मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बीच बहस में जम्मू-कश्मीर


  जगमोहन

जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।
                                                                    
जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के संबंध की प्रकृति को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। उमर अब्दुल्ला सरकार के वित्त मंत्री एआर राथर ने जोर देकर कहा कि भारत में कश्मीर का सम्मिलन ‘सशर्त’ था और ‘हर संवाद प्रक्रिया के लिए 1952 की स्थिति एक प्रस्थान बिंदु होनी चाहिए।’ 13 जून को श्रीनगर में हुई एक प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एमएल फोतेदार ने उनके इस आग्रह का जोरदार तरीके से खंडन किया। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर का भारत में सम्मिलन अंतिम निर्णय था।’

इससे पहले उमर अब्दुल्ला ने भी 6 अक्टूबर 2010 को विधानसभा में यह कहते हुए संशय की स्थिति निर्मित कर दी थी कि ‘जूनागढ़ और हैदराबाद के विपरीत हमारा भारत में सम्मिलन हुआ था, विलय नहीं।’ यह विवाद मुश्किल हालात निर्मित कर सकता है। वार्ताकारों की रिपोर्ट, जो जल्द ही प्रस्तुत की जा सकती है, भी फिर से यह बहस छेड़ सकती है।

जब जम्मू-कश्मीर भारत में सम्मिलित हुआ था, तो उसने अन्य रियासतों की ही तरह सम्मिलन की शर्ते स्वीकारी थीं, लेकिन अन्य राज्यों के उलट कश्मीर के मामले में इतिहास महज उन दस्तावेजों पर हुए दस्तखतों के साथ ही थमा नहीं। भारतीय संविधान के प्रभावशील होते ही जम्मू-कश्मीर भारत के क्षेत्र विस्तार को निर्धारित करने वाले अनुच्छेद 1 के प्रावधानों के तहत भारतीय राष्ट्र का अभिन्न अंग बन गया। संविधान में इस अनुच्छेद में संशोधन को पूर्णत: निषिद्ध निर्दिष्ट किया गया है।
जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद 3 भी कहता है कि ‘यह राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा।’ भारतीय संविधान के निर्माण के समय शेख अब्दुल्ला ने राज्य के लिए एक विशिष्ट स्थिति की मांग की थी। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने उनकी इस मांग को बहुत औचित्यपूर्ण नहीं पाया। मतभेदों को पाटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वे समझौते के लिए एक फॉर्मूला तैयार करें।
अयंगर ने एक मसौदे का सुझाव दिया, जिसे बाद में संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित किया गया। इस मसौदे का भी जोर-शोर से विरोध किया गया, लेकिन नेहरू इसे स्वीकार करने के लिए तत्पर थे। चूंकि वे विदेश यात्रा पर जा रहे थे, लिहाजा उन्होंने गोपालस्वामी से कहा कि वे सरदार पटेल से यह अनुरोध करें कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए मसौदे को मंजूरी दिलवाएं।
स्वयं नेहरू ने धारा 370 को एक स्टॉप-गैप व्यवस्था माना था। 24 जुलाई 1952 को संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा : ‘हालात को देखते हुए हम सभी इस मामले को एक अनिश्चित स्थिति में ही छोड़ देना चाहते थे और वैधानिक और संवैधानिक संबंधों का धीरे-धीरे विकास करना चाहते थे। इसके परिणामस्वरूप संविधान में एक असामान्य प्रावधान किया गया। वह धारा 370 में, भाग 21 में है : अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान।’

7 अगस्त 1952 को उन्होंने फिर स्पष्ट किया कि ‘धारा 370 कोई अंतिम स्थिति नहीं है और वह केवल उस प्रणाली को निर्धारित करती है, जिनके तहत इस विषय में कुछ और चीजें जोड़ी जा सकती हैं।’ धारा 370 का लब्बोलुआब यह है कि प्रतिरक्षा, विदेश मामले और संचार के अलावा संसद केंद्र और समवर्ती सूचियों के संबंध में भी कानून बना सकती है, लेकिन राज्य सरकार की सहमति से ही।
ऐसे कानूनों को राष्ट्रपति के एक आदेश के मार्फत राज्य तक प्रसारित किया जा सकता है। गुलजारी लाल नंदा ने ठीक ही कहा था कि धारा 370 ‘एक दीवार नहीं, बल्कि सुरंग है’, जिसके दरवाजे पर राज्य सरकार खड़ी है। दरवाजा सहमतिपूर्वक खोले जाने पर ही संविधान के कानून व प्रावधान राज्य तक पहुंच पाएंगे।

धारा 370 के मानदंडों की परिधि में केंद्र और राज्य के बीच एक कारगर संबंध निर्मित करने के लिए संबंधित पार्टियों के प्रतिनिधियों की कई बैठकें आयोजित की गईं। तब तक अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ चुकी थीं। उन्होंने अपनी स्थिति का फायदा उठाकर कई मांगें सामने रख दीं। 24 जुलाई 1952 को दिल्ली एग्रीमेंट हुआ। अब्दुल्ला ने अपने लिए हितकारी प्रावधानों का क्रियान्वयन तो सुनिश्चित कर लिया, लेकिन इसके बाद वे, फ्रैंक मोरेस के शब्दों में ‘कश्मीर के शहंशाह’ बनने का प्रयास करने लगे।

जल्द ही उनकी पूर्ण स्वायत्तता की राजनीति ने एक कुटिल स्वरूप अख्तियार कर लिया और वे एक स्वतंत्र राज्य निर्मित करने के लिए एंग्लो-अमेरिकन ब्लॉक के साथ मिलकर गुपचुप रणनीति बनाने लगे। इससे नेहरू भी विचलित हो गए थे। निश्चित ही अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी के लिए उनकी महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार थीं। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से हटने के बाद केंद्र और राज्य के बीच सहयोगात्मक और रचनात्मक संबंध निर्मित हुए।

धारा 370 के अनुसार राज्य सरकार और विधानसभा की सहमति से भारतीय संविधान के कुछ निश्चित प्रावधान राज्य के लिए प्रभावशील हुए और वह सर्वोच्च अदालत, कैग और चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आया। वर्ष 1966 में स्वयं राज्य की विधानसभा ने ही जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन करते हुए इस संबंध में जरूरी बदलाव किए। ये बदलाव जहां व्यावहारिक थे, वहीं वे जनहित में भी थे।

जो लोग 1952-53 की स्थिति के गुण गा रहे हैं और सशर्त सम्मिलन का हवाला दे रहे हैं, उनसे भी कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। क्या भारत के अन्य नागरिकों की तरह कश्मीरी भी संविधान के तहत स्वतंत्र नहीं हैं? क्या उन्हें वे सारे बुनियादी अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जो किसी आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में प्रदान किए जाते हैं? क्या वहां दशकों से लागू संवैधानिक व्यवस्थाओं से उनकी संस्कृति, पहचान, भाषा या धर्म का किसी तरह से अवमूल्यन हुआ है?
मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से एक आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? यदि इन सवालों पर गहराई से विचार करें तो यही जवाब सामने आता है कि जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में है, किसी प्रकार के राजनीतिक शोषण, सम्मिलन-विलयन के पेचोखम या 1952-53 की स्थिति में नहीं।

मुख्यमंत्री का नाम बदलकर प्रधानमंत्री या राज्यपाल का नाम बदलकर सद्र-ए-रियासत कर देने से आम कश्मीरी को क्या लाभ होगा? वास्तव में जम्मू-कश्मीर की बेहतरी सहयोगपूर्ण संघवाद में ही निहित है।

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