मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

पहाड़ों के साथ एक सफरनामा:रस्किन बॉन्ड


धुंध, कोहरा, बादल और बारिश। तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले जब अंग्रेजों ने हिमालय की तराई में माकूल जगहों की तलाश शुरू की थी, तब शायद उन्हें इन्हीं चीजों का सामना करना पड़ा होगा। शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग, डलहौजी, नैनीताल - ये सभी जगहें मानसून से भीगी हुई थीं। सर्दियों में यहां घना कोहरा छा जाता था। बलूत और देवदार के दरख्तों से ओस बारिश की तरह टपकती थी। इन्हें देखकर उन्हें निश्चित ही अंग्रेज हब्शियों या स्कॉटलैंड के पहाड़ी लोगों के रहने के ठिकानों की याद हो आई होगी।

मैं इन पहाड़ों में लगभग तीस मानसून गुजार चुका हूं। हर साल मुझे किसी तय नियम की तरह अपनी किताबों और इकलौते सूट से फफूंद साफ करनी पड़ती। फिर मैंने सोचा कि मुझे बादलों के इस देश को कुछ समय के लिए विदा कह देना चाहिए और टिहरी गढ़वाल के भुवनेश्वरी महिला आश्रम में सिरिल रफायल की मेहमाननवाजी मंजूर कर लेनी चाहिए। मैंने हमेशा यही सोचा था कि पांच या छह हजार फीट की ऊंचाई पर रहना सेहत के लिए सबसे अच्छा है, लेकिन शायद मैं पूर्वग्रहग्रस्त था। मैं कसौली में जन्मा, जहां देवदारों की तुलना में चीड़ के दरख्त ज्यादा हैं।

टिहरी के अंजनी साइन की ऊंचाई भी तकरीबन इतनी ही है और यहां दिनभर धूप पहाड़ों पर आराम करती है। भोजन और पानी की शुद्धता को देखते हुए कहा जा सकता है कि सेहत के लिए यह भी एक बहुत अच्छी जगह है। बहुत से लोगों का मानना है कि गढ़वाल गरीबी से ग्रस्त इलाका है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यहां रहने वाले लगभग हर व्यक्ति के पास थोड़ी-बहुत जमीन है और सभी को खाने के लिए रोटी नसीब होती है। अलबत्ता यह जरूर है कि यहां स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत कम हैं।

जलवायु और आर्थिक, दोनों ही नजरियों से यह इलाका महत्वपूर्ण है। यहां हरे मैदान और आम के दरख्त हैं। अंजनी साइन के छोटे-से बाजार में बैंक, पोस्ट ऑफिस और दवाइयों की दुकान है। आम तौर पर यह इलाका खामोशी की चादर ओढ़े रहता है। आश्रम में मुझे बहुत जल्दी खाना मिल जाता था। मांडवे की मोटी रोटियां, जो मेरे जैसे प्राणी के लिए दो ही बहुत थीं। साथ ही खालिस दूध की गिलासभर चाय, जिसे सुड़क जाने के बाद देर रात तक भूख नहीं लगती थी। अंजनी साइन में देवी चंद्रवदनी का मंदिर है, लेकिन यहां इतनी संख्या में श्रद्धालु नहीं आते। मंदिर के पास ही एक रेस्ट हाउस भी है।

टिहरी और देवप्रयाग के ठीक बीच में बसा है अंजनी साइन। इन दोनों ही जगहों से दो घंटे की बस यात्रा कर यहां पहुंचा जा सकता है। मैं टिहरी होता हुआ यहां पहुंचा था। मुझे बताया गया था कि यह समूचा इलाका पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील है। ये वे शब्द हैं, जो दुनियाभर में होने वाले पर्यावरण सेमिनारों में बार-बार दोहराए जाते हैं। खैर, मैं पर्यावरण मामलों का विशेषज्ञ नहीं हूं, (और मैं यह भी सोचता हूं कि क्या वाकई कोई पर्यावरण मामलों का विशेषज्ञ हो सकता है?) लेकिन मुझे लगता है कि वास्तव में हमारी पूरी धरती ही पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील है। आखिर वह हजारों वर्षो से मानव सभ्यता के अभियानों की साक्षी जो रही है।

