पहाड़ की
इन ढलानों पर
कपास के फाहे
की तरह गिरती है बर्फ़
और ज़िंदगी बुनती है
भविष्य के सपने।
पहाड़ की
इन ढलानों पर
अठखेलियाँ करती है चाँदनी
रात भर।
अलसायी धूप की लकीरें
डालती हैं डेरा
दिन भर।
पहाड़ की
इन ढलानों पर
बर्फ़ के पिघलते ही
महकते हैं वनफूल।
हवा के संग
गूँजते हैं लोकगीत
बजते हैं ढोल-नगाड़े
झूमते हैं देवता
ज़िंदगी चहक उठती है
पहाड़ की
इन ढलानों पर।
दूर कहीं जलती है
लालटेन
पगडंडी से होकर
ज़मीन पर उतर आता है आसमान
पहाड़ की
इन ढलानों पर
- मुरारी शर्मा
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1 माह पहले
1 टिप्पणी:
मैंने हिमालय को सिर्फ फिल्मो में और तस्वीरों में देखा है. लेकिन ऐसा लगता है जैसे हम सबका हिमालय से बहुत गहरा नाता है, आपकी रचना हिमालय के और भी करीब ले जाती है. बहुत बहुत बधाई.
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