जब भी कश्मीर का जिक्र होता है, लोगों को या तो जन्नत जैसी वादियों का ख्याल आता है या हिंसक संघर्षो से रक्तरंजित घाटी का। इसी कारण जहां गरीबी, भूख, सुप्रशासन इत्यादि हमारी रोजमर्रा की बहस के केंद्र में बने रहते हैं, वहीं कश्मीर की समस्याओं को इसमें कोई जगह नहीं मिलती। आधिकारिक आंकड़े सुझाते हैं कि घाटी में गरीबी की समस्या विकट नहीं है। वर्ष 2004-05 में एक आधिकारिक आकलन में बताया गया था कि जहां देश में 28.3 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, वहीं उसी साल योजना आयोग द्वारा जम्मू कश्मीर में गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने वाले लोगों की तादाद महज 4.5 फीसदी बताई गई थी। कश्मीर देश के उन राज्यों में से है, जहां सामाजिक समानता की स्थिति अन्य प्रदेशों से बेहतर है और जहां अन्य प्रदेशों की तुलना में अधिक मुस्तैदी के साथ भूमि सुधार लागू किए गए हैं। आजादी के बाद 50 के दशक में ही कश्मीर में अतिरिक्त कृषि भूमियों को भूमिहीन किसानों को वितरित कर दिया गया था।
कुछ साल पहले मुझे कश्मीर के गांवों और झुग्गी बस्तियों में दस दिन बिताने का मौका मिला था। मैं जानना चाहता था कि घाटी में दो दशक से जारी संघर्ष का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि मुझे अपनी यात्रा के दौरान बिहार, ओडीशा, मध्यप्रदेश और झारखंड जैसी विपन्नता और गरीबी नजर नहीं आई, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता था कि घाटी में लोग अपनी आजीविका अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। आधिकारिक आंकड़ों की गहराई से जांच करने पर यह भी पता चलता है कि हालांकि जम्मू और कश्मीर में गरीबी की समस्या देश के अन्य राज्यों की तुलना में कम बताई गई है, इसके बावजूद यह राज्य गरीबी के कई अन्य आयामों के मामले में अन्य राज्यों से कहीं पीछे है। कश्मीर की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि पर आधारित है। बीते कुछ सालों में कश्मीर के कृषि उत्पादन में चिंताजनक गिरावट आई है। अनाज, सब्जियां, तिलहन सभी के उत्पादन में खासी कमी दर्ज की गई है और अब यह स्थिति आ गई है कि इन्हें देश के अन्य राज्यों से आयात करना पड़ रहा है। कालीन उद्योग के ध्वस्त होने और पर्यटकों का आकर्षण कम होने से भी कश्मीर की समस्याओं में इजाफा हुआ है। कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का महज दो तिहाई रह गई है यानी 25907 की तुलना में 17174 रुपए। कश्मीर की बेरोजगारी दर 4.21 फीसदी है, जबकि बेरोजगारी की राष्ट्रीय दर 3.09 है।
हाल ही में दिवंगत हुए समाजवादी और मानवतावादी चिंतक एलसी जैन अपनी मृत्युशैया पर भी उन कश्मीरी किशोरों को लेकर चिंतित थे जो निराशा और गुस्से में पुलिसवालों पर पथराव कर रहे थे। उनका सपना था कि इन सर्दियों में हर भारतीय यह संकल्प क्यों नहीं लेता कि वह कश्मीर में निर्मित गर्म कपड़ों का उपयोग करेगा? वे अपनी सुपरिचित करुणा और समझबूझ के साथ कहते थे, यदि इन नौजवानों को काम मिलेगा तो वे पत्थर क्यों उठाएंगे?
