सोमवार, 25 जुलाई 2011

धरती का उत्सव है बारिश

रस्किन बॉन्ड 


पानी की बूंदें नन्ही जरूर होती हैं, लेकिन वे किसी जादू के पिटारे से कम नहीं होतीं। एक मायने में ये बूंदें सीप भी हैं और मोती भी। पानी की हर बूंद सृजन और स्वयं जीवन के एक अंश का प्रतिनिधित्व करती है। जब गर्मियों के लंबे और थका देने वाले मौसम के बाद धरती पर मानसून की पहली फुहारें पड़ती हैं तो धरती के उल्लास के बारे में कुछ न पूछिए। तपिश से झुलसी धरती बारिश की हर बूंद का मनप्राण से स्वागत करती है। वह अपने तमाम रंध्रों को खोल देती है और हर बूंद से अपनी प्यास बुझाती है। वह पिछले कई माह से धूप में तप रही थी।

उसमें दरारें पड़ गई थीं और मिट्टी की नमी समाप्त हो चुकी थी। इस विषादग्रस्त धरती पर बारिश की बूंदें क्या पड़ती हैं, मानो कोई चमत्कार हो जाता है। रातोंरात जाने कहां से घास उग आती है। धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। सब कुछ नया-नया नजर आने लगता है। ऐसा लगता है जैसे धरती ने नए सिरे से जीवन की शुरुआत की हो। बारिश की पहली बूंदें पड़ने के बाद जो सौंधी महक उठती है, उसकी तुलना मनुष्य द्वारा ईजाद किए गए किसी भी इत्र से नहीं की जा सकती। उसके सामने अच्छे से अच्छा परफ्यूम भी फीका है।

बारिश धरती का उत्सव है। घास, पत्तियों, फूलों की पंखुरियों, कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों, जीव-जंतुओं और मनुष्यों के धड़कते हुए हृदय के लिए बारिश खूब सारी खुशियां लेकर आती है। बारिश की फुहार में भीगने के लिए बच्चे सड़कों पर दौड़े चले आते हैं। यहां तक कि मवेशी भी, जिन्होंने गर्मियों की लंबी दुपहरें सूखे जलस्रोतों और चरागाहों के इर्द-गिर्द भटकते हुए काटी थीं, बारिश के बाद कीचड़ में कुछ इस तरह मजे से पसर जाते हैं, जैसे कि वह स्वर्गलोक की आरामगाह हो। मानसून की मेहरबानी अगर बनी रहे तो जल्द ही नदियां और झीलें भी उफनने लगती हैं।

कुछ दिन पहले की बात है। मैं हिमालय की तराइयों में टहल रहा था कि मैंने पाया कि कई किलोमीटर तक सफर करने के बावजूद कहीं कोई बस्ती नजर नहीं आ रही है। मैं खुद को कोस रहा था कि मैं अपने साथ पानी क्यों नहीं लेकर आया। तभी मुझे फर्न की हरी-भरी झाड़ियों के पीछे कुछ हलचल नजर आई। मैंने आहिस्ता से झाड़ियां हटाईं तो देखता क्या हूं कि चट्टान के पीछे पानी का एक छोटा-सा सोता है! एक प्यासे मुसाफिर के लिए पानी का सोता अमृत की धारा से कम नहीं होता।

मैं वहां घंटों रहा और सोते से पानी की एक-एक बूंद को टपकते और नीचे बहते देखता रहा। हर बूंद से सृजनात्मकता झलक रही थी। बाद में मैंने पाया कि इस सोते से निर्मित हो रही जलधारा अन्य धाराओं के साथ मिलकर एक हहराती हुई नदी बन गई है, जो पहाड़ी रास्तों पर उछलकूद मचाती हुई नीचे मैदानों की ओर अपनी उर्वरता का वरदान लिए चली जा रही है। यह नदी किसी अन्य नदी से जाकर मिलती है और वह किसी अन्य से। विशालकाय महानदियों का जन्म इसी तरह होता है। हजारों किलोमीटर का सफर तय करने के बाद अंत में वे जाकर समुद्र में मिल जाती हैं। बूंद से सागर तक की यात्रा पूरी हो जाती है।

