजनीति में बिताने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू की रूचि बेहद व्यापक थी। यात्राओं के प्रति उनका लगाव उन्हें अक्सर पहाड़ों की ओर खींचकर ले जाता था। पहाड़ दरअसल पं. नेहरू के स्वाभाव का हिस्सा थे। सन 19३8 में जब हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन समाप्त हो चुका था और ताप्ती नदी के किनारे पर बांसों का बना अधिवेशन स्थल सूना - सूना सा लग रहा था तो फुरसत ने नेहरू को पहाड़ों पर जाने के लिए बाध्य कर दिया।
नेहरू ने अपनी मनोस्थिति इस तरह व्यक्त की "रात के बढ़ते अंधेरे में मैं ताप्ती के बहते हुए पानी की धारा तक चला गया। मुझे यह सोचकर अफसोस सा हुआ कि अधिवेशन के लिए बनाया गया यह नगर और डेरे, जो खेतों और ऊसर भूमि पर बनाए गए थे जल्द ही गायब हो जाएंगे, और फिर उनकी यादगार ही बाकी रह जाएगी"  इस विचार से नेहरू की कहीं दूर जाने की इच्छा बलवती हो गई । उन्हें शारीरिक थकान नहीं थी, दरअसल उन्हें तब्दीली और ताजगी की भूख थी । वह राजनीति के उबाने वाले माहौल से निकलने को छटपटा रहे थे। वह उन दिनो लोगों के सवालों के जवाब तो देते समय वह भरसक नम्रतापूर्वक व्यवहार करने की कोशिश करते थे, लेकिन उनका मन कहीं और ही रहता था। वह लिखते हैं " सुदूर उत्तर के पहाड़ो की गहरी घाटियों और बर्फ से ढकी चोटियों व चीड़ व देवदार के कगारों  व हल्के ढालों पर मेरा मन विचर रहा होता। अब मैं हर तरफ से घेरे रहने वाले सवालों और समस्याओं से निकलकर कोलाहल से दूर ,शांति तथा विश्राम की एक हल्की सी सांस के लिए बेचैन हो रहा था। मैंने जल्दी से इलाहाबाद से प्रस्थान किया, बाहर निकलते ही कई समस्यायें तो मेरे मन के किसी कोने में जाकर खो गईं।
कुमाऊं की पहाडिय़ों से होकर अल्मोड़े जाने वाली चक्करदार सड़क  पर जैसे  ही हम पहुंचे, मैं तो पहाड़ी हवा की मादकता में अपने को भूल सा गया।
अल्मोड़े से आगे हम खाली तक गए और अपनी इस यात्रा के आखिरी हिस्से को मजबूत पहाड़ी खच्चरों की पीठ पर तय किया। अब मैं खाली में था, जहां पहुंचने की पिछले दो वर्षों से बेचैनी हो रही थी।"
नेहरू यहां पहाड़ों के उस मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं जो वही व्यक्ति महसूस कर सकता है जिसका लम्बे समय तक पहाड़ों से रिश्ता रहा हो। वे आगे लिखते हैं,
"सूरज डूब रहा था, पहाड़ी की चोटियां उसकी रोशनी में चमक रहीं थी और घाटियों में खामोशी छाई थी। मेरी आंखे  नंदा देवी और उसकी पर्वत मालाओं की सहचरी बर्फ से ढकी चोटियों को खोज रही थीं।
हल्के बादलों ने उन्हें छुपा लिया था। एक दिन जाता और दूसरा आता।  मैंने  जी भर कर पहाड़ी हवा का आनंद लिया और बर्फ तथा घाटियों की रंग -बिरंगी छटा को जमकर निहारा।
कितनी सुंदर तथा शांत थे वे! संसार की बुराइयां इनसे कितनी दूर और कितनी निस्सार थीं"।


(जारी..........)
खाली* (वर्तमान में इसे खाली स्टेट के नाम से जाना जाता है. जो बिन्सर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अंदर  स्थित है।)

4 टिप्‍पणियां:

Patali-The-Village ने कहा…

पहाड़ी इलाके में तो उगता सूरज और छुपता सूरज के दृश्य देखते ही बनते हैं| ऐसा लगता है मनो किसी ने बर्फ के उपर सोने की चादर डाल दी हो|

Sunil Kumar ने कहा…

Achha laga aapka vratant ugta suraj aur chhipta suraj dekhte hi banta hai

anil ने कहा…

wah....

kapil rawat ने कहा…

nice vinidji