दो दशक लंबे संघर्ष ने कश्मीर में स्थानीय प्रशासन की सामान्य कार्यप्रणाली पर गहरा असर डाला है। वहीं इसने सरकारी अधिकारियों को अपने नाकारापन के लिए एक बहाना भी दे दिया है। दो दशक से पंचायत चुनाव न हो पाना तो यही बताता है कि लोगों के पास उनके द्वारा निर्वाचित स्थानीय जनप्रतिनिधि नहीं हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान विभिन्न खाद्य एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के अमल को पहुंचा है, जो इस क्षेत्र के गरीबों और वंचितों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए हमने एक सर्वेक्षण कर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की। इसके लिए हमने विद्यार्थियों और कश्मीर विश्वविद्यालय श्रीनगर के सामाजिक कार्य विभाग के पूर्व छात्रों की मदद ली, जिनका नेतृत्व मेरे युवा साथी तनवीर अहमद डार ने किया।
शोधकर्ताओं को गांवों में पांच लोग भी ऐसे न मिले, जिनके पास रोजगार कार्ड हों। जिनके पास कार्ड थे, वे भी वर्षभर में औसतन सात दिन से अधिक का रोजगार नहीं पा सके थे। कई अधिकारी दावा करते हैं कि घाटी में सार्वजनिक वेतन रोजगार की कोई मांग ही न थी, लेकिन जब वेतन बढ़ाकर ११क् रुपए प्रतिदिन किया गया तो रोजगार की मांग में खासी बढ़ोतरी देखी गई। दूसरी तरफ मात्र छह फीसदी पात्र महिलाओं को मातृत्व सेवाओं के लाभ दिए जा सके हैं। वृद्धावस्था पेंशन योजना की स्थिति इससे थोड़ी बेहतर कही जा सकती है, क्योंकि घाटी में ३५ फीसदी पात्र बुजुर्ग पेंशन पा रहे हैं। पेंशन की दरें कम हैं और उन्हें नियमित रूप से बांटा जाता है। लेकिन यही बात खाद्य सुरक्षा की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में नहीं कही जा सकती। शोधकर्ताओं ने पाया कि अंदरूनी देहाती क्षेत्रों में भी राशन की दुकानें हैं, लेकिन ये दुकानें माह में केवल एक या दो दिन खुलती हैं। जबकि राशन कार्ड मात्र चार फीसदी से भी कम लोगों के पास पाए गए। बहुत से लोग अपने हिस्से का राशन नहीं ले पाते हैं। बताया जाता है कि बचा हुआ राशन ब्लैक मार्केट में पहुंच जाता है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि जम्मू और कश्मीर के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कई सरकारी एजेंडों को अमल में नहीं लाया जा सका है। जहां एक तरफ कश्मीर घाटी में जारी सैन्य संघर्ष का न्यायोचित और शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए सरकार और अवाम दोनों ही जूझ रहे हैं, वहीं इस खूबसूरत लेकिन संकटग्रस्त वादी के रहवासियों को पूरी गरिमा के साथ अपने अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार भी होना चाहिए। कश्मीर घाटी के रहवासियों के लिए खाद्य, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आजीविका और सुरक्षा के अधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर है। इस बार कश्मीर की यात्रा करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि वहां बड़ी लड़ाइयों के साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-मोटे युद्ध भी चल रहे हैं। सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि लोगों के संघर्षो का कोई अंत नहीं होता।
हर्ष मंदर
(लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं)
कुछ साल पहले मुझे कश्मीर के गांवों और झुग्गी बस्तियों में दस दिन बिताने का मौका मिला था। मैं जानना चाहता था कि घाटी में दो दशक से जारी संघर्ष का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है। हालांकि मुझे अपनी यात्रा के दौरान बिहार, ओडीशा, मध्यप्रदेश और झारखंड जैसी विपन्नता और गरीबी नजर नहीं आई, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता था कि घाटी में लोग अपनी आजीविका अर्जित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। आधिकारिक आंकड़ों की गहराई से जांच करने पर यह भी पता चलता है कि हालांकि जम्मू और कश्मीर में गरीबी की समस्या देश के अन्य राज्यों की तुलना में कम बताई गई है, इसके बावजूद यह राज्य गरीबी के कई अन्य आयामों के मामले में अन्य राज्यों से कहीं पीछे है। कश्मीर की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि पर आधारित है। बीते कुछ सालों में कश्मीर के कृषि उत्पादन में चिंताजनक गिरावट आई है। अनाज, सब्जियां, तिलहन सभी के उत्पादन में खासी कमी दर्ज की गई है और अब यह स्थिति आ गई है कि इन्हें देश के अन्य राज्यों से आयात करना पड़ रहा है। कालीन उद्योग के ध्वस्त होने और पर्यटकों का आकर्षण कम होने से भी कश्मीर की समस्याओं में इजाफा हुआ है। कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का महज दो तिहाई रह गई है यानी 25907 की तुलना में 17174 रुपए। कश्मीर की बेरोजगारी दर 4.21 फीसदी है, जबकि बेरोजगारी की राष्ट्रीय दर 3.09 है।
हाल ही में दिवंगत हुए समाजवादी और मानवतावादी चिंतक एलसी जैन अपनी मृत्युशैया पर भी उन कश्मीरी किशोरों को लेकर चिंतित थे जो निराशा और गुस्से में पुलिसवालों पर पथराव कर रहे थे। उनका सपना था कि इन सर्दियों में हर भारतीय यह संकल्प क्यों नहीं लेता कि वह कश्मीर में निर्मित गर्म कपड़ों का उपयोग करेगा? वे अपनी सुपरिचित करुणा और समझबूझ के साथ कहते थे, यदि इन नौजवानों को काम मिलेगा तो वे पत्थर क्यों उठाएंगे?
