शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

दर-ब-दर हुए चिडिय़ों के घोंसले

बनने लगे हैं जब से मकाँ कंकरीट के
तब से हैं दर-ब-दर हुए चिडिय़ों के घोंसले
पीपल के उस दरख्त के कटने की देर थी
आबाद फि र न हो सके चिडिय़ों के घोंसले
जब से हुए हैं सूखे से खलिहान बे-अनाज
लगते हैं कुछ उदास- से चिडिय़ों के घोंसले
बढ़ता ही जा रहा है जो धरती पे दिन-ब-दिन
उस शोर-ओ-गुल में खो गये चिडिय़ों के घोंसले
पतझड़ में कुछ लुटे तो कुछ उजड़े बहार में
सपनों की बात हो गये चिडिय़ों के घोंसले
                                   - सागर पालमपुरी

1 टिप्पणी:

Navneet Sharma ने कहा…

आदरणीय भाई,
नमस्‍कार।

अपने स्‍वर्गीय पिता श्री मनोहर शर्मा साग़र पालमपुरी साहब की ग़ज़ल यहां देख कर बहुत प्रसन्‍नता हुई। सच कहूं तो कुछ भावुक भी हो गया मैं। धन्‍यवाद।

'हैलो हिमालय' भी बहुत अच्‍छा लगा। अब यहां आता रहूंगा।
नवनीत शर्मा