सोमवार, 4 जुलाई 2011

जीवन और प्रकृति का संग-साथ


रस्किन बॉण्ड
 
जैसे-जैसे साल के अंतिम दिन करीब आने लगते हैं, हिमालय की चोटियों पर टंगे बादल अजीबोगरीब रूप अख्तियार करने लगते हैं। हालांकि ये पानी वाले बादल नहीं होते। आकाश में वे लुकाछिपी का खेल खेलते रहते हैं और फिर सूर्यास्त की वैभवशाली खोह में गुम हो जाते हैं। मुझे हमेशा यही लगता है कि पहाड़ों पर साल का सबसे अच्छा वक्त यही होता है।

धूप से धुली हुई तराइयां हरे पन्ने की तरह चमकती हैं। हवा साफ होती है और जाड़ों की चुभन भी अभी एकाध माह दूर होती है। जो लोग पहाड़ों पर पैदल चलना पसंद करते हैं, उन्हें इस मौसम में वे झरने बहुत लुभाते हैं, जो साल के अधिकांश समय सूखे रहते हैं। पिछली गर्मियों में जो छिपकली ग्रेनाइट के पत्थरों पर धूप सेंकती थी, वह अब नजर नहीं आती है। लेकिन उसकी जगह छोटी-छोटी चिड़ियों ने ले ली है। झींगुरों की कर्कश आवाज की जगह ले ली है टिड्डों की किटकिटाहट की मद्धम-सी ध्वनि ने।

इसी मौसम में जंगली फूल पूरे शबाब पर होते हैं। पूरी वादी पर फूलों की चादर-सी बिछ जाती है। जंगली अदरक की तीखी गंध, बेतरह उलझी हुई बेलें और लताएं, वनस्पतियों के गुच्छे और लेडीज मेंटल कहलाने वाले अल्कैमिलिया के पौधों की लंबी कतार। धतूरे के फल सफेद गेंदों सरीखे लगते हैं। तंबाकू की टहनियों से देहाती लड़के बांसुरियां बनाते हैं। इसी मौसम में एरॉइड की झाड़ियां भी बहुतायत में नजर आती हैं। इनकी बेलों का आकार सांप की जीभ की तरह होने के कारण इन्हें कोबरा लिली भी कहा जाता है।

कोबरा लिली की यह जीभ मक्खियों के लिए एक बेहतरीन ‘लैंडिंग स्टेज’ साबित होती है। इसी की एक खूबसूरत प्रजाति का नाम है ‘सॉरोमोटम गुट्टाटम’। मुझे नहीं पता कि इसका क्या अर्थ होता है। यदि आप इसका मतलब जानना चाहते हैं तो किसी वनस्पति विज्ञानी से संपर्क करें। इसमें केवल एक पत्ती होती है। जब बारिश का मौसम बीत चुका होता है और मिट्टी की नमी समाप्त होने लगती है, तब उसकी टहनियों पर फिर से लाल बेरियां दिखाई देने लगती हैं। पहाड़ी लोग मानते हैं कि लाल बेरियां दिखाई देने का अर्थ है कि मानसून का मौसम अब खत्म हो गया। वे किसी भी मौसम विज्ञानी से ज्यादा भरोसा इन लाल बेरियों पर करते हैं।

यमुना और भगीरथी के बीच स्थित इस इलाके में इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हुआ जा सकता है कि सॉरोमोटम गुट्टाटम की टहनियों पर लाल बेरियां नजर आने के बाद सबसे सुहावना मौसम महज एक पखवाड़ा दूर है। लेकिन मुझे इन सबसे ज्यादा लुभाते हैं कॉमेलीनिया के फूल। हिमालय की तराई में पाए जाने वाले इतने सारे फूलों में से किसी में वह बात नहीं, जो कॉमेलीनिया में है। इसकी खूबसूरती का राज छिपा है इसके रंगों में। हल्की नीली रंगत।

