प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड धीरे-धीरे पारिस्थिक तौर पर खोखला बनता जा रहा है. ऐसा करने का काम जनता का कोई घोषित दुश्मन नहीं बल्कि चुनी हुई सरकारें कर रही है. राज्य को ऊर्जा प्रदेश बनाने का दावा करने वाली उत्तराखंड सरकार ने केंद्र के साथ मिलकर वहां पर सैंकड़ों छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाएं शुरू की हैं. बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है. अगर सभी योजनाओं पर काम पूरा हो गया तो एक दिन जल स्रोतों के लिए मशहूर उत्तराखंड में नदियों के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. इससे जो पारिस्थितिकीय संकट पैदा होगा उससे इंसान तो इंसान, पशु-पक्षियों के लिए भी अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाएगा.
एक तरफ़ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाड़ी घाटियों में ही ख़त्म होती जा रही है. अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोड़ा आगे बढ़कर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रवाह में देखना अब मुश्किल हो गया है. गंगोत्री के कुछ क़रीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व ख़त्म सा हो गया है. उस इलाक़े में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाक़ी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी. मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ़ कंकड़ दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है. लामबगड़ में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी ज़रूर दिखाई देने लगता है.
ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है. उत्तराखंड से निकलने वाली बाक़ी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज़ से शुष्क होता जा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक़ राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई क़रीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी. इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ़ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मज़ाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना ज़रूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बड़ी छेड़छाड़ को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.
इस बात का अनुमान कोई भी साधारण बुद्धि का इंसान लगा सकता है कि अगर पहाड़ी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं. पानी के नैसर्गिक स्रोत ग़ायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं पर ज़मीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुप्रयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं.
सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों में सिर्फ़ बांध ही बांध नज़र आएंगे. नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाक़े बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा. इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे.
courtesy- http://nainitaali.blogspot.com
2 टिप्पणियां:
good
nadiya surango mai...janwar pinjro mai........insaan chitio ki ghrondo se bane sahro mai........or pahad kachre ke teelo....bada darawana hai ye viksit bhavishya.......
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