सोमवार, 31 जनवरी 2011

हरी टोपी वाले ये बूढ़े दरख्त

 
पेड़ हमें यह अहसास कराते हैं कि हम जीवंत और युवा हैं। मजे की बात यह है कि पेड़ जितना उम्रदराज होता है, उसे देखकर हम उतना ही युवा महसूस करते हैं। जब भी मैं देहरादून की व्यस्ततम सड़क क्रॉसिंग के बीच पहरेदार की तरह खड़े इमली के उस बूढ़े दरख्त के करीब से होकर गुजरता हूं तो बीच के तमाम साल कहीं खो जाते हैं और मैं फिर से एक लड़का बन जाता हूं। मुझे लगता है कि मैं अब भी पेड़ के इर्द-गिर्द बनी रेलिंग पर बैठा हुआ हूं, जबकि सड़क के उस तरफ मेरी नानी बैंक में अपना पैसा जमा कराने के लिए उसकी सीढ़ियां चढ़ रही हैं।

वह बैंक आज भी मौजूद है, लेकिन उसके आसपास का नजारा अब बदल गया है। सबसे ज्यादा इजाफा हुआ है ट्रैफिक में। आज मैं इतनी बेपरवाही से सड़क पार करने के बारे में सोच भी नहीं सकता, जिस तरह बचपन के उन दिनों में करता था। बीते चालीस सालों में उत्तर भारत के कस्बों और शहरों की आबादी दस गुना बढ़ गई है। लेकिन इमली का वह बूढ़ा दरख्त जैसे-तैसे बच गया। जब तक वह दरख्त देहरादून की मिट्टी में जड़ें जमाए खड़ा है तब तक मेरे भीतर भी यह भरोसा जिंदा रहेगा कि मेरी अपनी जड़ें इस पुराने पहाड़ी शहर की धरती में पैवस्त हैं।

तकरीबन हर भारतीय गांव में बरगद का एक विशाल पेड़ हुआ करता है। पेड़ों की छांह में स्कूल के अध्यापक बच्चों को ककहरा सिखाते हैं। गांव के बड़े-बुजुर्ग बतियाने के लिए इन्हीं पेड़ों की शरण लेते हैं। दूर देश से आए व्यापारी भी इन पेड़ों के नीचे अपने साजो-सामान की नुमाइश कर कारोबार करते हैं। पेड़ पर गिलहरियों, चिड़ियों, चमगादड़ों और गुबरैलों का बसेरा होता है। लेकिन जैसे ही कोई गांव बढ़कर कस्बा और कस्बे से शहर बनने लगता है, ये पेड़ धीरे-धीरे खत्म होने लगते हैं। बरगद के पेड़ खूब जगह घेरते हैं और जगह की आजकल खूब किल्लत है।

यदि आपको अपने आसपास कोई बरगद का पेड़ नहीं मिलता है तो दोपहर में आराम फरमाने या शाम को चहलकदमी करने के लिए आम के किसी बाग की तलाश कीजिए। अक्सर आम के बाग प्रेमियों के मिलने की जगह होते हैं। लेकिन पके आम का मौसम है तो फिर इन बागों में तन्हाई नहीं मिलने वाली। तोते, कौए, बंदर और छोटे शैतान बच्चे, ये सभी इसी ताक में रहते हैं कि चौकीदार से नजर बचाकर आम के फल ले उड़ें। बरगद और आम के पेड़ पहाड़ों पर नहीं पाए जाते। पहाड़ों पर आम तौर पर बलूत, चीड़, देवदार और बुरुंश के दरख्त पाए जाते हैं, जो कुछ सालों में आकाश छूने लगते हैं। मसूरी में देवदार के कुछ विशालकाय पेड़ हैं। मसूरी की उम्र महज 160 साल है, जबकि यहां के देवदार के दरख्त उससे दोगुनी उम्र के हैं।

ये पेड़ मिजाज से मिलनसार होते हैं और समुदाय में रहना पसंद करते हैं। देवदार के किसी घने जंगल को निहारना एक रोमांचक अनुभव साबित हो सकता है। उसे देखकर लगता है जैसे कोई फौज मुस्तैदी से आगे बढ़ी जा रही हो। शायद देवदार के जंगल ही इकलौती ऐसी फौज होगी, जिसे हम पहाड़ों की चढ़ाई करते देखना पसंद करेंगे। अलबत्ता आज दुनिया के आधे से ज्यादा जंगल खत्म हो चुके हैं, फिर भी इन मजबूत दरख्तों को देखकर ऐसा लगता है जैसे उनका कभी कुछ न बिगड़ेगा।

