सोमवार, 25 जुलाई 2011

धरती का उत्सव है बारिश

रस्किन बॉन्ड 


पानी की बूंदें नन्ही जरूर होती हैं, लेकिन वे किसी जादू के पिटारे से कम नहीं होतीं। एक मायने में ये बूंदें सीप भी हैं और मोती भी। पानी की हर बूंद सृजन और स्वयं जीवन के एक अंश का प्रतिनिधित्व करती है। जब गर्मियों के लंबे और थका देने वाले मौसम के बाद धरती पर मानसून की पहली फुहारें पड़ती हैं तो धरती के उल्लास के बारे में कुछ न पूछिए। तपिश से झुलसी धरती बारिश की हर बूंद का मनप्राण से स्वागत करती है। वह अपने तमाम रंध्रों को खोल देती है और हर बूंद से अपनी प्यास बुझाती है। वह पिछले कई माह से धूप में तप रही थी।

उसमें दरारें पड़ गई थीं और मिट्टी की नमी समाप्त हो चुकी थी। इस विषादग्रस्त धरती पर बारिश की बूंदें क्या पड़ती हैं, मानो कोई चमत्कार हो जाता है। रातोंरात जाने कहां से घास उग आती है। धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। सब कुछ नया-नया नजर आने लगता है। ऐसा लगता है जैसे धरती ने नए सिरे से जीवन की शुरुआत की हो। बारिश की पहली बूंदें पड़ने के बाद जो सौंधी महक उठती है, उसकी तुलना मनुष्य द्वारा ईजाद किए गए किसी भी इत्र से नहीं की जा सकती। उसके सामने अच्छे से अच्छा परफ्यूम भी फीका है।

बारिश धरती का उत्सव है। घास, पत्तियों, फूलों की पंखुरियों, कीड़े-मकोड़ों, पक्षियों, जीव-जंतुओं और मनुष्यों के धड़कते हुए हृदय के लिए बारिश खूब सारी खुशियां लेकर आती है। बारिश की फुहार में भीगने के लिए बच्चे सड़कों पर दौड़े चले आते हैं। यहां तक कि मवेशी भी, जिन्होंने गर्मियों की लंबी दुपहरें सूखे जलस्रोतों और चरागाहों के इर्द-गिर्द भटकते हुए काटी थीं, बारिश के बाद कीचड़ में कुछ इस तरह मजे से पसर जाते हैं, जैसे कि वह स्वर्गलोक की आरामगाह हो। मानसून की मेहरबानी अगर बनी रहे तो जल्द ही नदियां और झीलें भी उफनने लगती हैं।

कुछ दिन पहले की बात है। मैं हिमालय की तराइयों में टहल रहा था कि मैंने पाया कि कई किलोमीटर तक सफर करने के बावजूद कहीं कोई बस्ती नजर नहीं आ रही है। मैं खुद को कोस रहा था कि मैं अपने साथ पानी क्यों नहीं लेकर आया। तभी मुझे फर्न की हरी-भरी झाड़ियों के पीछे कुछ हलचल नजर आई। मैंने आहिस्ता से झाड़ियां हटाईं तो देखता क्या हूं कि चट्टान के पीछे पानी का एक छोटा-सा सोता है! एक प्यासे मुसाफिर के लिए पानी का सोता अमृत की धारा से कम नहीं होता।

मैं वहां घंटों रहा और सोते से पानी की एक-एक बूंद को टपकते और नीचे बहते देखता रहा। हर बूंद से सृजनात्मकता झलक रही थी। बाद में मैंने पाया कि इस सोते से निर्मित हो रही जलधारा अन्य धाराओं के साथ मिलकर एक हहराती हुई नदी बन गई है, जो पहाड़ी रास्तों पर उछलकूद मचाती हुई नीचे मैदानों की ओर अपनी उर्वरता का वरदान लिए चली जा रही है। यह नदी किसी अन्य नदी से जाकर मिलती है और वह किसी अन्य से। विशालकाय महानदियों का जन्म इसी तरह होता है। हजारों किलोमीटर का सफर तय करने के बाद अंत में वे जाकर समुद्र में मिल जाती हैं। बूंद से सागर तक की यात्रा पूरी हो जाती है।

