रस्किन बॉन्ड
तुम नाकारा हो। न तो तुम बोलते हो, न गाते हो और न नाचते हो!’ इन शब्दों के साथ रूबी आंटी रोज अपने अभागे तोते को कोसतीं और वह बेचारा पिंजरे में बैठा बरामदे की ओर टुकुर-टुकुर ताकता रहता। यह मेरी नानी के बंगले का बरामदा था। एक जमाना था, जब लगभग हर कोई, फिर चाहे वह भारतीय हो या यूरोपियन, तोतों को पालना पसंद करता था। कुछ लोग लवबर्डस भी रखते थे। तोतों की इस खूबी के बारे में तो सभी जानते हैं कि वे नकल करना बहुत जल्दी सीख जाते हैं। पालतू तोते घर की बोली सीख जाते थे और उसे मंत्र की तरह रटते थे। इसी से एक शब्द बना है ‘तोतारटंत’। कुछ तोते बच्चों को शिक्षा देने वाले उपदेशक की भूमिका भी निभाते थे। माता-पिता तोतों को ‘पढ़ो बेटा पढ़ो’ या ‘लालच बुरी बला है’ बोलना सिखा देते थे और तोते दिनभर इन्हें रटते रहते थे। हालांकि पता नहीं, इस उपदेश का घर के शरारती बच्चों पर कितना असर पड़ता था।
अलबत्ता तोते इतनी आसानी से बोलना नहीं सीखते थे। उन्हें सिखाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती थी और धर्य भी रखना पड़ता था। तोतों को कोई वाक्य रटाने के लिए अक्सर घर के किसी सदस्य को यह जिम्मेदारी सौंप दी जाती थी कि वह दिनभर तोते के सामने बैठकर उसे दोहराता रहे। लेकिन हमारा तोता कुछ नहीं बोलता था।
रूबी आंटी ने उसे एक बहेलिये से खरीदा था, जो अक्सर हमारे घर के सामने वाली गली से गुजरता था। उसके पास कई तरह के पक्षी हुआ करते थे, फिर चाहे वह रंग-बिरंगी चिड़ियाएं हों या चहचहाने वाली मुनियाएं। बहेलिया आम पंछियों पर भी तरह-तरह के रंग पोतकर उन्हें लोगों को बेच देता था। वह कहता था कि ये खास किस्म के पक्षी हैं और लोग उसके झांसे में भी आ जाते थे। नानी और नाना दोनों को ही पक्षी पालने का कोई शौक नहीं था, लेकिन रूबी आंटी को पालतू परिंदे बहुत पसंद थे और जब वे किसी चीज को पाने की जिद ठान लेती थीं तो कोई भी उनके आड़े आने की जुर्रत नहीं करता था।
यह भी उनकी ही जिद थी कि घर में तोते पाले जाएं और उन्हें अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जाएं। लेकिन रूबी आंटी के सारे अरमान तब धरे के धरे रह गए, जब उन्हें पता चला कि वे जिस तोते को इतने शौक से खरीदकर लाई हैं, वह तो मौन व्रत धारण किए हुए है। इतना ही नहीं, ऐसा भी लगता था कि उसे रूबी आंटी की शक्ल ही पसंद नहीं थी और शायद उनके द्वारा उसे बंदी बनाए जाने के कारण ही उसने कुछ न बोलने की कसम खा ली थी।
रूबी आंटी तोते के पिंजरे से अपना चेहरा सटाकर उसे लुभाने की भरसक कोशिश करतीं। वे उसे पुचकारतीं, लेकिन वह चुपचाप एक कोने में बैठा रहता। उसकी नन्ही आंखें सिमटकर और छोटी हो जातीं, मानो वह रूबी आंटी पर आंखें तरेर रहा हो। एक बार तो उसने आंटी के चेहरे पर जोर का झपट्टा मारा और चोंच से उनके चश्मे की कमानी पकड़कर उसे नीचे पटक दिया।