दुनिया के सबसे बुजुर्गवार दरख्त कैलिफोर्निया में पाए जाते हैं। यह चीड़ों की ही एक प्रजाति है और बताया जाता है कि इस प्रजाति के पेड़ पांच हजार साल तक जीवित रहते हैं। क्या इन पेड़ों के ही कारण कैलिफोर्निया के लोग इतने नौजवान नजर आते हैं? मैंने अपने जीवन में जो सबसे बूढ़ा दरख्त देखा है, वह जोशीमठ में था। शहतूत के इस पेड़ को कल्पवृक्ष भी कहते हैं। बताया जाता है कि आदि शंकराचार्य ने ९वीं सदी में इसी दरख्त के नीचे ध्यान लगाया था।

हमारे पुराने संतों-ऋषियों को हमेशा ऐसे उपयुक्त पेड़ मिल जाया करते थे, जिनके नीचे बैठकर वे ध्यान लगा सकें। गौतम बुद्ध ने एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर साधना की थी। हिंदू संन्यासी पीपल के पेड़ों के नीचे आसन जमाकर बैठते हैं। गर्मियों में पीपल के पेड़ों से बेहतर और कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि दिल के आकार के पीपल के पत्ते हवा के हल्के से झोंके से भी हिलने लगते हैं और नीचे बैठने वाले को ठंडी हवा की सौगात देते हैं।

निजी तौर पर मैं ध्यान की बजाय चिंतन-मनन करना ज्यादा पसंद करता हूं। मुझे शहतूत के उस विशाल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाने से ज्यादा खुशी उसकी कदकाठी का अध्ययन करके होगी। अलबत्ता यह पेड़ बहुत ऊंचा नहीं है, लेकिन उसकी कमर का घेरा हैरान कर देने वाला है। उसमें तो मेरा तीन कमरों का अपार्टमेंट भी फिट हो सकता है। इस पेड़ के पीछे छोटा-सा मंदिर है, वह उसके सामने बहुत ही छोटा लगता है और उसके नीचे खेलने वाले बच्चों को देखकर तो ऐसा लगता है जैसे बिल्ली के छोटे-छोटे बच्चे यहां-वहां फुदक रहे हों।

जैसा कि मैंने कहा कि पेड़ों के नीचे बैठकर ध्यान लगाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन इसकी एक खास वजह है। मुझे नहीं पता महान ऋषियों ने कैसे साधना की होगी, लेकिन मैंने तो जब भी ध्यान लगाने की कोशिश की, कोई न कोई बंदर कहीं से निकल आता है और मुझे घूरने लगता है। या देवदार के पेड़ से होने वाली पराग कणों की बारिश मेरी कमीज खराब कर देती है। या मेरे सिर के ठीक ऊपर कोई कठफोड़वा ठक-ठक करने लगता है। मुझे लगता है, वे संत वाकई महान थे, जिनका ध्यान इस सबसे भंग न होता था। मैं तो एक प्रकृतिप्रेमी व्यक्ति हूं और मेरे पैरों पर चढ़ने की कोशिश करता कोई छोटा-मोटा कीड़ा भी मेरा ध्यान आसानी से भंग कर सकता है।

इसीलिए मैं तो ‘हरी टोपी वाले इन महाशयों’ को निहारना और उनकी सराहना करना पसंद करता हूं। खासतौर पर उम्रदराज दरख्त। इन बूढ़े पेड़ों ने कई पीढ़ियों को आते और जाते देखा है और मैं तो अभी महज 70 साल का एक लड़का हूं।