ताओ धर्म के प्रवर्तक और दार्शनिक लाओत्से ने कहा था : पानी की तरह हो जाओ। जो व्यक्ति पानी की तरह तरल, मृदुल और सहनशील होता है, वह किसी भी बाधा को पार कर सकता है और समुद्र तक पहुंच सकता है। पानी की तरह तरल हो जाने का अर्थ है विनम्र हो जाना, किसी से व्यर्थ विवाद न करना और चुपचाप अपनी राह पर बढ़ते चले जाना।

मसूरी हिल्स स्थित मेरे कॉटेज के बाहर एक छोटा-सा पोखर है। वह मेरे लिए अपार आनंद का स्रोत है। पोखर के पानी की सतह पर गुबरैले तैरते हैं। उनकी हलचल से पानी में तरंगें बनती हैं। तरंगों के ये जादुई घेरे फैलते रहते हैं और एक सीमा के बाद विलीन हो जाते हैं। छोटी-छोटी मछलियां छिछले पानी में दुबकी रहती हैं। कभी-कभी एक चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया पोखर पर पानी पीने आती है और एक चट्टान से दूसरी चट्टान तक फुदकती रहती है। पानी की तरंगों के खामोश संगीत के साथ यदा-कदा सुनाई दे जाने वाली मछलियों की सरसराहट और चकत्तेदार फोर्कटेल की चहचहाहट एक सुंदर और विस्मयपूर्ण संसार रचते हैं। मैं देर तक इस पोखर के समीप बैठकर यह सब निहारता रहता हूं।

एक बार मैंने पोखर के समीप एक हिरण को देखा। वह चुपचाप सिर झुकाए पोखर के पानी से अपनी प्यास बुझा रहा था। मैं सांस थामे उसे देखता रहा। मुझे डर था कि जरा-सी आहट से वह सशंकित हो जाएगा और प्यास बुझने से पहले ही वहां से दौड़ लगा देगा। मैंने अपनी ओर से शांत रहने की पूरी कोशिश की, लेकिन आखिर वही हुआ, जिसका डर था। जाने कौन-सी आहट सुनकर अचानक हिरण ने ऊपर देखा और मुझे देखकर लंबे-लंबे डग भरता हुआ वहां से रफूचक्कर हो गया।

गर्मियों के दिनों में यह पोखर तकरीबन पूरी तरह सूख जाता है। कुछ दिनों पहले तक इसमें महज इतना ही पानी था कि वह मछलियों और मेंढकों के जीवित रहने भर के लिए ही काफी था। लेकिन अब जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो तस्वीर काफी कुछ बदल चुकी है। मेरे कॉटेज की टिन की छत पर बारिश की बूंदें टपाटप बरस रही हैं। मैं बाहर झांककर देखता हूं तो पाता हूं कि आकाश से हो रही अमृतवर्षा पोखर के खाली प्याले को धीरे-धीरे भर रही है। अब यहां से प्राणी प्यासे नहीं लौटेंगे, मछलियों के लिए भी पोखर में पर्याप्त पानी होगा।

जल्द ही वह चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया यहां लौट आएगी। शायद एक न एक दिन वह हिरण भी लौटकर आए, जो उस दिन अपनी प्यास बुझाए बिना यहां से चला गया था। मैं कॉटेज की खिड़कियां खोल देता हूं और बारिश और उससे नम हुई धरती की अतुल्य सौंधी गंध को भीतर आने देता हूं।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

बैटल फॉर लाइफ



राजस्थान के रणथमभौर नेशनल पार्क में पिछळे दिनों एक ऐसा नजारा दिखा जो बरसों में एकाध बार होता है। एक बाघ और मादा भालू का आमना सामना। हुआ यूं कि मां भालू अपने दो छोटे बच्चों के साथ उन्हें पानी पिलाने ले जा ही रही थी कि सामने से एक बाघ आ गया और उसे लगा कि इन दो छोटे भालुओं से बेहतर शिकार क्या होगा। लेकिन मां भालू ने ये होने नहीं दिया और बाघ को पटखनी दे दी। वो सीधी लड़ाई के मूड में आ गई , जिससे बाघ को बैकफुट पर आना पड़ा। मां अपने दोनों बच्चों को पीठ पर बैठाकर वहां से गायब हो गई...

