शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

शेखर कपूर, मेलोरी और हिमालय

जयप्रकाश चौकसे

शेखर कपूर ‘पानी’ के पहले ‘मेलोरी’ नामक फिल्म बनाने जा रहे हैं, जो जॉर्ज मेलोरी नामक साहसी अंग्रेज के हिमालय के शिखर पर पहुंचने के असफल प्रयास पर आधारित है। 1924 में मेलोरी और साथी एवरेस्ट शिखर से केवल 800 फीट की दूरी पर थे, जब बुरे मौसम ने उन्हें और साथियों को लील लिया। शायद शेखर कपूर पानी और हिमालय के रिश्ते को जानते हैं, परंतु प्रकृति पर वे कोई फिल्म त्रिवेणी नहीं बनाने जा रहे हैं, जबकि विचार उत्तम हो सकता है। आज पूरी दुनिया की सबसे बड़ी चिंता प्रकृति का संरक्षण है और पानी तथा प्रदूषण इसी व्यापक चिंता का हिस्सा हैं।

संरक्षण का जतन कितना आसान और कठिन भी है, क्योंकि मनुष्य सादगी, किफायत और सदाचार को भूल गया है। क्या हर एक व्यक्ति एक झाड़ लगाकर उसकी सेवा नहीं कर सकता? न जाने यह सरल चीज इतनी कठिन क्यों हो गई है?

बहरहाल शेखर कपूर के साथ जूलिया रॉबर्ट्स भी ‘मेलोरी’ में सहयोगी हैं। उन्हें 1924 में इंग्लैंड के वातावरण को बनाना होगा, जो इसलिए आसान है कि उस देश ने परिवर्तन के साथ अपनी पारंपरिक विरासत को कम से कम एक कोने में संभालकर रखा है। हमारी तरह दूसरे लोग अपनी विरासत के प्रति इतने लापरवाह और उदासीन नहीं हैं। हिमालय अपने आप में अनेक कहानियां समेटे हुए हैं, बल्कि वह स्वयं एक महाकाव्य है।

बर्फ से आच्छादित हिमालय जीवन के रहस्य की तरह अबूझ पहेली है। दुनिया के अन्य इसी तरह के विशाल हिम आच्छादित पहाड़ भी सौंदर्य के धनी हैं, परंतु उनके साथ धार्मिक आख्यान नहीं जुड़े हैं। वैदिक सभ्यता से ही हिमालय के साथ देवी-देवता जुड़े हैं। हमारे अनेक पौराणिक पात्र हिमालय में तप कर चुके हैं। इसी तरह गंगा के साथ जितनी कथाएं जुड़ी हैं, उतनी दुनिया की किसी और नदी के साथ चस्पां नहीं हैं। स्वयं गंगा हिमालय नामक महाकाव्य की ही एक उपकथा है।

मेलोरी अत्यंत साहसी थे। आज हिमालय पर चढ़ने के लिए टेक्नोलॉजी ने अनेक सुविधाएं पैदा कर दी हैं, परंतु मेलोरी के युग में इच्छाशक्ति ही एकमात्र संबल थी। इस फिल्म से जुड़ने के लिए दुनिया का हर काबिल कैमरामैन लालायित होगा, टेक्नोलॉजी ने सिनेमेटोग्राफी को भी आसान कर दिया है।

पच्चीस वर्ष पूर्व कैमरे और लाइट्स का भार उस ऊंचाई तक ले जाना असंभव था। अब सब कुछ आसान है। हिमालय अभियान साहस के साथ अध्यात्म से भी जुड़ा है। उसका सौंदर्य और उसमें अंतर्निहित खतरे आत्मा को पाप मुक्त कर सकते हैं। उसका एकांत कितना रहस्यमय होगा। दरअसल शेखर कपूर से उम्मीद है कि वे इस फिल्म को मात्र साहस कथा के रूप में नहीं प्रस्तुत करते हुए कवि हृदय से प्रस्तुत करें।

संवेदनशील मनुष्य के चिंतन में पहाड़ों और नदियों का गहरा प्रभाव होता है। नदी समय और प्रेम की तरह प्रवाहित है, तो पहाड़ मनुष्य के इरादों की तरह खड़े हैं। याद आती है श्रवण गर्ग की ‘पिता तुम एक पहाड़’ कविता - ‘वह जो पहाड़, तुमने खड़ा किया था, पत्थर के टुकड़ों को अपनी, लगातार जख्मी होती पीठ पर ढो-ढोकर, आज भी वैसा ही खड़ा है, कहीं भी कुछ नहीं बदला, सब कुछ वैसा ही है, जैसा तुम छोड़ गए थे सालों पहले।’ यह एक लंबी कविता है, जिसका आनंद इसे पूरा पढ़ने में है।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

