रस्किन बॉन्ड
जब हिमालय की वादियों में कोहरा उतरता है और मानसून की बारिश पहाड़ियों को भिगो देती है, तो यह लाजिमी ही है कि जंगली पशु, पक्षी, कीट-पतंगे सिर छुपाने के लिए किसी आसरे की तलाश में निकल पड़ें। तूफान आने की स्थिति में तो किसी भी जगह से उनका काम चल जाता है।
कई बार तो जंगल में मौजूद मेरा कॉटेज भी इन वन्यजीवों के लिए सबसे आरामदेह पनाहगाह बन जाता है। हालांकि इसमें शक नहीं कि मैं भी अपने कॉटेज की तमाम खिड़कियां खुली छोड़कर भीतर आने में उनकी मदद ही करता हूं। मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें अपने घर में खूब सारी ताजा हवा अच्छी लगती है और यदि हवा के साथ कुछ परिंदे, वन्यजीव या कीड़े-मकोड़े भी भीतर चले आएं तो मुझे कोई हर्ज नहीं। बशर्ते वे मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ में न डालें।
लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि पिछली रात एक गुबरैले के कारण मेरा धीरज जवाब दे गया। वह गुबरैला सीधे मेरे पानी के जग में आ गिरा था। मैंने उसे उठाया और खिड़की से बाहर फेंक दिया। लेकिन चंद सेकंडों बाद वह फिर भुनभुनाता हुआ मेरे कमरे में आ गया और छपाक से उसी जग में जा गिरा। मैंने उसे एक दफा फिर बाहर निकाला और रात की आजादी का लुत्फ उठाने के लिए बाहर छोड़ दिया। लेकिन उसे मेरे कमरे की रोशनी और गर्माहट ज्यादा लुभा रही थी, इसलिए वह फिर भीतर आ गया और किसी हेलीकॉप्टर की तरह कमरे में चक्कर काटने लगा। वह नीचे उतरने के लिए कोई उचित जगह तलाश रहा था। मैंने जल्दी से अपने पानी के जग को ढंक दिया। आखिरकार वह जंगली डेहलिया के फूलों से भरे एक मर्तबान में जा गिरा। इस दफा मैंने उसे नहीं छेड़ा। अब वह फूलों की नर्म बिसात पर आराम फरमा सकता था।
कभी-कभी दिन के समय एक नन्हा सा परिंदा मेरे घर आ जाता है। यह गाढ़े जामुनी रंग की सारिका है, जो दाएं-बाएं फुदकती रहती है। लेकिन मेरे घर में शायद वह इतनी घबराई हुई होती है कि वह कुछ नहीं गाती। वह खिड़की के नीचे अपना बसेरा बना लेती है और बाहर बारिश को निहारती रहती है। लेकिन उसे ज्यादा नजदीकी पसंद नहीं। मैं इधर अपनी कुर्सी पर चुपचाप बैठा रहता हूं और उधर वह चिड़िया खिड़की पर बैठी रहती है। कभी-कभी वह सिर घुमाकर मेरी तरफ देख लेती है कि कहीं मैं उसके करीब आने की कोशिश तो नहीं कर रहा। बारिश थमने पर वह बाहर उड़ जाती है। बाहर जाकर ही उसका आत्मविश्वास लौट पाता है और वह गाना शुरू कर देती है। बीच-बीच में टूटता हुआ मीठा स्वर, जो वादी में गूंजता रहता है और जिसे आप कभी नहीं भूल सकते।
कभी-कभी एक गिलहरी चली आती है। खास तौर पर तब जब बलूत के पेड़ पर उसके कोटर में पानी घुस आता है। वो मुझे भली तरह पहचानती है और खाने के टुकड़ों की तलाश में बेधड़क मेरे खाने की टेबल तक चली आती है। मैं जानबूझकर उसके लिए वहां कुछ निवाले छोड़ देता हूं। अगर वह मुझसे थोड़ा और पहले मिली होती तो मैं उसे अभी तक अपने हाथों से खाना सिखा चुका होता। मुझे यह सब भाता है। मुझे पालतू जानवरों की जरूरत महसूस नहीं होती। मेरे लिए मेरे ये मेहमान ही काफी हैं।
पिछले हफ्ते जब मैं अपनी डेस्क पर बैठा एक लंबा लेख लिख रहा था, तब अचानक हल्के हरे रंग के एक टिड्डे को अपने पैड पर बैठा देख मैं चौंक गया। हम दोनों एक-दूसरे को ताकते रहे। जब मैंने उसे हल्के से धकियाया तो वह धीमे से वहां से जाने लगा। बाद में मैंने उसे विटमैन की लीव्ज ऑफ ग्रास की जिल्द का मुआयना करते हुए पाया। उसके बाद वह दो दिन तक नजर नहीं आया। दो दिन बाद वह मुझे अपनी ड्रेसिंग टेबल पर नजर आया, जहां वह खुद को एक आईने में निहार रहा था। लेकिन शायद मैं गलत हूं। वह खुद को निहार नहीं रहा था, शायद उसे लगा हो कि वहां एक और टिड्डा है और वह उससे जान-पहचान करने की कोशिश कर रहा हो।
उसके बाद मुझे अपने बगीचे में एक और टिड्डा नजर आया। वह जास्मीन की झाड़ियों में बैठा हुआ था। उसकी बाहें किसी मुक्केबाज की तरह खुली हुई थीं। मुझे लगा वह मेरे घर वाले टिड्डे को बुला रहा है। मैं भीतर गया और टिड्डे को ले आया। मैंने दोनों को साथ-साथ रख दिया। लेकिन यह क्या, उसे तो इस बगीचे वाले टिड्डे की शक्ल ही पसंद नहीं आई और वह वहां से भाग खड़ा हुआ। आईने में उसने अपनी जो शक्ल देखी थी, आखिर उससे इसकी तुलना कहां?