इन पलों को कैमरे में कैद किया है आदित्य सिंह ने

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बीच बहस में जम्मू-कश्मीर


  जगमोहन

जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।
                                                                    
जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

जीवन और प्रकृति का संग-साथ


रस्किन बॉण्ड
 
जैसे-जैसे साल के अंतिम दिन करीब आने लगते हैं, हिमालय की चोटियों पर टंगे बादल अजीबोगरीब रूप अख्तियार करने लगते हैं। हालांकि ये पानी वाले बादल नहीं होते। आकाश में वे लुकाछिपी का खेल खेलते रहते हैं और फिर सूर्यास्त की वैभवशाली खोह में गुम हो जाते हैं। मुझे हमेशा यही लगता है कि पहाड़ों पर साल का सबसे अच्छा वक्त यही होता है।

धूप से धुली हुई तराइयां हरे पन्ने की तरह चमकती हैं। हवा साफ होती है और जाड़ों की चुभन भी अभी एकाध माह दूर होती है। जो लोग पहाड़ों पर पैदल चलना पसंद करते हैं, उन्हें इस मौसम में वे झरने बहुत लुभाते हैं, जो साल के अधिकांश समय सूखे रहते हैं। पिछली गर्मियों में जो छिपकली ग्रेनाइट के पत्थरों पर धूप सेंकती थी, वह अब नजर नहीं आती है। लेकिन उसकी जगह छोटी-छोटी चिड़ियों ने ले ली है। झींगुरों की कर्कश आवाज की जगह ले ली है टिड्डों की किटकिटाहट की मद्धम-सी ध्वनि ने।

इसी मौसम में जंगली फूल पूरे शबाब पर होते हैं। पूरी वादी पर फूलों की चादर-सी बिछ जाती है। जंगली अदरक की तीखी गंध, बेतरह उलझी हुई बेलें और लताएं, वनस्पतियों के गुच्छे और लेडीज मेंटल कहलाने वाले अल्कैमिलिया के पौधों की लंबी कतार। धतूरे के फल सफेद गेंदों सरीखे लगते हैं। तंबाकू की टहनियों से देहाती लड़के बांसुरियां बनाते हैं। इसी मौसम में एरॉइड की झाड़ियां भी बहुतायत में नजर आती हैं। इनकी बेलों का आकार सांप की जीभ की तरह होने के कारण इन्हें कोबरा लिली भी कहा जाता है।

कोबरा लिली की यह जीभ मक्खियों के लिए एक बेहतरीन ‘लैंडिंग स्टेज’ साबित होती है। इसी की एक खूबसूरत प्रजाति का नाम है ‘सॉरोमोटम गुट्टाटम’। मुझे नहीं पता कि इसका क्या अर्थ होता है। यदि आप इसका मतलब जानना चाहते हैं तो किसी वनस्पति विज्ञानी से संपर्क करें। इसमें केवल एक पत्ती होती है। जब बारिश का मौसम बीत चुका होता है और मिट्टी की नमी समाप्त होने लगती है, तब उसकी टहनियों पर फिर से लाल बेरियां दिखाई देने लगती हैं। पहाड़ी लोग मानते हैं कि लाल बेरियां दिखाई देने का अर्थ है कि मानसून का मौसम अब खत्म हो गया। वे किसी भी मौसम विज्ञानी से ज्यादा भरोसा इन लाल बेरियों पर करते हैं।

यमुना और भगीरथी के बीच स्थित इस इलाके में इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हुआ जा सकता है कि सॉरोमोटम गुट्टाटम की टहनियों पर लाल बेरियां नजर आने के बाद सबसे सुहावना मौसम महज एक पखवाड़ा दूर है। लेकिन मुझे इन सबसे ज्यादा लुभाते हैं कॉमेलीनिया के फूल। हिमालय की तराई में पाए जाने वाले इतने सारे फूलों में से किसी में वह बात नहीं, जो कॉमेलीनिया में है। इसकी खूबसूरती का राज छिपा है इसके रंगों में। हल्की नीली रंगत।