अन्नापूर्णा चोटी पर पहली बार पहुंची महिला



द.कोरिया की ओ उन सुन ने मंगलवार को एक बार फिर महिला सशक्तीकरण में नया अध्याय जोड़ दिया। ४४ वर्षीय सुन दुनिया की पहली महिला बन गई जिन्होंने हिमालय की अन्नापूर्णा चोटी पर कदम रखा है। काबिलेगौर है कि अन्नापूर्णा चोटी की ऊंचाई आठ हजार इक्यानवे मीटर है। अन्नापूर्णा दुनिया की दस सबसे ऊंची चोटियों में शामिल है। इस कामयाबी की खुशी सुन के मुंह कुछ इस अंदाज में निकली। मेरे लिए हर चोटी नए ब्याफ्रेंड की तरह है। और यह अहसास में सिर्फ महसूस कर सकती हूं।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

हिमालय के घाव


प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड धीरे-धीरे पारिस्थिक तौर पर खोखला बनता जा रहा है. ऐसा करने का काम जनता का कोई घोषित दुश्मन नहीं बल्कि चुनी हुई सरकारें कर रही है. राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार ने केंद्र के साथ मिलकर वहां पर सैंकड़ों छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है. अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.
एक तरफ़ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है. उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ़ कंकड़ दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड़ में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी ज़रूर दिखाई देने लगता है.
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज़ से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मज़ाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना ज़रूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बड़ी छेड़छाड़ को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
इस बात का अनुमान कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान लगा सकता है कि अगर पहाड़ी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं.

सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे.
courtesy- http://nainitaali.blogspot.com

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

पहाड़ झांकता है नदी में


मनालीhttp://www.blogger.com/img/blank.gif

पहाड़ झांकता है नदी में
और उसे सिर के बल खड़ा कर देती है नदी
लहरों की लय पर
हिलाती-डुलाती, नचाती-कंपकंपाती है उसे

पानी में कांपते अपने अक्स को देखकर भी
कितना शांत निश्चल है पहाड़
हम आंकते हैं पहाड़ की दृढ़ता
और पहाड़ झांकता है अपने मन में -
अरे मुझ अचल में इतनी हलचल
सोचता है और मन ही मन बुदबुदाता है-
किसी नदी के मन में झांकने की हिम्मत न करे कोई पहाड़

-अरुण आदित्य
यह कविता मनाली शीर्षक कविता शृंखला की छह कविताओं में से एक है। वागर्थ में प्रकाशित।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

गणित में सौ में से चार

रस्किन बॉन्ड
मैं बच्चों के साथ बहुत सहज रहता हूं। एक बार स्कूल की एक नन्ही सी बच्ची ने मुझे अपनी गणित की किताब पर ऑटोग्राफ देने के लिए कहा। ‘लेकिन मैं तो गणित में फेल हो जाता था,’ मैंने कहा। ‘मैं तो सिर्फ कहानी लेखक हूं।’ ‘आपको गणित में कितने नंबर मिलते थे?’ उसने पूछा। ‘सौ में से चार नंबर।’ उस लड़की ने तिरछी नजरों से आंखें तरेरकर मुझे देखा और किताब वापस खींच ली।

ब हुत सारे लोगों के मन में ऐसी छवि बनी हुई है कि जैसे मैं किसी विशालकाय आलीशान भवन में रहता हूं, जो नौकर-चाकरों से भरा हुआ है। वे यह देखकर बहुत निराश होते हैं कि मेरा कमरा बहुत छोटा सा है, जो एक साथ बेडरूम और स्टडी दोनों का काम करता है। मेरा कमरा इस कदर किताबों से ठसाठस भरा हुआ है कि वहां मुश्किल से ही तीन या चार से ज्यादा मेहमान बैठ सकते हैं। कई बार स्कूल के ३क्-४क् बच्चे एक साथ मिलने के लिए चले आते हैं। हो सके तो मैं बच्चों को कभी लौटाता नहीं हूं। लेकिन अगर वे इतनी बड़ी संख्या में हों तो मुझे उनसे सड़क पर मिलना पड़ता है, जिससे सभी को असुविधा होती है।

