मंगलवार, 17 मई 2011

दोस्त से कम नही हैं दरख्त



दरख्तों के लिए देहरा से अच्छी जगह और क्या  होगी। मेरे दादाजी
का घर कई तरह के दरख्तों से घिरा हुआ था : पीपल,
नीम, आम, कटहल, पपीता। वहां बरगद का एक बूढ़ा दरत भी था।
मैं इन दरख्तों के साथ ही बड़ा हुआ। इनमें से कइयों को मेरे दादाजी
ने रोपा था और उनकी व मेरी उम्र एक समान ही थी।
छुटपन में मुझे दो तरह के पेड़ सबसे ज्यादा लुभाते थे : एक तो
वे जिन पर आसानी से चढ़ा जा सकता हो और दूसरे वे जिन पर खूब
रसीले फल लगते हों। कटहल के पेड़ में कमोबेश ये दोनों ही खूबियां
थीं। कटहल के फल से बड़ा फल कोई दूसरा नहीं होता। अलबत्ता
यह मेरा पसंदीदा फल नहीं था, फिर भी उसका पेड़ बहुत बड़ा और
घना होता और उस पर आसानी से चढ़ा जा सकता था। वहीं गर्मी के
तपते दिनों में पीपल की छांव से ज्यादा सुखद और कुछ नहीं था। दिल
के आकार के पीपल के पत्ते तब भी हौले-हौले हिलते रहते हैं, जब
आकाश में बादल एक जगह दम साधे खड़े हों और दूसरे दरख्तों में
एक पत्ता भी न खड़कता हो। भारत के हर गांव में पीपल का एक न
एक पेड़ जरूर होता है और दिनभर की मेहनत-मशकत के बाद
किसानों का पीपल की छांह में पसरकर सो जाना आम बात है।
बरगद का बूढ़ा पेड़ हमारे घर के पीछे था। उसकी फैली हुई
शाखाएं और धरती को छूती जटाएं मुझे बहुत लुभाती थीं। यह पेड़
हमारे घर से भी पुराना था। उसकी उम्र मेरे दादा-दादी की उम्र से भी
अधिक थी। शायद वह मेरे शहर जितना ही उम्रदराज रहा होगा। मैं
उसकी शाखाओं में गहरी हरी पत्तियों के बीच छिप जाता था और एक
जासूस की तरह लोगों पर नजर रखा करता था। यह पेड़ अपने आपमें
एक पूरी दुनिया था। कई छोटे-बड़े जीव-जंतुओं का इस पर बसेरा था।
जब बरगद की पत्तियां  गुलाबी रंगत लिए होती थीं, तब उन पर तितलियां
डेरा डाल लेती थीं। पेड़ की पत्तियों पर गाढ़े रस की बूंदें, जिसे हम
शहद कहते थे, गिलहरियों को आकृष्ट करती थीं। मैं पेड़ की शाखाओं
में छिपकर बैठा रहता था और गिलहरियां कुछ समय बाद मेरी उपस्थिति
को लेकर सहज हो जाती थीं। जब उनकी हिमत बढ़ जाती, तो वे
मेरे पास चली आतीं और मेरे हाथों से मूंगफली के दाने खाने लगतीं।
सुबह-सुबह तोतों का एक झुंड यहां चला आता और पेड़ के चकर
लगाता रहता, लेकिन बरगद का पेड़ बारिश के बाद ही पूरे शबाब पर
आ पाता था। इस मौसम में पेड़  की टहनियों पर छोटी-छोटी बेरियां
उग आतीं, जिन्हें हम अंजीर कहा करते थे। ये बेरियां मनुष्यों के खाने
लायक नहीं होती थीं, लेकिन परिंदों का यह प्रिय भोजन थी। जब रात
घिर आती और आवारा परिंदे अपनी आरामगाह में सुस्ताने चले जाते,
तो चमगादड़ों का झुंड पेड़ के चकर काटने लगता।
मुझे जामुन का पेड़ भी बेहद पसंद था। इसके गाढ़े जामुनी रंग
के फल बारिश के दिनों में पकते थे। मैं बागबान के छोटे बेटे के साथ
जामुन के फल चुनने पहुंच जाता। हम पक्षियों की तरह जामुन खाते
थे और तब तक दम नहीं लेते थे, जब तक कि हमारे होंठों और जीभ
पर गहरा जामुनी रंग नहीं चढ़ जाता। मानसून के मौसम में जिन पेड़ों
पर बहार आ जाती थी, उनमें नीम भी शामिल है। मौसम की पहली
फुहार में ही नीम की पीली निबोलियां धरती पर गिर पड़तीं। वे राहगीरों
के पैरों से कुचलाती रहतीं और एक मीठी-भीनी-सी गंध पूरे परिवेश
में फैल जाती। नीम की पाियां हरी-पीली रंगत लिए होतीं और उनके
रंगों की खिलावट इस बहुपयोगी पेड़ के गुणों में चार चांद लगा देती
थी। नीम के गोंद और तेल का इस्तेमाल औषधि की तरह किया जाता
है। तकरीबन हर भारतीय गांव में नीम की टहनियों का इस्तेमाल दातुन
की तरह किया जाता है। नीम की पाियों में धरती की उर्वरा शति
बढ़ाने के भी गुण होते हैं।