ऐसा लगता है जैसे वह कोई आईना हो, जिसमें आकाश का अनंत नीलापन झांक रहा हो। बारिश का मौसम खत्म होते ही ये फूल जाने कहां से आ जाते हैं और पूरी वादी में छा जाते हैं। दो हफ्तों तक ये अपने रंगों का जादू बिखेरते हैं और फिर जाने कहां खो जाते हैं। हमें उन्हें फिर से देखने के लिए अगली बारिश बीत जाने का इंतजार करना होगा। जब मैंने पहली बार ये फूल देखे थे तो अवाक रह गया था। मुझे लगा जैसे समूची दुनिया स्थिर हो गई हो।

वह मेरे लिए प्रार्थना की तरह एक पवित्र क्षण था। मुझे महसूस हुआ जैसे यह अचीन्हा सौंदर्य ही एकमात्र वास्तविकता है और इसके सिवाय सब कुछ अवास्तविक है।

लेकिन यह केवल एक लम्हे का ख्याल था। तभी किसी ट्रक का हॉर्न जोरों से चीखा और मुझे तत्काल यह अहसास हो गया कि मैं अभी इसी धरती पर हूं। मैं सड़क पर खड़ा था। ट्रक मेरे पास से होकर गुजरा। धूल का एक गुबार उड़ा और मुझे हवा में डीजल की गंध तैरती हुई महसूस हुई। मुझे इस बात के और सबूत मिले कि दुनिया में कई तरह की वास्तविकताएं होती हैं। मुझे ऐसा लगा कि ट्रक की इस चिल्लपौं से मेरी कॉमेलीनिया भी जरा सहम गई है। मैंने सड़क छोड़ दी और एक छोटी-सी पगडंडी पकड़कर आगे बढ़ने लगा।

बहुत जल्द ही मैं शहर की चहलपहल को अपने बहुत पीछे छोड़ आया था। इन शहरों के बारे में रूबी आंटी उस दिन कह रही थीं : अगर यहां हम पांच मिनट के लिए भी अपनी जगह पर स्थिर खड़े रहे तो लोग हमारे ऊपर एक होटल बना देंगे। मुझे बुक्स ऑफ जेनेसिस की उस महिला की याद हो आई। उसने जब अपने शापग्रस्त शहर को पलटकर देखा था तो वह नमक का एक खंभा बनकर रह गई थी। मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगने लगा। मुझे लगा कि अगर मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मैं सीमेंट का खंभा बन जाऊंगा। इसलिए मैं बिना पीछे मुड़े देवसारी तक नाक की सीध में चलता रहा। यह घाटी का एक प्यारा-सा गांव है। लेकिन संभव है ‘डेवलपर्स’ और पैसों का खेल खेलने वाले लोग जल्द ही यहां भी आ धमकें।

चाय की दुकान। मुझे ऐसा लगा जैसे उसने आवाज देकर मुझे पुकारा हो। अगर पहाड़ी इलाकों में सड़क के किनारे ये चाय की दुकानें न हों, तो क्या हो? वास्तव में ये किसी छोटी-मोटी सराय की तरह होती हैं। यहां भोजन भी मिलता है और आप चाहें तो यहां आराम भी कर सकते हैं। अक्सर तो यहां इतनी जगह होती है कि दर्जनभर लोग एक साथ आराम फरमा सकते हैं। मैं चाय के साथ डबलरोटी भी लेता हूं, लेकिन यह तो पत्थरों की तरह सख्त है। मैं गर्म चाय के साथ उसके कुछ टुकड़े जैसे-तैसे निगल लेता हूं।

यहां एक छोटा-सा देवस्थल भी है। चाय की दुकान के ठीक सामने। देवस्थल क्या, पत्थर का चबूतरा है। उस पर सिंदूर पुता है। पूजा के दौरान अर्पित किए गए फूल जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। सभी धर्मो में से हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो प्रकृति के सबसे करीब है। हिंदू लोग नदियों, पत्थरों, पेड़-पौधों, जीवों, पक्षियों सभी को पूजते हैं। ये सभी उनके जीवन के साथ ही उनकी धार्मिक आस्था के भी अभिन्न अंग हैं। जो इलाके शहरों की चहलपहल से दूर बसे होते हैं, जैसे कि पहाड़, वहां प्रकृति और जीवन का यह सामंजस्य सबसे ज्यादा नजर आता है। मैं आशा करता हूं कि शहरों के फैलते दायरे के बावजूद यह जीवन दृष्टि अपनी विलक्षणता को बरकरार रखेगी।