लेकिन अगर मेरे पास संसाधन होते तो क्या मैं मसूरी के ज्यादा समृद्ध इलाकों में महल जैसे घर में रहना पसंद करता, जहां कोई फिल्मी सितारा या टेलीविजन का कलाकार मेरा पड़ोसी होता? मुझे शक है। तमाम उम्र मैंने एक या दो कमरे के घर में गुजारी है और मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा ताम-झाम वाले लहीम-शहीम घर की साज-संभाल कर सकता हूं। बाकी के दो कमरों पर मेरे बढ़ते हुए परिवार ने कब्जा कर लिया है, लेकिन वे इस बात का ख्याल रखते हैं कि मेरे काम में कोई दखल न पड़े। और अगर मैं डूबकर काम कर रहा होऊं या गहरी नींद में होऊं तो वे बिना बताए टपक पड़ने वाले या बिन बुलाए मेहमानों से मेरी रक्षा करते हैं।

और झूठ बोलना तो मैंने भी सीख लिया है, खासकर जब कोई मुझसे स्कूल के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनने के लिए कहता है। दो-तीन घंटे बैठकर भाषण सुनना और उसके बाद ये उम्मीद करना कि आप भी ऐसा ही एक भाषण देंगे, मेरे हिसाब से अगर नरक कुछ है तो यही है। विद्यार्थियों के लिए यह नरक है और मेरे लिए भी नरक ही है। अमूमन भाषणों के पहले या बाद में लोकनृत्य, गीत-संगीत का कार्यक्रम और नाटक होते हैं और इन सबसे यंत्रणा और भी बढ़ जाती है। स्पोर्ट डे तो और भी भयानक होते हैं।

भाषण तो आप एक बार न भी सुनें तो चलेगा, लेकिन स्पोर्ट डे में तो दिन भर तपते सूरज के नीचे बैठे रहिए। बस एक लाउडस्पीकर चिल्ला-चिल्लाकर घोषणा करता रहेगा कि नन्हे पुरुषोत्तम ने नौ इंच ऊंची छलांग में स्कूल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। आपको कुछ दिखाई भी नहीं देता कि हो क्या रहा है, क्योंकि आप मेहमानों के साथ गुपचुप बतियाने में लगे होते हैं।

पुराने धावक और खिलाड़ी कभी बिरले ही मेरे पास मुझसे मिलने के लिए आते हैं। उनमें से ज्यादातर को पचास के पहले घुटनों की तकलीफ जकड़ लेती है। पुराना टेनिस चैंपियन नंदू मेरे घर की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाता है और न ही चांद, जो पहलवान रह चुका है। युवावस्था में शरीर को जरूरत से ज्यादा चलाने और शारीरिक गतिविधियों में लगाए रखने का नतीजा यह होता है कि आगे चलकर शरीर की मशीनरी वक्त से पहले ही साथ छोड़ देती है। जैसाकि नंदू कहता है, ‘मेरा शरीर अब इस बोझ को बिलकुल झेल नहीं सकता है।’ मैं भी कोई बहुत चुस्त-दुरुस्त और फुर्तीला व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन मैं कभी कोई खिलाड़ी-विलाड़ी टाइप का भी नहीं रहा। मैराथन में एक बार मैं आखिर से दूसरे नंबर पर आया था। वही मेरे जीवन की सबसे यादगार उपलब्धि है।
यह बात थोड़ी विचित्र है, लेकिन मेरे छोटे से घर आने वाले लोगों में एक बड़ी संख्या हनीमून पर आए हुए जोड़ों की होती है। अब वे लोग मेरे पास क्यों आते हैं, पता नहीं। लेकिन वे मेरे पास आकर आशीर्वाद मांगते हैं, इसके बावजूद कि मैं कोई शादी के आशीर्वाद का विज्ञापन तो हूं नहीं। पचहत्तर साल का एक बूढ़ा, गैरशादीशुदा आदमी किसी नए विवाहित जोड़े को आशीर्वाद दे रहा है? शायद उन सभी के मन में ये छवि होगी कि मैं कोई ब्रrाचारी हूं। लेकिन अगर मैं ब्रrाचारी भी होऊं तो उससे उन्हें क्या फायदा होने वाला है?