कटहल और बरगद के पेड़ रात को भी मेहमानों की आवाजाही
से आबाद रहते थे। इन्हीं मेहमानों में से एक था ब्रेनफीवर बर्ड। इस
पक्षी का यह नाम इसलिए पड़ा, योंकि जब वह कूकता था, तो लगता
था, जैसे वह ब्रेनफीवर, ब्रेनफीवर पुकार रहा हो। उसकी यह पुकार
गर्मियों की रातों में लंबी तानकर सोने वालों की भी नींद में खलल
डालने में सक्षम थी। इस पक्षी को यह नाम ब्रितानियों ने दिया था,
लेकिन उसके और भी नाम हैं। मराठी उसे 'पावस-आला कहकर
पुकारते हैं, जिसका अर्थ होता है बारिश का मौसम आया है, लेकिन
मेरे दादाजी इस पक्षी की पुकार का अलग ही अर्थ लगाते थे। वे कहते
थे कि वास्तव में वह हम सभी से कहना चाहता है कि गर्मियां बर्दाश्त
से बाहर होती जा रही हैं, कुदरत बारिश के लिए बेचैन है।
बारिश के दिनों में बरगद के दरत पर ऐसी चिल्ल-पौं मचती कि
कुछ न पूछिए। रात को ब्रेनफीवर का कोलाहल होता तो दिन में झींगुर
एक स्वर में टर्राते। गर्मियों में ये झींगुर झाडिय़ों में छिपकर गाया करते
थे, लेकिन बारिश की पहली फुहार पड़ते ही उनका स्वर मुखर हो जाता
और वे तारसप्तक में सुरों की तान छेड़ देते। पेड़ों पर बसने वाले टिड्डे
उन कलाबाजों की तरह होते हैं, जो दिन में किसी भी समय अपनी
प्रस्तुति प्रारंभ कर सकते हैं, लेकिन उन्हें सबसे प्रिय होती हैं शामें। हरे
रंग के ये जीव बड़ी आसानी से खुद को पेड़ों की हरियाली में छुपा लेते
हैं, लेकिन एक बार किसी पक्षी की नजर उन पर पड़ जाए, तो समझिए
कि उनकी प्रस्तुति का वहीं समापन हो गया।
बारिश के भरपूर मौसम में बरगद का बूढ़ा दरत अपने आपमें
एक समूचा जलसाघर बन जाता, जहां एक के बाद एक संगीतकार
अपना हुनर पेश करने आते रहते। गर्मियों का मुश्किल मौसम खत्म
होने पर पक्षी, कीड़े-मकोड़े और गिलहरियां अपनी खुशी व्यत करते
हैं। वे मानसून की फुहारों का खुले मन से स्वागत करते हैं और उसके
लिए अपनी-अपनी भाषा में आभार जताते हैं।
मेरे हाथ में एक छोटी-सी बांसुरी है। मैं यह सोचकर उसे बजाना
शुरू कर देता हूं कि अब मुझे भी इस उत्सव में शरीक हो जाना चाहिए।
लेकिन यह या, शायद मेरी बांसुरी की कर्कश ध्वनि इन पक्षियों, कीड़े-
मकोड़ों और गिलहरियों को रास नहीं आई है। जैसे ही मैंने बांसुरी
बजानी शुरू की, वे सभी चुप्पी साधकर बैठ गए हैं।

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