क्या पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सभी विकास कार्यो को तिलांजलि दे दी जानी चाहिए? या हमें इन बातों की परवाह नहीं करनी चाहिए? कोई भी समझदार व्यक्ति यही कहेगा कि हमें विकास करना चाहिए, पर सावधानीपूर्वक। लेकिन मैं सोचता हूं कि क्या वाकई मनुष्य समझदार हो सकते हैं? पुराने टिहरी को कोई बहुत खूबसूरत जगह नहीं कहा जा सकता और तेजी से बढ़ रहे नए टिहरी की स्थिति तो इससे भी बदतर है। जब दिल्ली के उपनगरीय इलाकों के शिल्पकारों के हाथों में इन पहाड़ी शहरों की बागडोर सौंप दी जाएगी तो भला और क्या उम्मीद की जा सकती है?

एक यात्री के रूप में मेरे लिए संतोष की बात यही रही कि पहाड़ों की बदहाली के ये दृश्य कुछ देर बाद पीछे छूट गए और मैंने अपने आपको चीड़ के दरख्तों के बीच पाया। खपरैलों की छतों वाले घरों व गेंदे और गुलदाउदी के फूलों से लदे-फदे बाग-बगीचे देखकर मन को राहत मिली। गुलदाउदी के पौधे इस जलवायु में बहुत अच्छी तरह पनपते हैं। नीचे मैदानों में जौ के ताजे हरे पौधों के साथ चोलाई की लाल रंगतें आपस में घुल-मिल गई सी लगती हैं।

और तेंदुओं का क्या कहना! मेरे साथी मुझे एक ऐसे तेंदुए के बारे में इत्तला देते हैं, जो हर शाम मोटर गाड़ी के रास्ते पर टहलता पाया जाता है और जिसकी वजह से बसों को एहतियात के साथ आगे बढ़ना पड़ता है। अक्सर उसके कारण बसों को अपना रास्ता भी बदलना पड़ता है। अगर इस इलाके में आवारा कुत्ते नजर नहीं आते तो इसके लिए भी वे तेंदुआ महाशय ही जिम्मेदार हैं।

सहसा मुझे दूर एक चीज नजर आती है। यह क्या है? कोई बादल का टुकड़ा या कोई बड़ा-सा सफेद जहाज? नहीं, यह तो भुवनेश्वरी महिला आश्रम की सफेद इमारत है, जो पहाड़ की ढलान पर खड़ी है। मैं दो या तीन दिन यहां आराम करता हूं और आश्रम की गतिविधियों को गौर से देखता रहता हूं। यह आश्रम मुख्यत: विधवा महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए काम करता है। मुझे इस आश्रम की युवा महिलाओं द्वारा उत्तरकाशी में आए भूकंप के दौरान किए गए राहत कार्य याद हो आते हैं। ये महिलाएं सरकारी एजेंसियों से भी पहले भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच गई थीं।

हालांकि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में निहायत ही अनाड़ी हूं। मैं तो महज एक बूढ़ा जर्जर लेखक हूं, जिसकी किताबें कभी बेस्टसेलर की सूची में शुमार नहीं रहीं और जो पहाड़ों पर पर्यटकों की भीड़ से कतराकर खुद ही एक यात्रा पर चला आया है। मैं उम्मीद करता हूं कि जमीन के जादूगर और धरती के सौदागर इन पहाड़ों तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। उनकी नकली झीलें और कंक्रीट के बगीचे उन्हें ही मुबारक। मैं उन सबसे दूर सिरिल के बगीचे में इस बड़े-से सफेद गुलाब को चुपचाप निहार रहा हूं। मुझे उन वीडियो की कतई परवाह नहीं, जिन्हें दुनिया मजे से देखती है।

लेखक पद्मश्री से सम्मानित ब्रिटिश मूल के साहित्यकार हैं।

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