इसके बाद रूबी आंटी ने उसे बहलाने-फुसलाने के सभी प्रयासों को तिलांजलि दे दी। इतना ही नहीं, उन्होंने तो उस बेचारे बेजुबान पक्षी के विरुद्ध एक अघोषित मोर्चा भी खोल दिया। वे उसे मुंह चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़तीं। वे रात-दिन उसे कोसती रहतीं और उसे गूंगा और नाकारा तोता कहतीं।
तब मैं कुल जमा दस साल का था। आखिरकार मैंने ठान लिया कि मुझे उस तोते का ख्याल रखना चाहिए। मैंने पाया कि उसे मुझसे किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं थी। मैं उसे हरी मिर्चे खिलाता और वह बड़े मजे से उन्हें खा लेता था। आम के मौसम में मैं उसे आम की फांकें खिलाता और वह उन्हें भी गपागप खा जाता। तोते को आम खिलाने के बहाने मैं भी एक-आध आम पर हाथ साफ कर लेता था।
एक दोपहर मैंने तोते को उसका लंच कराया और फिर जान-बूझकर पिंजरे का दरवाजा खुला छोड़ दिया। चंद लम्हों बाद ही उसे आजादी का स्वाद पता चल गया और उसने आम के कुंज की ओर उड़ान भर दी। तभी नाना बरामदे में आए और उन्होंने मुझसे कहा : ‘मैंने अभी-अभी तुम्हारी रूबी आंटे के तोते को उड़ते हुए देखा है।’ मैंने कंधे उचकाते हुए कहा : ‘हो सकता है, वैसे भी उसके पिंजरे का दरवाजा ठीक से लग नहीं पा रहा था। मुझे नहीं लगता अब हम उसे कभी पिंजरे के भीतर देख पाएंगे।’
यह खबर सुनकर पहले-पहल तो रूबी आंटी नाराज हुईं और कहने लगीं कि वे एक और तोता लेकर आएंगी। हमने उन्हें यह कहकर समझाने का प्रयास किया कि तोते के स्थान पर हमें एक छोटा-सा इक्वेरियम खरीदना चाहिए, जिसमें ढेर सारी गोल्डफिश हों। रूबी आंटी ने इस विचार के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित करते हुए कहा : ‘लेकिन गोल्डफिश बोलती नहीं हैं।’ नाना ने चुटकी लेते हुए कहा : ‘बोलता तो तुम्हारा तोता भी नहीं था।’ फिर उन्होंने कहा : ‘हम तुम्हें एक ग्रामोफोन खरीद देंगे, जो तुम्हारे इशारे पर दिन-रात बोलता रहेगा।’
खैर, मैंने तो सोचा था कि हम उस तोते को फिर नहीं देखेंगे, लेकिन शायद उसे अपनी हरी मिर्चो की याद सता रही होगी, इसलिए चंद दिनों बाद मैंने उसे हमारे बरामदे की दीवार पर बैठा देखा। वह अपनी गर्दन झुकाकर मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख रहा था। मैंने सहृदयता का परिचय देते हुए उसकी तरफ अपना आधा आम बढ़ा दिया। जब वह आम का मजा ले रहा था, तभी रूबी आंटी कमरे से बाहर आईं और उसे देख मारे खुशी के उछल पड़ीं : ‘देखो, मेरा तोता लौट आया!’
तोते ने उड़ान भरी और समीप ही एक गुलाब की झाड़ी पर जाकर बैठ गया। उसने रूबी आंटी को घूरकर देखा और फिर उनकी नकल करते हुए कहने लगा : ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रूबी आंटी गुस्से में लाल-पीली होकर अपने कमरे में चली गईं, लेकिन उसके बाद वह तोता अक्सर हमारे बरामदे में चला आता और रूबी आंटी को देखते ही ‘तुम नाकारा हो, तुम नाकारा हो!’ रटने लगता।
आखिरकार रूबी आंटी का तोता बोलना सीख ही गया था!