शनिवार, 12 जून 2010

पहाड़ की ढलानों पर

पहाड़ की

इन ढलानों पर

कपास के फाहे

की तरह गिरती है बर्फ़

और ज़िंदगी बुनती है

भविष्य के सपने।

पहाड़ की

इन ढलानों पर

अठखेलियाँ करती है चाँदनी

रात भर।

अलसायी धूप की लकीरें

डालती हैं डेरा

दिन भर।

पहाड़ की

इन ढलानों पर

बर्फ़ के पिघलते ही

महकते हैं वनफूल।

हवा के संग

गूँजते हैं लोकगीत

बजते हैं ढोल-नगाड़े

झूमते हैं देवता

ज़िंदगी चहक उठती है

पहाड़ की

इन ढलानों पर।

दूर कहीं जलती है

लालटेन

पगडंडी से होकर

ज़मीन पर उतर आता है आसमान

पहाड़ की

इन ढलानों पर


- मुरारी शर्मा

1 टिप्पणी:

नरेश चन्द्र बोहरा ने कहा…

मैंने हिमालय को सिर्फ फिल्मो में और तस्वीरों में देखा है. लेकिन ऐसा लगता है जैसे हम सबका हिमालय से बहुत गहरा नाता है, आपकी रचना हिमालय के और भी करीब ले जाती है. बहुत बहुत बधाई.