ऐसा मुश्किल से ही होता है कि मेरे यहां आने वाले जोड़ों में कोई पाठक या पुस्तक प्रेमी हो। फिर एक लेखक को क्यों चुनना भला और वह भी ऐसा लेखक, जो कभी किसी पूजा-प्रार्थना वाली जगह पर नहीं जाता।

खैर जो भी हो, चूंकि ये सभी जोड़े बेहद आकर्षक होते हैं, अपने और समूची मानवता के भविष्य के लिए उदात्त सुंदर उम्मीदों से भरे हुए, इसलिए उन सबसे बात करके मुझे बहुत खुशी होती है। मैं खुश हूं और उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं। और अगर यही वह आशीर्वाद है, जिसकी वे मुझसे कामना करते हैं तो उनका बहुत-बहुत स्वागत है। मेरा हाथ किसी संत-महात्मा या साधु का हाथ नहीं है, लेकिन फिर भी कम-से-कम उन हाथों के इरादे बहुत नेक हैं। कई बार ऐसा भी हुआ है, जब लोगों ने मुझे कुछ और ही समझ लिया है। जब मेरी पहचान कुछ और ही हो गई।

‘क्या आप श्रीमान पिकविक (चार्ल्ड डिकेंस के पहले उपन्यास द पिकविक पेपर्स का एक पात्र) हैं?’ एक बार एक छोटे से लड़के ने मुझसे पूछा। कम-से-कम वह लड़का डिकेंस को तो पढ़ रहा था। मैंने कहा, ‘नहीं मैं उनका दूर का रिश्तेदार हूं’ और ऐसा कहकर मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करके पिकविक जैसी नजर से उस लड़के को देखा।
मैं बच्चों के साथ बहुत ही सहज रहता हूं, जो बहुत उन्मुक्त होकर और खुलकर बातें करते हैं, सिवाय उस समय के जब उनके माता-पिता भी उनके साथ होते हों अगर माता-पिता साथ हों तब तो फिर सारी बातें सिर्फ वही करते हैं।

एक थोड़ी कम अकल वाली बुद्धू किस्म की मां ने बड़े गर्व से अपने दस साल के बेटे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘मेरा बेटा स्कूल में आपकी किताब पढ़ता है। वो आपका ऑटोग्राफ लेना चाहता है।’

मैंने पूछा, ‘तुम जो किताब पढ़ रहे हो, उसका नाम क्या है?’
‘टॉम सॉयर,’ उस लड़के ने तपाक से जवाब दिया।

मैंने उसकी ऑटोग्राफ बुक में ऑटोग्राफ दिया और उस पर लिख दिया - मार्क ट्वेन। ऑटोग्राफ पाकर बच्च काफी खुश हो गया।
स्कूल में पढ़ने वाली एक बच्ची ने मुझे अपनी गणित की किताब पर ऑटोग्राफ देने के लिए कहा।
‘लेकिन मैं तो गणित में फेल हो जाता था,’ मैंने कहा। ‘मैं तो सिर्फ एक कहानी लेखक हूं।’
‘आपको गणित में कितने नंबर मिलते थे?’
‘सौ में से चार नंबर।’

उस लड़की ने तिरछी नजरों से आंखें तरेरकर मुझे देखा और किताब वापस खींच ली। मैंने एनिड ब्लिटॉन, आरके नारायण, इयान बॉथम, डैनियल डैफो, हैरी पॉटर और स्विस फैमिली रॉबिन्सन के नाम से हस्ताक्षर किए हैं। मुझे नहीं लगता कि उनमें से किसी ने भी इस बात का बुरा माना होगा।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

लकड़ी के संदूक वाला भूत



रस्किन बॉन्ड

जैसे-जैसे दिवाली निकट आती है, दिन छोटे होने लगते हैं और लंबी, ठंडी शामें भूत की कहानी सुनाने के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। ‘क्या आप भूतों में विश्वास करते हैं?’मुझसे अकसर लोग ये सवाल पूछते हैं, खासकर युवा, जो पारलौकिक शक्तियों से काफी अभिभूत रहते हैं। भले ही उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का ही बोलबाला हो।

‘मैं भूतों में वैसे तो विश्वास नहीं करता,’ मैं स्वीकार करता हूं, ‘लेकिन मैं समय-समय पर उन्हें देखता और सुनता जरूर रहता हूं।’मेरा ख्याल है हम सभी कभी न कभी भूतों के दर्शन करते ही हैं। आसपास से गुजरने वाले अजनबी चेहरे, कुछ जाने-पहचाने, लेकिन याद नहीं आते। क्या किसी पिछले जन्म में उनसे हमारा नाता था? भूत दरअसल होते क्या हैं, और वह प्रेत, जो लोगों को सपने में दिखाई देते हैं। कुछ याद आ जाते हैं, कुछ से हम पहली बार मिलने जैसे मिलते हैं।