दो दशक लंबे संघर्ष ने कश्मीर में स्थानीय प्रशासन की सामान्य कार्यप्रणाली पर गहरा असर डाला है। वहीं इसने सरकारी अधिकारियों को अपने नाकारापन के लिए एक बहाना भी दे दिया है। दो दशक से पंचायत चुनाव न हो पाना तो यही बताता है कि लोगों के पास उनके द्वारा निर्वाचित स्थानीय जनप्रतिनिधि नहीं हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान विभिन्न खाद्य एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के अमल को पहुंचा है, जो इस क्षेत्र के गरीबों और वंचितों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसीलिए हमने एक सर्वेक्षण कर जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की। इसके लिए हमने विद्यार्थियों और कश्मीर विश्वविद्यालय श्रीनगर के सामाजिक कार्य विभाग के पूर्व छात्रों की मदद ली, जिनका नेतृत्व मेरे युवा साथी तनवीर अहमद डार ने किया।
शोधकर्ताओं को गांवों में पांच लोग भी ऐसे न मिले, जिनके पास रोजगार कार्ड हों। जिनके पास कार्ड थे, वे भी वर्षभर में औसतन सात दिन से अधिक का रोजगार नहीं पा सके थे। कई अधिकारी दावा करते हैं कि घाटी में सार्वजनिक वेतन रोजगार की कोई मांग ही न थी, लेकिन जब वेतन बढ़ाकर ११क् रुपए प्रतिदिन किया गया तो रोजगार की मांग में खासी बढ़ोतरी देखी गई। दूसरी तरफ मात्र छह फीसदी पात्र महिलाओं को मातृत्व सेवाओं के लाभ दिए जा सके हैं। वृद्धावस्था पेंशन योजना की स्थिति इससे थोड़ी बेहतर कही जा सकती है, क्योंकि घाटी में ३५ फीसदी पात्र बुजुर्ग पेंशन पा रहे हैं। पेंशन की दरें कम हैं और उन्हें नियमित रूप से बांटा जाता है। लेकिन यही बात खाद्य सुरक्षा की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में नहीं कही जा सकती। शोधकर्ताओं ने पाया कि अंदरूनी देहाती क्षेत्रों में भी राशन की दुकानें हैं, लेकिन ये दुकानें माह में केवल एक या दो दिन खुलती हैं। जबकि राशन कार्ड मात्र चार फीसदी से भी कम लोगों के पास पाए गए। बहुत से लोग अपने हिस्से का राशन नहीं ले पाते हैं। बताया जाता है कि बचा हुआ राशन ब्लैक मार्केट में पहुंच जाता है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि जम्मू और कश्मीर के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कई सरकारी एजेंडों को अमल में नहीं लाया जा सका है। जहां एक तरफ कश्मीर घाटी में जारी सैन्य संघर्ष का न्यायोचित और शांतिपूर्ण समाधान खोजने के लिए सरकार और अवाम दोनों ही जूझ रहे हैं, वहीं इस खूबसूरत लेकिन संकटग्रस्त वादी के रहवासियों को पूरी गरिमा के साथ अपने अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार भी होना चाहिए। कश्मीर घाटी के रहवासियों के लिए खाद्य, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आजीविका और सुरक्षा के अधिकार सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर है। इस बार कश्मीर की यात्रा करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि वहां बड़ी लड़ाइयों के साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-मोटे युद्ध भी चल रहे हैं। सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि लोगों के संघर्षो का कोई अंत नहीं होता।
हर्ष मंदर
(लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं)
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