रविवार, 30 जनवरी 2011

डेयर डेविल फ्रैडी नॉक























हौसले के कदमों से बनाया रिकॉर्ड का रास्ता
बिना सुरक्षा उपकरण 10,837 फीट की ऊंचाई पर रोप वॉक करने का कारनामा कोई दिलेर ही कर सकता है।
स्विट्जरलैंड के फ्रैडी नॉक के इस कारनामे को गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में शामिल किया गया है।
फ्रैडी ने शनिवार को स्विस पर्वत माउंट कोरवॉच पर यह रिकॉर्ड कायम किया।
नॉक केबल रोप पर सिर्फ एक बेलेंसिंग स्टिक की मदद से 8,865 फीट ऊंचाई पर बने बेस स्टेशन तक आए।
दूसरे प्रयास में सफलता...
नॉक को अपने दूसरे प्रयास में सफलता मिली। इससे पूर्व वे सुबह भी प्रयास कर चुके थे, लेकिन खराब मौसम की वजह से उन्हें बीच में लौटना पड़ा।
फ्रैडी ने केबल वायर पर लगभग 5,249 फीट दूरी की वॉक की। हालांकि, उन्हें इस दौरान हवाओं से भी जूझना पड़ा
45 वर्षीय फ्रैडी 2009 में चैरिटी के लिए भी जर्मनी में बिना सुरक्षा उपकरण 3,264 लंबी रोप वॉक कर चुके हैं।
9655 फीट की ऊंचाई पर उनकी "चैरिटी वॉक" को देखने के लिए 1800 से ज्यादा दर्शक जमा हुए थे।
फ्रैडी सर्कस कलाकार हैं और वे 4 साल की ही उम्र से रोप वॉक जैसे कारनामे करते आ रहे हैं।

शनिवार, 22 जनवरी 2011

शब्दों ने की गीतों से बात : जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का शुक्रवार को आगाज हो गया। साहित्य के इस मेले में दक्षिण एशिया के करीब 150 रचनाकार, साहित्यकार, कॉर्पोरेट व फिल्म जगत की हस्तियां शरीक हो रही हैं।
पांच दिवसीय इस फेस्टिवल में 100 से अधिक सत्रों में 300 से ज्यादा सहित्यकार, गीतकार व शायर  विभिन्न विषयों पर संवाद करेंगे ।





शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

फूलों की घाटी में बरसते पत्थर

जब भी कश्मीर का जिक्र होता है, लोगों को या तो जन्नत जैसी वादियों का ख्याल आता है या हिंसक संघर्षो से रक्तरंजित घाटी का। इसी कारण जहां गरीबी, भूख, सुप्रशासन इत्यादि हमारी रोजमर्रा की बहस के केंद्र में बने रहते हैं, वहीं कश्मीर की समस्याओं को इसमें कोई जगह नहीं मिलती। आधिकारिक आंकड़े सुझाते हैं कि घाटी में गरीबी की समस्या विकट नहीं है। वर्ष 2004-05 में एक आधिकारिक आकलन में बताया गया था कि जहां देश में 28.3 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, वहीं उसी साल योजना आयोग द्वारा जम्मू कश्मीर में गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने वाले लोगों की तादाद महज 4.5 फीसदी बताई गई थी। कश्मीर देश के उन राज्यों में से है, जहां सामाजिक समानता की स्थिति अन्य प्रदेशों से बेहतर है और जहां अन्य प्रदेशों की तुलना में अधिक मुस्तैदी के साथ भूमि सुधार लागू किए गए हैं। आजादी के बाद 50 के दशक में ही कश्मीर में अतिरिक्त कृषि भूमियों को भूमिहीन किसानों को वितरित कर दिया गया था।

कुछ साल पहले मुझे कश्मीर के गांवों और झुग्गी बस्तियों में दस दिन बिताने का मौका मिला था। मैं जानना चाहता था कि घाटी में दो दशक से जारी संघर्ष का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि मुझे अपनी यात्रा के दौरान बिहार, ओडीशा, मध्यप्रदेश और झारखंड जैसी विपन्नता और गरीबी नजर नहीं आई, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता था कि घाटी में लोग अपनी आजीविका अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। आधिकारिक आंकड़ों की गहराई से जांच करने पर यह भी पता चलता है कि हालांकि जम्मू और कश्मीर में गरीबी की समस्या देश के अन्य राज्यों की तुलना में कम बताई गई है, इसके बावजूद यह राज्य गरीबी के कई अन्य आयामों के मामले में अन्य राज्यों से कहीं पीछे है। कश्मीर की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि पर आधारित है। बीते कुछ सालों में कश्मीर के कृषि उत्पादन में चिंताजनक गिरावट आई है। अनाज, सब्जियां, तिलहन सभी के उत्पादन में खासी कमी दर्ज की गई है और अब यह स्थिति आ गई है कि इन्हें देश के अन्य राज्यों से आयात करना पड़ रहा है। कालीन उद्योग के ध्वस्त होने और पर्यटकों का आकर्षण कम होने से भी कश्मीर की समस्याओं में इजाफा हुआ है। कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का महज दो तिहाई रह गई है यानी 25907 की तुलना में 17174 रुपए। कश्मीर की बेरोजगारी दर 4.21 फीसदी है, जबकि बेरोजगारी की राष्ट्रीय दर 3.09 है।