मैं कभी-कभार भूतों की आवाज सुनता हूं। आधी रात को, जब मैं आधी नींद में होता हूं, किसी के खिड़की से टकराने और खड़खड़ाने की आवाज सुनाई देती है। कोई पतंगा, चमगादड़ या कोई गुजरती हुई आत्मा मुझे अपनी मौजूदगी का एहसास करा रही होती है। कुछ नजर नहीं आता। मैं अपना चेहरा खिड़की के कांच से टिका दूं, तब भी नहीं। और फिर हम हवा को भी तो नहीं देख सकते, हालांकि वह हमेशा मौजूद होती है। अदृश्य हवा, कभी शांत, कभी वहशी। मैं आपको उस नन्हे भूत के बारे में बताता हूं, जो मेरे दादाजी ने पकड़ा था।

जब मैं बारह या तेरस साल का था, एक बार जाड़े में मैं बोर्डिग स्कूल से वापस आया और दून में अपने दादाजी के पुराने घर में रहने के लिए गया। उन्होंने मुझे एक कमरा दे दिया। वह कमरा दरअसल मेरे अंकल केन का था। लेकिन उन्होंने उस कमरे में रहने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें पसंद नहीं था कि अजनबी आवाजों के शोर से उनकी नींद में खलल पड़े। अंकल केन दिन हो या रात, कभी भी गहरी नींद में सो सकते थे और अकसर सोते भी थे। कमरे के एक कोने में बड़ा सा लकड़ी का बक्सा रखा हुआ था, बहुत भारी और सख्त। इतना भारी कि मैं उसे मुश्किल से एक या दो इंच भी नहीं खिसका सकता था। उसमें हमेशा ताला बंद रहता था और उसकी चाबी दादी के पास रहती थी। वह चाबी दादी किसी को भी नहीं देती थीं, दादाजी को भी नहीं।उस कमरे में पहली रात तेज खटखटाहट से मेरी नींद खुल गई। मैं उठा और कमरे का दरवाजा खोला, लेकिन बाहर कोई भी नहीं था। जैसे ही मैं वापस बिस्तर पर गया, खटखटाने की आवाज फिर से आने लगी। तभी मुझे समझ में आया कि यह आवाज लकड़ी के बक्से में से आ रही थी। पूरी रात रह-रहकर वह आवाज आती और बंद हो जाती रही।

अगले दिन जब मैंने दादाजी को इसके बारे में बताया तो वे हंसे और बोले, ‘अरे वह तो हमारे घर में रहने वाला भूत है। हमें उसे पकड़कर ताले में बंद करना पड़ा। वो बहुत उत्पात मचा रहा था। वह बहुत शरारती था। जब भी जोश में होता, चीजें तोड़ता-फोड़ता रहता था। फर्नीचर उठाकर फेंकता, खिड़की-दरवाजे खुले छोड़ देता, तुम्हारी आंटी रूबी को डराता रहता था। वह दुष्ट प्रेत था। हमें उसे बक्से के अंदर बंद करना पड़ा।’‘लेकिन आपने ये किया कैसे? आपने भूत को कैसे पकड़ लिया?’

‘एक दिन वह भूत लॉन्ड्री वाली डोलची में बैठा हुआ था। वहां बैठकर वह मेरा पायजामा फाड़ने में लगा था। मैंने डोलची को एक झटके से बंद कर दिया। उसके बाद हमने प्रेत और डोलची को तुम्हारे कमरे में उस खाली ट्रंक में बंद कर दिया और उसमें हमेशा-हमेशा के लिए ताला लगा दिया। उसकी चाबी तुम्हारी दादी के पास है और वो उसे किसी को नहीं देंगी। वह कहती हैं कि उनकी बहुत कीमती क्रॉकरी खराब हो गई।’

मुझे भूत पर बड़ा तरस आया। बेचारा अंधेरे संदूक में बंद था। लेकिन जब रात में उसने बिना रुके लगातार खट-खट करना शुरू किया तो मुझे गुस्सा आ गया और मैं चिल्लाया : ‘चुप, शोर मचाने वाले बदमाश!’ और वह थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। लेकिन फिर सुबह होते-होते वह फिर से खट-खट की आवाज कर शोर मचाने लगा। मुझे ऐसा लगा कि कोई मिमियाहट जैसी आवाज में रो रहा है, ‘मुझे बाहर निकालो, प्लीज मुझे बाहर निकालो।’ कोई आश्चर्य नहीं कि अंकल केन ने इस कमरे में सोने से इनकार कर दिया था।