लेकिन मेरा सबसे दिलचस्प मेहमान रातों को आता है। और वह है एक नन्हा चमगादड़। वह कभी दरवाजे से तो कभी खिड़की से भीतर चला आता है। मैंने आज तक जितने भी चमगादड़ देखे, वे सभी ऊपर छत से लगभग सटकर उड़ते हैं। लेकिन यह नन्हा चमगादड़ काफी नीचे उड़ता है, जैसे कोई बमवर्षक विमान हो। वह मेरे फर्नीचर के नीचे तक पहुंच जाता है और कभी टेबल की टांगों के इर्द-गिर्द यहां-वहां टकराता हुआ उड़ता रहता है। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि वह मेरे कमरे में डगमगाते हुए उड़ता रहा और फिर मेरी टांगों के बीच से निकल गया!
मैंने सोचा क्या उसका रडार काम नहीं कर रहा है या वह कोई सिरफिरा चमगादड़ है? मैंने अपनी किताबों की अलमारी में प्राकृतिक इतिहास की किताबें टटोलीं और चमगादड़ों की किस्मों के बारे में जानने की कोशिश की, लेकिन मुझे इस तरह का कोई उदाहरण नहीं मिला। आखिरकार मैंने एक काफी पुरानी किताब (वर्ष 1884 में कलकत्ता से छपी स्टर्नडेल की किताब इंडियन मैमालिया) की शरण ली। और मेरी खुशी का तब कोई ठिकाना नहीं रहा, जब मुझे वहां वह चीज मिल गई, जिसकी मैं तलाश कर रहा था। किताब में साफ-साफ लिखा था कि कैप्टन हटन को मसूरी के नजदीक दक्षिणी श्रंखला पर 5500 फीट ऊंचाई पर ऐसा चमगादड़ मिला था, जो ऊंचे उड़ने की बजाय काफी नीचे उड़ा करता था। यह चमगादड़ महज 1.4 इंच का था और सामान्यत: हिमालय के दक्षिण पश्चिम में स्थित झरीपानी में पाया जाता था। वर्ष 1884 में भी इस किस्म का चमगादड़ काफी दुर्लभ ही हुआ करता था।
शायद मेरी मुठभेड़ इस प्रजाति के कुछ दुर्लभ जीवित बचे सदस्यों में से किसी एक से हो गई थी। जहां मैं रहता हूं, वहां से झरीपानी महज दो मील दूर है। मुझे खासा अफसोस हुआ कि आधुनिक प्राणीविज्ञानियों ने इस नन्हे चमगादड़ की प्रजाति पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। शायद उन्हें ये लगता है कि इस तरह की प्रजाति पहले ही विलुप्त हो चुकी है। यदि ऐसा है तो मुझे बेहद खुशी है कि मैंने उनमें से एक को ढूंढ़ निकाला। मैं खुश हूं उसे मेरे छोटे-से घर में सिर छुपाने लायक जगह मिल जाती है और मुझे भी उसके बारे में कविता या गद्य में कुछ न कुछ लिखने का मौका मिल जाता है।
लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।
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2 माह पहले
2 टिप्पणियां:
इनके लेखन के बारे में क्या कहूँ ..आभार आपका इसे यहाँ पब्लिश करने के लिए
bahut sundar hai... ekdam mere natural...nature ki tarah.
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