सोमवार, 10 मई 2010

क्या सोचते होंगे पहाड़?

विनोद भारद्वाज

सुबह-सुबह शिमला से निकलकर कुफ्री व फागू के घुमावदार रास्तों पर टैक्सी चलाते मंगतराम के मन में पहाड़ों के बदलते हालात को लेकर जो भाव आ रहे थे, शायद वह उन्हें मुझसे बांटना चाह रहा था। आखिर एक बेहद हरीभरी घाटी के पास गाड़ी रोककर उसने जब यह बताया कि इससे ज्यादा घनी व सुरम्य घाटी आपको हिमाचल में शायद ही देखने को मिले, तो लगा कि उसे अपनी इस धरोहर पर तो गर्व है, लेकिन इस बात की पीड़ा भी है कि पहाड़ के अन्य हिस्सों की सघनता व हरियाली अब अपना स्वरूप खोती जा रही है। वास्तव में उस घाटी को देखकर मुझे भी लगा कि जब मेजर सर विलियम लायड शिमला में भवन बनाने के लिए जमीन का जायजा ले रहे थे तो उन्होंने ठीक ही टिप्पणी की थी कि पहाड़ की हवा एक तेज की तरह मेरी धमनियों में समा गई, जिससे मुझे लगा कि मैं सबसे गहरी संकरी घाटी में कुलांचे भर सकता हूं अथवा उतनी ही आसानी से पहाड़ के दुरारोह छोरों तक फुर्ती से उछलता जा सकता हूं... आज का दिन मैं कभी नहीं भूलूंगा।



घाटी के उस मोह से निकलकर जब हम फागू की तरफ बढ़े तो पहाड़ों की बदहाली पर मंगतराम लगातार बोलता रहा। अंग्रेजों का जमाना देख चुके उन हिंदुस्तानियों की तरह वह भी अंग्रेजी राज का प्रशंसक लगा जो मानते हैं कि स्वराज तो आया पर सुराज की जगह हमारे लोकतंत्र ने अराजकता को ही जन्म दिया। इसलिए लोकराज से तो अंग्रेजों का राज ठीक था। मंगतराम को इस मुद्दे पर जब मेरा कोई साथ नहीं मिला तो वह उन इमारतों, पुलों व सड़कों के बारे में बताने लगा जो अंग्रेजों ने सौ साल से अधिक समय पहले बनवाए थे और ऐसे निर्माण आज भी अपनी आभा व मजबूती के साथ विद्यमान हैं। कुशल कार चालन और अपनी तमाम जानकारियों के साथ जब मंगतराम ने मुझे जाखू की खूबसूरत पहाड़ी पर ले जाकर खड़ा किया तो मानो मन से कई तरह की परतें हटती चली गईं। याद आया कि पंडित नेहरू अक्सर पहाड़ों के बारे में कहा करते थे कि मेरी आंखों के सामने सदैव पहाड़ों का दृश्य घूमता रहता है और वहां के खतरे भी सुहाने लगते हैं। मेरा हृदय सदैव उन शांत हिमकणों के लिए तरसता रहता है।

पहाड़ों के मौन पत्थरों की भाषा पढ़कर ही नेहरू ने कभी सन उन्नीस सौ पैंतीस में अपने एक लेख में यह भी लिखा था कि इन पत्थरों ने अपनी लंबी जिंदगी में न जाने कितनी बातें देखीं। इनके सामने बड़े-बड़े साम्राज्य गिरे, पुरानी सल्तनतों का नाश हुआ, धार्मिक परिवर्तन हुए। खामोशी से इन पहाड़ों ने यह सब देखा और हर क्रांति और बदलाव पर उसने अपनी भी पोशाक बदली। वर्षों के तूफानों को इन्होंने बर्दाश्त किया, बारिश ने उन्हें धोया, हवा ने अपने बाजुओं से उनको रगड़ा। कभी-कभी मिट्टी ने उनके बहुत से हिस्से को ढंक दिया। फिर भी बुजुर्गी और शान उनके एक-एक हिस्से से टपकती है। मालूम होता है कि उनकी रग-रग और रेशे-रेशे में हजारों वर्षों का तजुरबा भरा पड़ा है।

इतने लंबे समय तक प्रकृति के खेलों और तूफानों को बर्दाश्त करना बेहद कठिन था, लेकिन उससे अधिक कठिन था मनुष्यों की हिमाकतों व लालच को सहना। पर उन्होंने यह सब भी सहा। पहाड़ों के इन पत्थरों की खामोश निगाहों के सामने साम्राज्य खड़े हुए और गिरे, मजहब उठे और बैठे, बड़े से बड़े बादशाह, खूबसूरत से खूबसूरत औरतें, लायक से लायक आदमी चमके और फिर अपना रास्ता नापकर गायब हो गए। हर तरह की वीरता इन पत्थरों ने देखी और देखी हर तरह की नीचता और मनुष्य का कमीनापन। बड़े और छोटे, अच्छे और बुरे सब आए और चल बसे, लेकिन ये पत्थर आज भी कायम हैं। क्या सोचते होंगे ये पत्थर! जब वे आज भी अपनी ऊंचाई से देखते होंगे, बच्चों के खेल, बड़ों की लड़ाई, फरेब और बेवकूफी! हजारों सालों में आदमी ने कितना कम सीखा। कितने और दिन लगेंगे इनको अक्ल और समझ आने में? शायद मंगतराम की भी यही पीड़ा रही हो।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

WAH, KYA BAAT HAI.KEEP IT UP


MONIKA

primal ने कहा…

bahut sunder
primal

rakesh bisht ने कहा…

maza aa gya.kabhi uttranchal bhi aana.

arun ने कहा…

nice vinod g