ऐसा लगता है जैसे वह कोई आईना हो, जिसमें आकाश का अनंत नीलापन झांक रहा हो। बारिश का मौसम खत्म होते ही ये फूल जाने कहां से आ जाते हैं और पूरी वादी में छा जाते हैं। दो हफ्तों तक ये अपने रंगों का जादू बिखेरते हैं और फिर जाने कहां खो जाते हैं। हमें उन्हें फिर से देखने के लिए अगली बारिश बीत जाने का इंतजार करना होगा। जब मैंने पहली बार ये फूल देखे थे तो अवाक रह गया था। मुझे लगा जैसे समूची दुनिया स्थिर हो गई हो।

वह मेरे लिए प्रार्थना की तरह एक पवित्र क्षण था। मुझे महसूस हुआ जैसे यह अचीन्हा सौंदर्य ही एकमात्र वास्तविकता है और इसके सिवाय सब कुछ अवास्तविक है।

लेकिन यह केवल एक लम्हे का ख्याल था। तभी किसी ट्रक का हॉर्न जोरों से चीखा और मुझे तत्काल यह अहसास हो गया कि मैं अभी इसी धरती पर हूं। मैं सड़क पर खड़ा था। ट्रक मेरे पास से होकर गुजरा। धूल का एक गुबार उड़ा और मुझे हवा में डीजल की गंध तैरती हुई महसूस हुई। मुझे इस बात के और सबूत मिले कि दुनिया में कई तरह की वास्तविकताएं होती हैं। मुझे ऐसा लगा कि ट्रक की इस चिल्लपौं से मेरी कॉमेलीनिया भी जरा सहम गई है। मैंने सड़क छोड़ दी और एक छोटी-सी पगडंडी पकड़कर आगे बढ़ने लगा।

बहुत जल्द ही मैं शहर की चहलपहल को अपने बहुत पीछे छोड़ आया था। इन शहरों के बारे में रूबी आंटी उस दिन कह रही थीं : अगर यहां हम पांच मिनट के लिए भी अपनी जगह पर स्थिर खड़े रहे तो लोग हमारे ऊपर एक होटल बना देंगे। मुझे बुक्स ऑफ जेनेसिस की उस महिला की याद हो आई। उसने जब अपने शापग्रस्त शहर को पलटकर देखा था तो वह नमक का एक खंभा बनकर रह गई थी। मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगने लगा। मुझे लगा कि अगर मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मैं सीमेंट का खंभा बन जाऊंगा। इसलिए मैं बिना पीछे मुड़े देवसारी तक नाक की सीध में चलता रहा। यह घाटी का एक प्यारा-सा गांव है। लेकिन संभव है ‘डेवलपर्स’ और पैसों का खेल खेलने वाले लोग जल्द ही यहां भी आ धमकें।

चाय की दुकान। मुझे ऐसा लगा जैसे उसने आवाज देकर मुझे पुकारा हो। अगर पहाड़ी इलाकों में सड़क के किनारे ये चाय की दुकानें न हों, तो क्या हो? वास्तव में ये किसी छोटी-मोटी सराय की तरह होती हैं। यहां भोजन भी मिलता है और आप चाहें तो यहां आराम भी कर सकते हैं। अक्सर तो यहां इतनी जगह होती है कि दर्जनभर लोग एक साथ आराम फरमा सकते हैं। मैं चाय के साथ डबलरोटी भी लेता हूं, लेकिन यह तो पत्थरों की तरह सख्त है। मैं गर्म चाय के साथ उसके कुछ टुकड़े जैसे-तैसे निगल लेता हूं।

यहां एक छोटा-सा देवस्थल भी है। चाय की दुकान के ठीक सामने। देवस्थल क्या, पत्थर का चबूतरा है। उस पर सिंदूर पुता है। पूजा के दौरान अर्पित किए गए फूल जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। सभी धर्मो में से हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो प्रकृति के सबसे करीब है। हिंदू लोग नदियों, पत्थरों, पेड़-पौधों, जीवों, पक्षियों सभी को पूजते हैं। ये सभी उनके जीवन के साथ ही उनकी धार्मिक आस्था के भी अभिन्न अंग हैं। जो इलाके शहरों की चहलपहल से दूर बसे होते हैं, जैसे कि पहाड़, वहां प्रकृति और जीवन का यह सामंजस्य सबसे ज्यादा नजर आता है। मैं आशा करता हूं कि शहरों के फैलते दायरे के बावजूद यह जीवन दृष्टि अपनी विलक्षणता को बरकरार रखेगी।

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