ताओ धर्म के प्रवर्तक और दार्शनिक लाओत्से ने कहा था : पानी की तरह हो जाओ। जो व्यक्ति पानी की तरह तरल, मृदुल और सहनशील होता है, वह किसी भी बाधा को पार कर सकता है और समुद्र तक पहुंच सकता है। पानी की तरह तरल हो जाने का अर्थ है विनम्र हो जाना, किसी से व्यर्थ विवाद न करना और चुपचाप अपनी राह पर बढ़ते चले जाना।

मसूरी हिल्स स्थित मेरे कॉटेज के बाहर एक छोटा-सा पोखर है। वह मेरे लिए अपार आनंद का स्रोत है। पोखर के पानी की सतह पर गुबरैले तैरते हैं। उनकी हलचल से पानी में तरंगें बनती हैं। तरंगों के ये जादुई घेरे फैलते रहते हैं और एक सीमा के बाद विलीन हो जाते हैं। छोटी-छोटी मछलियां छिछले पानी में दुबकी रहती हैं। कभी-कभी एक चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया पोखर पर पानी पीने आती है और एक चट्टान से दूसरी चट्टान तक फुदकती रहती है। पानी की तरंगों के खामोश संगीत के साथ यदा-कदा सुनाई दे जाने वाली मछलियों की सरसराहट और चकत्तेदार फोर्कटेल की चहचहाहट एक सुंदर और विस्मयपूर्ण संसार रचते हैं। मैं देर तक इस पोखर के समीप बैठकर यह सब निहारता रहता हूं।

एक बार मैंने पोखर के समीप एक हिरण को देखा। वह चुपचाप सिर झुकाए पोखर के पानी से अपनी प्यास बुझा रहा था। मैं सांस थामे उसे देखता रहा। मुझे डर था कि जरा-सी आहट से वह सशंकित हो जाएगा और प्यास बुझने से पहले ही वहां से दौड़ लगा देगा। मैंने अपनी ओर से शांत रहने की पूरी कोशिश की, लेकिन आखिर वही हुआ, जिसका डर था। जाने कौन-सी आहट सुनकर अचानक हिरण ने ऊपर देखा और मुझे देखकर लंबे-लंबे डग भरता हुआ वहां से रफूचक्कर हो गया।

गर्मियों के दिनों में यह पोखर तकरीबन पूरी तरह सूख जाता है। कुछ दिनों पहले तक इसमें महज इतना ही पानी था कि वह मछलियों और मेंढकों के जीवित रहने भर के लिए ही काफी था। लेकिन अब जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं तो तस्वीर काफी कुछ बदल चुकी है। मेरे कॉटेज की टिन की छत पर बारिश की बूंदें टपाटप बरस रही हैं। मैं बाहर झांककर देखता हूं तो पाता हूं कि आकाश से हो रही अमृतवर्षा पोखर के खाली प्याले को धीरे-धीरे भर रही है। अब यहां से प्राणी प्यासे नहीं लौटेंगे, मछलियों के लिए भी पोखर में पर्याप्त पानी होगा।

जल्द ही वह चकत्तेदार फोर्कटेल चिड़िया यहां लौट आएगी। शायद एक न एक दिन वह हिरण भी लौटकर आए, जो उस दिन अपनी प्यास बुझाए बिना यहां से चला गया था। मैं कॉटेज की खिड़कियां खोल देता हूं और बारिश और उससे नम हुई धरती की अतुल्य सौंधी गंध को भीतर आने देता हूं।

2 टिप्‍पणियां:

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

मुझे आश्चर्य है पन्त साहब कि मेरी निगाह आज तक आप पर क्यों नहीं गई? क्या खूबसूरत भाव हैं आपके? एकदम अलग हटकर। आपकी ज्यादातर सभी पोस्टें पढ ली हैं। वाकई मजा आ गया।

Vidhan Chandra ने कहा…

लेट ही सही हम भी पन्त जी के लेखन तक पहुँच ही गए !!