लेकिन मुझे इसकी आदत सी पड़ गई थी और कुछ हफ्तों के बाद जब मैं स्कूल वापस लौट गया, वह कमरा बंद पड़ा रहा। उस कैद भूत के अलावा और कोई उस कमरे का इस्तेमाल नहीं करता था। एक या दो साल बाद, जब मेरे दादाजी ने यह देश छोड़ दिया और न्यूजीलैंड जाकर बस गए तो वह अपनी संपत्ति मेरे चचेरे भाई पर्सी को सौंप गए। पर्सी एक स्वार्थी लड़का था, जिसका मुझे या अंकल केन या और किसी को भी वहां उस पुराने घर में ठहरने के लिए बुलाने का कोई इरादा नहीं था।

मुझे बाद में सुनने में आया कि दादी की चाबियां पर्सी को मिल गईं और तब उसने घर की सभी बंद आलमारियां और डिब्बे खोलकर देखे। सबसे अंत में उस लकड़ी के संदूक की बारी आई, जो अंकल केन के पुराने कमरे में रखा हुआ था। इस बात से आश्वस्त होकर कि जरूर उस ट्रंक में कीमती खजाना रखा हुआ है, पर्सी ने उस संदूक को खोलने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। लेकिन जैसे ही उसने ढक्कन उठाया, गंदी हवा का एक भभका सा उठा और पर्सी पीछे की ओर गिर पड़ा, क्योंकि किसी नाजुक लिसलिसी सी चीज ने उसे कसकर पकड़ लिया था।

पर्सी इस कमरे से उस कमरे में बदहवास भागता रहा। वह बगीचे और आम के बाग में दौड़ता फिरा। पर्सी ने अपना सामान पैक किया और बंबई चला गया, जहां उसके पास एक फ्लैट था, जिसकी खिड़की समंदर की ओर खुलती थी। लेकिन भूत उससे चिपका रहा और हर जगह उसका पीछा करता रहा। पर्सी ने अरब का रास्ता पकड़ा और समुद्री रास्ते से अफ्रीका चला गया। लेकिन वह बच नहीं पाया। आखिरी बार उसे जंजीबार के समुद्र तट पर एक पालतू झींगा मछली के साथ खेलते देखा गया और वह किसी अदृश्य साथी से बात कर रहा था। शायद वह वहीं हमेशा मौजूद रहने वाला भूत था। और उस पुराने घर का क्या हुआ? अंकल केन उस घर में रहने चले गए और बाकी जिंदगी वहां आराम से बसर की। दादाजी के बाग में पैदा होने वाले आम और पपीते से अपनी आजीविका लायक पैसे कमा लेते थे।

अब उस पुराने घर को देखने मत जाइए। इस घर के नए मालिक ने उसे बिगाड़कर रख दिया है और उस पुराने मकान की जगह पर फ्लैटनुमा डिब्बे खड़े कर दिए हैं। शायद किसी दिन वह भूत फिर से लौटकर आए, इन रहने वाले लोगों को सुधारने और सही राह पर लाने के लिए।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

मेरे एकांत के दुश्मन


रस्किन बॉन्ड
मुझे लोग अच्छे लगते हैं और हर किस्म के लोगों से मिलना पसंद भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे पास लिखने को भी कुछ न होता। लेकिन एक साथ ढेर सारे बिना बताए ही आ धमकें और लगें दरवाजा पीटने, जबकि मैं कोई कविता या कहानी लिखने में मगन होऊं या यूं ही दोपहर में आराम फरमा रहा होऊं तो मैं थोड़ा चिड़चिड़ा जाता हूं। कई बार तो उन्हें उल्टे पांव वापस लौटा देता हूं।

अपनी निजता का अधिकार कमाल की अवधारणा है और शायद पश्चिम में यह होता भी है, लेकिन पूर्वी देशों में निजता महज एक खामख्याली है। अगर मैं एकांत में रहना चाहूं तो मुझे बेशर्म झूठा बनना पड़ता है। मुझे ऐसे दिखाना पड़ता है मानो मैं शहर में हूं ही नहीं और अगर इससे भी काम न बने तो यह घोषणा करनी पड़ती है कि मुझे चेचक निकल आई है या कि गले में गांठ (मम्प्स) हो गई है या किसी नए किस्म के एशियन फ्लू ने पकड़ लिया है।

मुझे लोग अच्छे लगते हैं और हर किस्म के लोगों से मिलना पसंद भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे पास लिखने को भी कुछ न होता। लेकिन एक साथ ढेर सारे लोग धावा बोल दें, ये मुझे कुछ जंचता नहीं। और अगर वे बिना बताए ही आ धमकें और लगें दरवाजा पीटने, जबकि मैं कोई कविता या कहानी लिखने में मगन होऊं या यूं ही दोपहर में आराम फरमा रहा होऊं तो मैं थोड़ा चिड़चिड़ा जाता हूं या उनका स्वागत करने की मन:स्थिति में नहीं होता। कई बार तो उन्हें उल्टे पांव वापस लौटा देता हूं। जैसे-जैसे मैं बूढ़ा हो रहा हूं, दोपहर की नींद मेरे लिए महज आरामतलबी नहीं, एक जरूरत हो गई है।

लेकिन बड़ा विचित्र है कि लोगों को मुझे दोपहर में दो से चार के बीच ही फोन करना होता है। मेरे ख्याल से उस वक्त उनके पास करने-धरने को कुछ होता नहीं। ‘ये दोपहरी कैसे काटें?’ उनमें से कोई एक बोलेगा। ‘मुझे मालूम है, चलो बुढ़ऊ रस्किन के पास। और कुछ नहीं तो कम से कम वे कुछ जोशीली बातें करके हमारा मन ही बहलाएंगे।’ जोशीली बातें और वो भी भरी दोपहरी? सुकरात भी होते तो इस ख्याल से भाग खड़े होते।

‘माफ कीजिए, मैं आज नहीं मिल सकता।’ मैं भुनभुनाता हूं। ‘मेरी तबीयत जरा नासाज है।’(दरअसल झोला भर अजनबियों के मेरे ऊपर हमला कर देने के ख्याल भर से तबीयत कुछ ज्यादा ही नासाज हो जाती है।) ‘तबीयत ठीक नहीं? ओह, माफ कीजिए। यहां मेरी पत्नी होमियोपैथ डॉक्टर है।’ कमाल की बात है कि जाने कितने होमियोपैथी के जानकार मेरे दरवाजे आते रहते हैं। बदकिस्मती ये कि अपनी छोटी-छोटी पुड़िया वो कभी खुद पर नहीं आजमाते, जो सिर दर्द से लेकर हार्निया तक का रामबाण इलाज है। एक दिन एक परिवार बिना बुलाए आ धमका। पतिदेव आयुर्वेद के डॉक्टर थे, पत्नी होमियोपैथी की और बड़ा बेटा एलोपैथिक मेडिकल कॉलेज का विद्यार्थी।
‘आप में से कोई एक बीमार पड़ जाए तो आप क्या करते हैं? मैंने पूछा।

‘निर्भर करता है कि बीमारी क्या है।’ युवा लड़के ने कहा, ‘लेकिन हम बहुत कम बीमार पड़ते हैं। मेरी बहन योग विशेषज्ञ है।’ उसकी लहीम-शहीम बहन, उम्र बीस के आसपास, योग गुरु कम और पहलवान ज्यादा नजर आती थी। उसने मेरी तोंद का मुआयना किया। उसने देख लिया कि तोंद का आकार कुछ अच्छा नहीं था। ‘मैं आपको कुछ व्यायाम सिखा सकती हूं,’ उसने कहा, ‘लेकिन उसके लिए आपको लुधियाना आना होगा।’ मैंने राहत की सांस ली कि लुधियाना मसूरी से छह घंटे ड्राइव करने की दूरी पर है। हमने खुशी-खुशी विदा ली, लेकिन हर बार आलम ऐसा ही नहीं होता।

एक और महिला थीं, बेहद जिद्दी और इतनी लंठ कि अगर मैं ये कह दूं कि मुझे बर्ड फ्लू हो गया है, तब भी वह टस-से-मस होने वाली नहीं थीं। ‘मैं आपसे मिलना चाहती हूं,’ वह बोलीं, ‘मैंने एक उपन्यास लिखा है और मैं चाहती हूं कि आप बुकर पुरस्कार के लिए उसकी पैरवी कर दें।’ ‘वहां मेरी कोई जान-पहचान नहीं है,’ मैंने विनती की।

‘फिर नोबेल पुरस्कार कैसा रहेगा?’ मैंने एक मिनट सोचा और फिर बोला, ‘सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र में, यदि जींस, स्टेम सेल से जुड़ी चीज हो तो।’ उन्होंने मुझे यूं देखा मानो मैं कोई फटेहाल चिरकुट हूं। ‘आप मददगार नहीं हैं।’ ‘ठीक है, आप मुझे अपनी किताब पढ़ने तो दीजिए।’

‘मैंने अभी तक लिखी नहीं है।’ ‘ठीक है तो आप तब क्यों नहीं आतीं, जब किताब पूरी हो जाए? खुद को एक साल, दो साल का वक्त दीजिए, ऐसे काम जल्दी में नहीं होते।’ ऐसा कहते हुए मैंने उन्हें दरवाजे का रास्ता दिखाया। ‘आप बड़े कठोर हैं।’ उन्होंने कहा, ‘आपने मुझे भीतर आने के लिए भी नहीं पूछा। मैं खुशवंत सिंह से आपकी शिकायत करूंगी।

वे मेरे मित्र हैं। वे अपने कॉलम में आपके बारे में लिख देंगे।’ मैंने कहा, ‘अगर आप खुशवंत सिंह को जानती हैं तो मुझे क्यों परेशान कर रही हैं। वे तो नोबेल वालों, बुकर वालों, सबको जानते हैं। दरअसल सभी नामी-गिरामी लोगों से उनकी पहचान है।’ मैंने उन्हें कभी दोबारा नहीं देखा। लेकिन उन्हें मेरा नंबर मिल गया और अब वह हफ्ते में एक बार फोन करके बताती हैं कि उनकी किताब का काम अच्छा चल रहा है और वह कभी भी अपनी पांडुलिपि लेकर आ सकती हैं।

यूं ही कभी भी अपनी किताब या पांडुलिपियां लेकर धमक पड़ने वाले आगंतुकों से मैं बड़ा खौफ खाता हूं। वे मुझसे मेरी राय पूछते हैं और यदि मैं अपनी दो-टूक राय दे दूं तो उनका मुंह फूल जाता है। वैसे भी किसी होने वाले लेखक को यह कहना गलत होगा कि बेहतर है कि तुम्हारा ये संस्मरण, उपन्यास या कविताएं न ही छपें। किसी की हत्या कर देना इससे कम बड़ा गुनाह है। इसलिए मैं सुरक्षित पाला ही चुनता हूं और कहता हूं, ‘बहुत अच्छा है, लिखते रहो।’ लेकिन ये और भी खतरनाक है क्योंकि फिर तुरंत ही मुझसे प्रकाशक के एक नाम चिट्ठी के साथ-साथ किताब की भूमिका या परिचय लिखने की भी मांग कर दी जाती है। न चाहते हुए भी मैं साहित्यिक एजेंट बन जाता हूं। वो भी मुफ्त का। मैं कला और साहित्य का बड़ा हिमायती हूं और उसे बढ़ाना चाहता हूं।

लेकिन मुझे लगता है कि लेखकों को अपने प्रकाशक खुद ढूंढ़ने चाहिए और अपनी किताब की भूमिका भी खुद ही लिखनी चाहिए। इससे जुड़ी एक दुर्घटना हो चुकी है, जब मुझे एक किताब की भूमिका लिखनी पड़ी थी। किताब एक भयानक मानव भक्षक तेंदुए के बारे में थी, जो दोगादा (गढ़वाल में एक जगह) में लोगों का मांस खाना पसंद करता था। किताब के लेखक को ठीक-ठीक एक पंक्ति लिखनी भी नहीं आती थी, लेकिन किसी तरह उसने उस तेंदुए के बारे में ढेर सारी जानकारियां एक जगह जुटा ली थीं।

वो मुझे फोन कर-करके और बोल-बोलकर इतना पीछे पड़ा कि आखिरकार मैंने उस किताब की भूमिका लिख ही दी। बाद में वह एक फोटो के लिए मेरी जान खाता रहा। महीनों बाद जब किताब छपकर आई तो उसमें मेरा फोटो और उस मरे हुए तेंदुए का भी फोटो था। लेकिन स्थानीय छापेखाने वाले ने फोटो के कैप्शन उलट दिए थे। मरे हुए जानवर के नीचे लिखा था: ‘विख्यात लेखक रस्किन बॉन्ड,’ और मेरी फोटो के नीचे यह ऐतिहासिक पंक्ति लिखी थी: ‘भयानक मानव भक्षक। अपने छब्बीसवें शिकार के मारे जाने के बाद ली गई फोटो।’ दुष्ट छापेखाने वाले ने मुझे ‘सीरियल किलर’ बना दिया।