हाल ही में दिवंगत हुए समाजवादी और मानवतावादी चिंतक एलसी जैन अपनी मृत्युशैया पर भी उन कश्मीरी किशोरों को लेकर चिंतित थे जो निराशा और गुस्से में पुलिसवालों पर पथराव कर रहे थे। उनका सपना था कि इन सर्दियों में हर भारतीय यह संकल्प क्यों नहीं लेता कि वह कश्मीर में निर्मित गर्म कपड़ों का उपयोग करेगा? वे अपनी सुपरिचित करुणा और समझबूझ के साथ कहते थे, यदि इन नौजवानों को काम मिलेगा तो वे पत्थर क्यों उठाएंगे?

दो दशक लंबे संघर्ष ने कश्मीर में स्थानीय प्रशासन की सामान्य कार्यप्रणाली पर गहरा असर डाला है। वहीं इसने सरकारी अधिकारियों को अपने नाकारापन के लिए एक बहाना भी दे दिया है। दो दशक से पंचायत चुनाव न हो पाना तो यही बताता है कि लोगों के पास उनके द्वारा निर्वाचित स्थानीय जनप्रतिनिधि नहीं हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान विभिन्न खाद्य एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के अमल को पहुंचा है, जो इस क्षेत्र के गरीबों और वंचितों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए हमने एक सर्वेक्षण कर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की। इसके लिए हमने विद्यार्थियों और कश्मीर विश्वविद्यालय श्रीनगर के सामाजिक कार्य विभाग के पूर्व छात्रों की मदद ली, जिनका नेतृत्व मेरे युवा साथी तनवीर अहमद डार ने किया।

शोधकर्ताओं को गांवों में पांच लोग भी ऐसे न मिले, जिनके पास रोजगार कार्ड हों। जिनके पास कार्ड थे, वे भी वर्षभर में औसतन सात दिन से अधिक का रोजगार नहीं पा सके थे। कई अधिकारी दावा करते हैं कि घाटी में सार्वजनिक वेतन रोजगार की कोई मांग ही न थी, लेकिन जब वेतन बढ़ाकर ११क् रुपए प्रतिदिन किया गया तो रोजगार की मांग में खासी बढ़ोतरी देखी गई। दूसरी तरफ मात्र छह फीसदी पात्र महिलाओं को मातृत्व सेवाओं के लाभ दिए जा सके हैं। वृद्धावस्था पेंशन योजना की स्थिति इससे थोड़ी बेहतर कही जा सकती है, क्योंकि घाटी में ३५ फीसदी पात्र बुजुर्ग पेंशन पा रहे हैं। पेंशन की दरें कम हैं और उन्हें नियमित रूप से बांटा जाता है। लेकिन यही बात खाद्य सुरक्षा की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में नहीं कही जा सकती। शोधकर्ताओं ने पाया कि अंदरूनी देहाती क्षेत्रों में भी राशन की दुकानें हैं, लेकिन ये दुकानें माह में केवल एक या दो दिन खुलती हैं। जबकि राशन कार्ड मात्र चार फीसदी से भी कम लोगों के पास पाए गए। बहुत से लोग अपने हिस्से का राशन नहीं ले पाते हैं। बताया जाता है कि बचा हुआ राशन ब्लैक मार्केट में पहुंच जाता है।

शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि जम्मू और कश्मीर के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कई सरकारी एजेंडों को अमल में नहीं लाया जा सका है। जहां एक तरफ कश्मीर घाटी में जारी सैन्य संघर्ष का न्यायोचित और शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए सरकार और अवाम दोनों ही जूझ रहे हैं, वहीं इस खूबसूरत लेकिन संकटग्रस्त वादी के रहवासियों को पूरी गरिमा के साथ अपने अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार भी होना चाहिए। कश्मीर घाटी के रहवासियों के लिए खाद्य, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आजीविका और सुरक्षा के अधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर है। इस बार कश्मीर की यात्रा करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि वहां बड़ी लड़ाइयों के साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-मोटे युद्ध भी चल रहे हैं। सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि लोगों के संघर्षो का कोई अंत नहीं होता।

हर्ष मंदर

(लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं)