सोमवार, 28 सितंबर 2009

बाघ के इंतजार में तीन रातें

मिस्टर अरोरा मुझे अपनी सूमो में बिठाकर फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में ले गए। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं दो दिन में वापस लौट आऊंगा और वहां मुझे जंगल में छोड़ दिया। रेस्ट हाउस की देखभाल करने वाला रसोइया और चौकीदार, दोनों ही नजर आता था। उसने मेरे लिए एक कप कड़कदार और मीठी चाय बनाई।

रस्किन बॉन्ड

‘सर, आप जंगल देखने के लिए आए हैं?’ ‘हां,’ मैंने बंगले के गेट के बाहर चारों ओर का नजारा देखते हुए जवाब दिया, जहां धूल-मिट्टी में कुछ पालतू मुर्गियां इधर-उधर टहल रही थीं। ‘यह सबसे अच्छी जगह है सर,’ चौकीदार ने कहा, ‘देखिए, नदी यहां से ठीक नीचे ही है।’ बंगले से मात्र पचास मीटर की दूरी पर पारदर्शी पहाड़ी जल की एक धारा साल और शीशम के घने छायादार जंगल के रास्तों से बह रही थी। ‘जानवर रात में आते हैं,’ चौकीदार बोला। ‘चीतल, सांभर, जंगली सूअर और कभी-कभार हाथी भी। आप एक कप चाय के साथ यहां बरामदे में बैठ सकते हैं और जानवरों को देख सकते हैं। आज रात आसमान में तीन चौथाई चांद है। आज तो सब साफ-साफ नजर आएगा। लेकिन आप बिलकुल शांत रहिएगा।’

‘मुझे बाघ दिखाई देगा?’ मैंने पूछा। ‘मैं बाघ को देखना चाहता हूं।’‘सर, हो सकता है बाघ भी आए,’ बड़ी सहानुभूतिपूर्ण मुस्कराहट के साथ चौकीदार ने कहा। ‘इस पूरे जंगल में सिर्फ एक ही बाघ बचा रह गया है।’ उसने मेरे लिए सादा सा दोपहर का खाना बनाया- दाल, चावल, आलू-गोभी की करी वाली सब्जी और साथ में स्वादिष्ट आम का अचार। प्राय: जंगल में अकेले रहने वाले चौकीदार बहुत शानदार रसोइए भी बन जाते हैं। मैंने रेस्ट हाउस के बरामदे में बैठकर दोपहर का खाना खाया। सामने खुली जगह में एक मोर अपने पंख फैलाकर फड़फड़ा रहा था। लेकिन मैं मोर के पंख देखकर बहुत संतुष्ट नहीं था। मैंने असंख्य मोर देख रखे थे। मुर्गियां तो जहां देखो, वहीं पर होती हैं। ‘क्या तुम्हारी मुर्गियों को जंगली जानवरों से खतरा नहीं होता?’ मैंने पूछा। ‘अंधेरा होने के बाद हमें उन्हें ताले में बंद करना पड़ता है, वरना जंगली बिल्ली उन्हें उठा ले जाएगी।’ जब अंधेरा घिर आया तो मैं बरामदे में केन की एक पुरानी कुर्सी पर अपने लिए आरामदायक जगह बनाते हुए जमकर बैठ गया। चौकीदार शेर सिंह (उसका यह नाम बिलकुल सही था) एक थाली में मेरे लिए खाना ले आया। उसे कैसे पता कि कोफ्ता मेरी सबसे पसंदीदा सब्जी है? रोटियां एक-एक करके बारी-बारी से आ रही थीं। उसका दस साल का बेटा रसोई से एक-एक करके गर्मागर्म रोटियां लेकर आ रहा था। वह उन दिनों स्कूल की छुट्टियों के समय पिता की मदद कर रहा था।

खाने के बाद दूध और शक्कर वाली एक कप चाय के साथ मैंने अपना रात्रि जागरण शुरू किया। फैली हुई रात में शेर सिंह, उसके बेटे और मुर्गियों को स्थिर होने में करीब एक घंटे का समय लगा। घर में बिजली नहीं थी, लेकिन उस लड़के के पास बैटरी से चलने वाला एक रेडियो था, जिस पर वह क्रिकेट कमेंट्री सुन रहा था। कोई भी आत्मसम्मान वाला बाघ क्रिकेट की कमेंट्री से आकर्षित नहीं हो सकता था। आखिरकार उसने रेडियो बंद कर दिया और सो गया। पहाड़ी पर चांद उग आया था और चांद की रोशनी में धारा बिलकुल साफ नजर आ रही थी। और तभी एक तेज आवाज से रात की फिजा गूंज उठी। यह बाघ या तेंदुए की आवाज नहीं थी, लेकिन आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी- डुक, डुक, डुक। धारा के कीचड़ भरे किनारों से आवाज उठ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो पूरे जंगल के मेंढक रात के लिए वहां इकट्ठे हो गए थे। जरूर उनके यहां कोई चुनावी रैली हो रही थी, क्योंकि हर किसी के पास कहने के लिए कुछ न कुछ था। लगभग एक घंटे तक उनका भाषण चलता रहा और फिर सभा निरस्त हो गई। जंगल में फिर से शांति लौट आई।

उस रात कोई जानवर पानी पीने नहीं आया। अगली शाम शेर सिंह ने खुद भी मेरे साथ जागने का प्रस्ताव रखा। उसने बरामदे में एक तेल का स्टोव रखा और एक बड़े से बर्तन में चाय भरकर उसके ऊपर रख दिया। ‘जब भी नींद आएगी, मैं आपको एक कप चाय दूंगा।’ क्या ये तेंदुए की आवाज है या कोई लकड़ियां चीर रहा है? आवाज बड़ी मिलती-जुलती सी थी। एक सियार लुक-छिपकर वहां आया। इसी तरह दो भेड़िए भी आए। इसमें कोई शक नहीं कि वे सब शेर सिंह की मुर्गियों की तलाश में वहां आए थे। मेंढक फिर से शुरू हो गए। शादीशुदा मेंढक जरूर इस बार अपनी बीवियों को भी साथ लेकर आए थे, क्योंकि भाषणों के अलावा इस बार ढेर सारी टर्र-टर्र, शिकायतें और चटर-पटर भी हो रही थी, जैसे कोई किटी पार्टी चल रही हो।

सुबह तक तकरीबन मैं पंद्रह कप चाय पी चुका था, लेकिन फिर भी बाघ नहीं नजर आया। मेरे दादा, जो भारत में चाय बागान लगाने वालों में अग्रणी थे, उनके प्रति अपने सम्मान के कारण मैंने कोई शिकायत नहीं की। और न ही इससे अच्छे नाश्ते की मांग कर सका- ताजे अंडे, टोस्ट पर लगा हुआ घर का बना हुआ मक्खन और बेशक ढेर सारी चाय। तीसरी रात भी लगभग उसी तरह गुजर गई, सिवाय इसके कि जंगली सूअरों का एक समूह आया और उन्होंने शेर सिंह के सब्जियों के बगीचे को ही खोद डाला। दोपहर तक मिस्टर अरोरा मुझे लेने के लिए अपनी सूमो में आए। ‘कुछ देखा आपने?’ उन्होंने पूछा। ‘कुछ खास नहीं, लेकिन मैंने बहुत बढ़िया नाश्ता किया।’ ‘कोई बात नहीं। शायद अगली बार किस्मत अच्छी हो।’ मैंने शेर सिंह और उसके बेटे को गुडबाय कहा, उनसे फिर आने का वादा किया और सूमो में सवार हो गया। हम जंगल की सड़क पर मुश्किल से १क्क् मीटर ही गए होंगे कि मिस्टर अरोरा ने अचानक एक झटके के साथ अपनी गाड़ी रोक दी। वहां बिलकुल सड़क के बीचोंबीच सिर्फ कुछ मीटर की दूरी पर हमारे सामने एक विशालकाय बाघ खड़ा था।

बाघ हमें देखकर न तो दहाड़ा और न ही गुर्राया। उसने बस हमें एक नजर बेरुखी से देखा, मुड़ा और बिलकुल भव्य राजसी अंदाज में सड़क पार करके जंगल में चला गया। ‘क्या किस्मत है!’ मिस्टर अरोरा खुशी से चीखे। ‘अब आप शिकायत नहीं कर सकते मिस्टर बॉन्ड। आपने बाघ देख लिया और वह भी दिन-दहाड़े उजाले में। लगातार तीन रातों से जागने के कारण अब आपको बहुत थकान लग रही होगी। एक कप शानदार चाय हो जाए। क्या ख्याल है?’ ‘मेरे ख्याल से मुझे ज्यादा कड़क चीज की जरूरत है’ मैंने कहा। जब हम मुख्य सड़क पर आ गए, मैंने एक साइनबोर्ड की ओर इशारा किया, जिस पर लिखा हुआ था : ‘अंग्रेजी वाइन शॉप।’ यहीं गाड़ी रोक लीजिए और मि. अरोरा ने बड़ी उदारता से मेरी बात मान ली।

-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

माउंट एवरेस्ट की शिला सुनाएगी अपने दर्द की दास्तान

हिमालय के दर्द कॊ दुनिया के सामने रखने का नायाब और निराला तरीका ढूंढा है नेपाल के प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल ने।

अमेरिका की यात्रा पर जा रहे नेपाल अपने साथ दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चॊटी माउंट एवरेस्ट की एक शिला ले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के पर्यावरण और परिस्थितिकी पर पड रहे असर पर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए इस शिला कॊ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कॊ भेंट करेंगे,जॊ हिमालय पर जलवायु परिवर्तन की मौन कथा कह रहा हॊगा। इस शिला को एक शेरपा 20035 फुट ऊंची माउंट एवरेस्ट से लाया है। शिला लाने वाला शेरपा मई में १९वीं बार माउंट एवरेस्ट पर चढाई करके विश्व रिकार्ड बना चुका है।

दरअसल यह शिला पत्थर का एक टुकड़ा भर नहीं हैं बल्कि पहाड़ की बेचैनी उसकी पीड़ा का खामोश गवाह भी है। मानवीय कारगुजारियों और प्रदूषण के आतंक ने हिमालय की ऊंची और विराट चोटियों को किस तरह दरहम-बरहम कर दिया है यह शिला इसका प्रतीक भी है। अमरीका में इस शिला के होने का मतलब यह भी होगा कि
दुनिया वालों अब तो चेतो और प्रदूषण से कराह रहे हिमालय की पुकार सुनो क्योंकि जब हिमालय ही नहीं होगा तो तुम्हारी रंगीन दुनिया भी कहां होगी। क्यों, ठीक है न।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

तुंगनाथ की जादुई दुनिया

हिमालय के बीच तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति किसी जादू की तरह महसूस होती है। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की ऊंचाई पर चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल लम्बत खड़ा हुआ है। मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो ह स्र्ग की ओर जाने वाली सीढ़ियां हैं।

रस्किन बॉन्ड

पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार

हिमालय की आंतरिक श्रंखलाओं में 12,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर सबसे ऊंचा मंदिर है। यह चंद्रशिला चोटी के ठीक सामने स्थित है। तीर्थयात्रा के रास्ते से उलट रास्ता होने के कारण केदारनाथ और बदरीनाथ की तुलना में यहां आवाजाही कम होती है, यद्यपि यह केदार मंदिर का ही एक हिस्सा है। इस मंदिर का पुजारी एक स्थानीय आदमी है। माकू गांव का ही एक ब्राह्मण है। दूसरे केदार मंदिरों के पुजारी दक्षिण भारतीय हैं। यह परंपरा अठारहीं सदी के हिंदू सुधारक शंकराचार्य ने प्रारंभ की थी।


तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति इसे अपनी तरह का अनोखा जादू प्रदान करती है। वहां जाने के लिए गढ़वाल के हिमालय में बसे कुछ बहुत आनंददायक और समशीतोष्ण जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। कोई तीर्थयात्री, कोई ट्रैकर या मेरे जैसा कोई साधारण आदमी जब यहां आता है तो ज्यादा तरोताजा और खुद को ज्यादा बेहतर इंसान महसूस करता है। हम जान पाते हैं कि यह धरतीवेस्त में पहले कैसी थी, जब मनुष्य ने इसका क्षरण करना नहीं शुरू किया था।तुंगनाथ की समूची श्रंखला से गुजरते हुए यह अनुभूति होती है। सड़क आपको लगभग 900 फीट की ऊंचाई पर तुगालबेटा ले जाती है, जहां सुंदर रंगों में पुता हुआ चीड़ और देदार के पेड़ों से घिरा खूबसूरत सा पीडब्ल्यूडी का एक गेस्ट हाउस है।

बहुत से अधिकारी जो इस गेस्ट हाउस में रुक चुके हैं, तुगालबेटा के सौंदर्य के बारे में बताते हैं। और अगर आप अधिकारी नहीं हैं (इसलिए आप उस रेस्ट हाउस में नहीं ठहर सकते) तो आप चोपटा चले जाइए। हां पर एक टूरिस्ट रेस्ट हाउस है। तीर्थयात्रा के पूरे रास्ते पर इस तरह के टूरिस्ट रेस्ट हाउस बने हुए हैं। ये रेस्ट हाउस तीर्थयात्रियों के लिए रदान हैं, लेकिन तीर्थयात्रा के मौसम में (मई से लेकर अक्टूबर तक) ठसाठस भरे रहते हैं और अगर पहले से सूचना दिए बगैर आप हां पहुंच जाएं तो हो सकता है कि आपको किसी दुकान या धर्मशाला में रात गुजारनी पड़े। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की चढ़ाई चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल सीधा खड़ा हुआ है।

मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो हवस्र्ग की ओर जानेवाली सीढ़ियां हैं। रास्ते की ऊंचाई और ढलान के बाजूद मेरे साथी ने जिद की कि हमें शॉर्टकट रास्ते से जाना चाहिए। ऊपर जाने का कुछ रास्ता पार करने के बाद ऊपर सीढ़ियों पर गुच्छे-गुच्छे अल्पाइन घास उगी हुई थी। हम आधे रास्ते में ही फंस गए। फिर हमें बहुत धीरे-धीरे रेंगते हुए नीचे उतरना पड़ा। हमें सांप-सीढ़ीवाले खेल की याद हो आई।

हमेशा वाले रास्ते पर लौटने के बाद हम भगवान गणेश के एक छोटे से मंदिर से गुजरे। इतनी तीखी और ऊंची चढ़ाई के बाजूद मैं थका नहीं था। ठंडी, ताजी हवा और चारों ओर बिखरी हुई हरियाली प्राणायु का काम कर रही थी। खुली ढलानों पर असंख्य जंगली फूल उग आए थे। बटरकप्स, जंगली स्ट्रॉबेरी और फॉरगेट मी नॉट के ढेरों पौधे उसे किसी फूलों की घाटी में तब्दील कर रहे थे। अल्पाइन घास के मैदानों में पहुंचने से पहले हम बुरुंश के जंगलों से होकर गुजरते हैं। लाल-लाल फूलोंवाले बुरुंश के पेड़ 6000 फीट से लेकर 10,000 फीट की ऊंचाई तक पूरे हिमालय में मिलते हैं, लेकिन यहां 10,000 फीट से ऊपर सफेद फूलों की तमाम प्रजातियां मिलीं। प्राय: ये पेड़ 12 फीट से ज्यादा ऊंचे होते हैं और बर्फ के भारी दबा के कारण कुछ तिरछे होकर उगते हैं। बुरुंश के पेड़ हमारे रास्ते में आनेवाले आखिरी पेड़ थे। जैसे ही हम तुंगनाथ पहुंचे, पेड़ हां खत्म हो गए थे और मानो जैसे आकाश और धरती के बीच कुछ छोटी-छोटी घास के सिवा और कुछ भी नहीं था। हमारे ऊपर कुछ कौओं ने झपट्टा मारा। कौए कितनी भी ऊंचाई और मौसम में आसानी से रह लेते हैं। भोपाल की सड़कों और तुंगनाथ की ऊंचाइयों पर बड़े आराम से अपना घर बना लेते हैं।

इन कौओं की तरह किसी भी मौसम में जीवित रहनेवाला दूसरा प्राणी है पिकावा पिकावा एक किस्म का चूहा होता है। यह बात अलग है कि वह चूहा कम और गिनीपिग जैसा ज्यादा दिखता है। उसके कान छोटे होते हैं, पूंछ होती नहीं, स्लेटी-भूरे रंग के बाल और मोटे-मोटे पैर होते हैं। इन नन्हे जको अकसर चुपचाप अपने बिलों से निकलते और भोजन की तलाश करते देखा जा सकता है। अपने सादे भोजन और घने बालों के कारण वे भयंकर ठंड में भी रह सकते हैं। 16,000 फीट तक ऊंचाई पर मिलते हैं, जो किसी भी स्तनधारी जी के लिए सबसे ज्यादा ऊंचाई है। गढ़ाली इस नन्हे से जी को रुंडा कहते हैं। मंदिर के पुजारी भी इसे यही कहकर बुलाते हैं और कहते हैं कि यह इतना बहादुर है कि राशन खाने के लिए किसी भी दुकान या घर में मजे से घुस जाता है। इससे पता चलता है कि उसमें चूहे के गुण ज्यादा हैं। चोपटा से लेकर तुंगनाथ तक चट्टानों के पीछे से झांकते और पहाड़ियों पर नजर आते ये रुंडा हमारे साथ थे। उन्हें हमारी उपस्थिति की कोई पराह नहीं थी। तुंगनाथ में वे मंदिर के पत्थरों के नीचे बिलों में रहते हैं। ये रुंडा एक सूराख से भीतर घुसते हैं और किसी दूसरे सूराख से बाहर निकलते हैं। अंडरग्राउंड रास्तों का उनका नेटर्क बड़ा जटिल है।

जब तक हम पहुंचे बादलों ने तुंगनाथ को पूरी तरह ढंक लिया था, जैसा कि हर दोपहर के बाद होता है। यह मंदिर बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन बहुत प्रभावित करता है। जब आप मंदिर से नीचे की ओर झांकते हैं तो सिर्फ कत्थई और स्लेटी रंग की छतें और पत्थरों के ढेर नजर आते हैं। जब हम वहां से लौटने लगे तो बारिश शुरू हो गई। हम किसी तरह धर्मशाला पहुंचे। कौए अभी भी धुंधले आसमान में मंडरा रहे थे, रुंडा ने बिल में से अपनी नाक बाहर निकाली, शायद मौसम का जायजा लेने के लिए। तूफान की गड़गड़ाहट हुई और वह तेजी सेवपस अपने बिल में घुस गया। अभी हम तुंगनाथ से नीचे आधी सीढ़ियां ही उतरे थे कि बहुत जोरों की बारिश होने लगी। रास्ते में हमें कुछ बंगाली तीर्थयात्री मिले, जो तेज तूफान में सीधे ऊपर चले आ रहे थे। उनके पास छाता या रेनकोट नहीं था, लेकिन वे जरा भी निरुत्साहित नहीं थे। मेरी कलाई की घड़ी एक चट्टान से टकराई और उसका कांच टूट गया। उस वक्त वहां समय कोई मायने भी नहीं रखता था।

नदी, चट्टानें, पेड़-पौधे, पशु और पक्षी, ये सभी मिथकों और रोजमर्रा की पूजा-अर्चना में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन एकांत सुदूर इलाकों में प्रकृति के साथ इनका तादात्म्य साफ दिखाई देता है, जहां ईश्रवर और पहाड़ों का सहअस्तित् विद्धमान है। अभी तक भौतिकादी दुनिया की छाया से अछूता तुंगनाथ खुले हृदय और मस्तिष्क से यहां आनेवालों पर अपना जादू करता है।


दैनिक भास्कर से सभार

सोमवार, 14 सितंबर 2009

दिल में उतरती गंगाजी

इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।


रस्किन बॉन्ड


पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार


मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’


कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपा में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।


यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।


गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।


गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।


दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।


विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।


विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।

विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।

दैनिक भास्कर से सभार

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

बद्रीनाथ को जाती सड़क

अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगान विष्णु अवतरित हुए।

रस्किन बॉन्ड
पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार

अगर आपने मंदाकिनी घाटी की यात्रा की है और अलकनंदा की घाटी तक भी गए हैं तो आपको दोनों में काफी फर्क महसूस हुआ होगा। मंदाकिनी घाटी ज्यादा नाजुक, समृद्ध और हरी-भरी है। कई जगह तो ऐसा लगता है मानो सचमुच चरागाह उग आए हैं, जबकि अलकनंदा घाटी ज्यादा आकर्षक, ढलान जैसी, खतरनाक और अकसर उन लोगों के प्रति कठोर होती है, जो उसके आसपास की जगहों में रहते हैं और अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए काम करते हैं। जैसे ही हम चमोली से आगे बढ़ते हैं और बद्रीनाथ की सीधी, घुमादार चढ़ाई शुरू होती है, प्रकृति का चेहरा बहुत नाटकीय ढंग से बदलने लगता है। नदी की ओर जाते हुए हरे-भरे ढलुआ मैदान गायब होने लगते हैं। यहां पहाड़ ज्यादा जोखिम भरे ढलुआ चट्टानों में बदलने लगते हैं, पहाड़ तीखे और संकरे होते जाते हैं और नीचे बह रही नदी संकरे पहाड़ी रास्तों के संग कल-कल करती हुई भगीरथ, देप्रयाग पहुंचने के लिए बेताब हो रही होती है।

बद्रीनाथ मंदिर प्रबंधन का रिसॉर्ट जोशीमठ बलखाती हुई अलकनंदा के साथ-साथ ऊंचाई पर बना हुआ चिड़ियों के बैठने का अड्डा है। ६००० फीट की ऊंचाई पर मौसम बहुत सुहाना हो जाता है। यह खासा बड़ा कस्बा है। हालांकि आसपास की पहाड़ियां बिलकुल निर्जन नजर आती हैं, लेकिन यहां एक महान वृक्ष है, जो वक्त के थपेड़ों के बाद भी ज्यों का त्यों खड़ा है। यह प्राचीन शहतूत का पेड़ है। इसे कल्पवृक्ष (कामना पूर्ण करने वाला) कहते हैं। इसी वृक्ष के नीचे सदियों पूर्व शंकराचार्य ने ध्यान किया था। कहते हैं कि यह वृक्ष २००० वर्ष पुराना है और यह निश्चित ही मसूरी में मेरे चार कमरों के खासे बड़े फ्लैट से भी ज्यादा बड़ा है। मैंने कुछ बहुत विशालकाय वृक्ष देखे हैं, लेकिन यह संभतया उनमें सबसे प्राचीन और सबसे विशाल है। मुझे खुशी है कि शंकराचार्य ने इस वृक्ष के नीचे तपस्या की और इसे हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया। वरना यह पेड़ भी उन्हीं तमाम पेड़ों और जंगल की राह पर चला जाता, जो कभी इस इलाके में बहुत फले-फूले थे।

एक छोटा लड़का मुझसे कहता है कि यह कल्प वृक्ष है, इसलिए मैं इससे कुछ मांग सकता हूं। मैं मांगता हूं कि उसी की तरह हां के और पेड़ भी हरे-भरे रहें। ‘तुमने क्या मांगाज्, मैंने उस लड़के से पूछा। ‘मैंने मांगा कि आप मुझे पांच रुपए दोगे, उसने बड़ी चतुराई से जवाब दिया। उसकी इच्छा पूरी हो गई। मेरी इच्छा भविष्य की अनिश्चितताओं में छिपी हुई है, लेकिन उस लड़के ने मुझे कामना करने का पाठ सिखाया।

बद्रीनाथ में रहनेवाले लोग नंबर में यहां आ जाते हैं, जब मंदिर छह महीने के लिए पूरी तरह बर्फ से ढंक जाता है। यह बहुत खुशनुमा फैला हुआ पहाड़ी रिसॉर्ट है, लेकिन यहां पर छोटे होटल, आधुनिक दुकानें और सिनेमा हॉल भी हैं। जोशीमठ का विकास और हां आधुनिकता के पांव पड़ने की शुरुआत १९६० के बाद से हुई, जब पैदल तीर्थयात्रा के मार्ग पर पक्की सड़क बनने की शुरुआत हुई, जो तीर्थयात्रियों को बद्रीनाथ तक लेकर जाती है। अब तीर्थयात्री उस कल्प वृक्ष की छांव से वंचित रह जाते हैं क्योंकि वह मुख्य सड़क के रास्ते से थोड़ा हटकर है। अब लोग बस, निजी गाड़ियों या लक्जरी कोच से उतरते हैं, रास्ते में पड़नेवाले किसी रेस्त्रां में तरोताजा होते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन अब भी कुछ लोग हैं जो बहुत कठिन रास्ता पार करके यहां तक आते हैं। खासकर वे लोग जिन्होंने संन्यास ले लिया है। ये धूप और बारिश, झाड़ियों से उड़नेवाली धूल और रास्ते के नुकीले कंकड़-पत्थरों की परवाह किए बगैर बद्रीनाथ से ऋषिकेश तक की यात्रा करते हैं। यहां पर एक ऐसा युवक मिला जो रोलर स्केट पहनकर पूरी यात्रा कर रहा था। उसके ऐसा करने की वजह न तो धार्मिक थी और न आध्यात्मिक। उसने बताया कि उसकी इच्छा है कि उसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस में शामिल हो। उसने मुझे अपनी इस उपलब्धि का गवाह होने के लिए कहा। वह चाहता था कि मैं बद्रीनाथ से लेकर ऋषिकेश तक रोलर स्केट्स पहनकर की जा रही उसकी पूरी यात्रा में शामिल होऊं। ‘बहुत खुशी से,जब मैंने उससे कहा। लेकिन तुम तो नीचे की ओर जा रहे हो और मैं ऊपर जा रहा हूं। मैंने उसे शुभकामनाएं दीं और कहा कि मैं गिनीज बुक में उसका नाम आने का इंतजार करूंगा। आखिरकार हम उस बंजर घाटी में पहुंच ही गए, तेज हाओं ने जिसे अपनी चपेट में ले रखा था। बद्रीनाथ की यह घाटी तेजी से विकसित होता कस्बा है। यह बहुत जिंदादिल और फलती-फूलती जगह है। ऊंची-ऊंची बर्फ से ढंकी चोटियों ने इसे चारों ओर से घेर रखा है। यहां होटलों और धर्मशालाओं की कमी नहीं है। इसके बाजूद हर होटल और रेस्ट हाउस हमेशा खचाखच भरे रहते हैं। तीर्थयात्रा के पूरे इलाके में यह सबसे ऊंची जगह है।

जिस तरह केदारनाथ हिमालय की घाटी में स्थित भगवान शिव के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है, उसी तरह बद्रीनाथ वैष्ण संप्रदाय के लोगों के लिए पूजा का सबसे पवित्र स्थान है। इसी जगह भगवान विष्णु अपने भक्तों के समक्ष स्यंभू प्रकट हुए थे। उनकी चार भुजाएं थीं और मोतियों का मुकुट माला पहनी हुई थी। श्रद्धालुओं का कहना है कि आज भी महान कुंभ के दिन नीलकंठ की चोटी पर भगवन विष्णु के दर्शन किए जा सकते हैं। नीलकंठ चोटी इस समूचे क्षेत्र में सबसे विशाल और ऊंची है और हां पर मुश्किल से ही कोई पेड़ या वनस्पति जीति रह पाते हैं। नीलकंठ की चोटी जादुई और प्रेरणा देनेवाली है। यह २१,६४० फीट ऊंची है और उसकी चोटी से बद्रीनाथ सिर्फ पांच मील दूर है। जिस शाम हम वहां पहुंचे थे, हम चोटी को नहीं देख सके क्योंकि बादलों ने उसे पूरी तरह ढंक लिया था।
बद्रीनाथ खुद बादलों की धुंध के बीच छिपा हुआ था, लेकिन हमने किसी तरह अपना रास्ता बनाया और मंदिर तक पहुंचे। यह लगभग ५० फीट ऊंची रंग-बिरंगी और खूबसूरती से सजाई गई इमारत है। ऊपर चमकदार छत है। मंदिर में काले पत्थर पर उकेरी गई भगान विष्णु की एक प्रतिमा है, जिसमें ध्यान की मुद्रा में खड़े हुए हैं। लोगों का अंतहीन काफिला उस मंदिर से गुजरता है, जो भगवान विष्णु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं और उनसे अपनी समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं।उस रंग-बिरंगे छोटे से मंदिर में चहल-पहल भरी खुशनुमा भीड़ का हिस्सा होना और एक पवित्र नदी को उसके उद्गम के इतने निकट से देखना बहुत सुखद था। और अगले ही दिन सुबह-सुबह मुझे इस सुखद अनुभव से गुजरने का मौका मिला। अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हवा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगवान विष्णु अतरित हुए। मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं था।

(दैनिक भास्कर से सभार)

सूख गया ब्रह्मा जी का सरोवर

पुष्कर में होटल सरोवर का यह एकमात्र कमरा है, जहाँ से प्रसिद्ध पुष्कर झील का पूरा-पूरा नज़ारा होता है। लेकिन यदि इस समय इस होटल की कबूतरों भरी बालकनी से आप झील का नज़ारा देखेंगे तो सिहर उठेंगे। क्या यही वह प्रसिद्ध झील है? इसे क्या हो गया है? बड़ा ही भयानक नज़ारा है। एक काले जादू की तरह समूचा पुष्कर तालाब ही गायब हो गया है। एक गाय झील के बीचो बीच खड़ी होकर घास चर रही है, यह देखकर दिल टूट जाता है।
ऐसा माना जाता है कि नागा कुण्ड के पानी से निःस्संतान दम्पतियों को आशा बँधती है, अब पूरी तरह सूख चुका है।

यही हाल रूप कुण्ड का भी है, जो रूप कुण्ड सुन्दरता और शक्ति प्रदान करने की ताकत रखता था, आज अपनी चमक खो चुका है। चारों ओर नज़र दौड़ाईये, चाहे वह कपिल व्यापी हो अथवा अन्य 49 घाटों के किनारे, सब दूर एक ही नज़ारा है, सूखा हुआ पाट, पानी गायब। जिन घाटों पर श्रद्धालु पवित्र डुबकियाँ लगाते थे अब वह वीरान पड़े हैं। हालांकि अभी भी तीन घाट ऐसे हैं जहाँ डुबकी लगाई जा सकती है, लेकिन वह पानी भी पास के बोरवेल का है और पानी का स्तर तथा क्षेत्र एक बड़े कमरे जितना ही है जो कि कार्तिक पूर्णिमा पर पुष्कर आने वाले पाँच लाख श्रद्धालुओं का बोझ नहीं सह सकेगा।जब से सर्वशक्तिमान ब्रह्मा जी ने इस पवित्र सरोवर का निर्माण किया है, तब से लेकर आज तक यह सिर्फ़ एक बार ही सूखा है, वह भी 1970 के भीषण सूखे के दौरान। तो फ़िर अब क्या हुआ? बहरहाल, सबसे पहले तो इस सरोवर के कायाकल्प की सरकारी योजना बुरी तरह भटककर विफ़ल हो गई, और रही-सही कसर इन्द्र देवता ने वर्षा नहीं करके पूरी कर दी। अब इस बात की पूरी सम्भावना है कि 25 अक्टूबर से 2 नवम्बर के दौरान लगने वाले प्रसिद्ध पुष्कर मेले के लिये आने वाले लाखों श्रद्धालु और विदेशी पर्यटकों को यह सरोवर सूखा ही मिले।जब हम सनसेट कैफ़े में बैठे थे, तब अचानक मूसलाधार बारिश की शुरुआत हुई। इस बारिश की शुरुआत ने ही समूचे शहर में मानो जान फ़ूंक दी, एक व्यक्ति सरोवर के किनारे-किनारे दौड़ता हुआ चिल्लाया "अभी भी आशा बाकी है, शायद जल्दी ही यह सरोवर भर जायेगा…"। लेकिन उत्साह अभी ठीक से शुरु भी नहीं हुआ था कि बारिश थम गई, और लोग फ़िर उदास हो गये। अजमेर से कुछ ही दूरी पर घाटी में पुष्कर का पवित्र सरोवर स्थित है और यह विशाल झील शुद्ध जल से भरी हुई होती है, यह पानी अमूमन आसपास की पहाड़ियों से एकत्रित होने वाला वर्षाजल ही है।

हिन्दू धर्मालु इसे "तीर्थराज" कहते हैं, अर्थात सभी तीर्थों में सबसे पवित्र, इस सम्बन्ध में कई लेख और पुस्तकें भी यहाँ मिलती हैं। कहा जाता है कि अप्सरा मेनका ने इस पवित्र सरोवर में डुबकी लगाई थी और ॠषि विश्वामित्र ने भी यहाँ तपस्या की थी, लेकिन सबसे बड़ी मान्यता यह है कि भगवान ब्रह्मा ने खुद पुष्कर का निर्माण किया है।
पुष्कर में अभी तक सिर्फ़ कुल चार दिन ही अच्छी बारिश हुई है, लेकिन सरोवर में अभी तक जरा भी पानी नहीं पहुँचा है। क्षेत्रीय रहवासी मनोज पंडित कहते हैं कि सरोवर तक पानी पहुँचने के रास्ते में एक नहर का निर्माण कार्य चल रहा है, यदि वह रास्ता बन्द न होता तो शायद सरोवर में थोड़ा सा पानी पहुँच सकता था, लेकिन मुझे लगता है कि कार्तिक पूर्णिमा तक सरोवर में पानी भरने वाला नहीं है… अब सब कुछ ब्रह्माजी पर ही है…"। लेकिन मानव-निर्मित आपदा पर ब्रह्माजी भी क्या करेंगे?गत एक वर्ष से राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना के अन्तर्गत इस सरोवर के कायाकल्प और तलहटी में जमी गाद निकालने हेतु काम चल रहा है, जिसके लिये ठेकेदारों ने पूरी झील को खाली किया है, लेकिन शायद इसे पुनः भरने का काम परमात्मा पर छोड़ दिया है। हालांकि झील का लगभग 85% हिस्सा साफ़ करके गाद निकाली जा चुकी है, लेकिन झीलों को पानी सप्लाई करने वाली नहरों का काम अभी एक तिहाई भी खत्म नहीं हो सका है।

यदि सब कुछ ठीक रहा तो शायद यह समूचा काम अगले वर्ष नवम्बर तक खत्म होगा। नहर निर्माण के इंचार्ज ओपी हिंगर कहते हैं, "सरोवर के भरने का सिर्फ़ एक ही तरीका है, भारी वर्षा, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते…"। सरकार के प्रोजेक्ट इंजीनियर आरके बंसल भी स्थिति से परेशान हैं, लेकिन सारा दोष वे कम वर्षा पर ही मढ़ते हैं। वे कहते हैं कि यह सामूहिक जिम्मेदारी है और इसमें किसी एक व्यक्ति को दोष देना ठीक नहीं है। इस सारी प्रक्रिया से मनोज पंडित बुरी तरह झल्लाते हैं और उस डेनिश इंजीनियर को याद करते हैं, जिसने यह सुझाव दिया था कि सरोवर को तीन भागों में बाँटा जाये और एक के बाद एक उसे खाली करके गाद निकाली जाये ताकि एकदम झील खाली न हो, लेकिन उसकी एक न सुनी गई।मनोज पंडित की शिकायत सही मालूम होती है, जब हम देखते हैं कि सरोवर की फ़ीडर नहर एकदम रेगिस्तान जैसी सूखी पड़ी है, क्या नहर का काम पहले नहीं किया जा सकता था? पुष्कर नगरपालिका के अध्यक्ष गोपाललाल शर्मा ठेकेदारों की कार्यपद्धति और काम की गति से खासे नाराज़ हैं, वे कहते हैं "दिल्ली में बैठे इंजीनियरों ने कम्प्यूटर पर बैठकर झील की सफ़ाई का कार्यक्रम बना लिया है, आप देखिये किस बुरी तरह से उन्होंने काम बिगाड़कर रखा है। सरोवर के गहरीकरण और गाद सफ़ाई के नाम पर ऊबड़खाबड़ खुदाई की गई है और उसे समतल भी नहीं किया गया है। घाटों के आसपास गहरी खुदाई कर दी गई है, जो कि डुबकी लगाने वाले श्रद्धालुओं के लिये खतरे का सबब बन सकती है और इससे पानी का स्तर भी एक सा नहीं रहेगा, कुछ घाट ऊँचे-नीचे हो जायेंगे। लेकिन यह सोच तो काफ़ी आगे की है, फ़िलहाल जबकि झील भरने के हल्के संकेत ही हैं, बदतर बात यह है कि तलछटी में भारी कीचड़ की वजह से वर्षाजल के लिये एक छलनी का काम करने वाली मिट्टी भी नष्ट हो रही है। सरोवर का जलचर जीवन पहले ही गणेश मूर्तियों के विसर्जन की वजह से समाप्त हो चला था। इन मूर्तियों पर लगे हुए जहरीले पेंट की वजह से सरोवर में मछलियों के जीवित बचने के आसार कम हो गये थे, हालांकि विसर्जन की इस परम्परा को बन्द कर दिया गया है। इस पवित्र पुष्कर सरोवर की वजह से यहाँ पर्यटन एक मुख्य आय का स्रोत है। टूरिस्ट एजेण्ट शर्मा कहते हैं कि पर्यटन उद्योग से पुष्कर शहर करोड़ों का व्यवसाय करता है, लेकिन पानी की कमी की वजह से लगता है इस वर्ष भारी नुकसान होगा। जापानी हरी चाय बेचने वाले सलीम कहते हैं यह सबसे खराब टूरिस्ट सीजन साबित होगा, मैंने अपने बचपन में सिर्फ़ एक बार 1973 में इस झील को सूखा देखा था।

स्थानीय व्यक्ति कहते हैं कि यदि आसपास के पहाड़ों पर लगातार चार घण्टे भी तेज बारिश हो जाये तो भी यह सरोवर भर जाये, लेकिन ऐसा होने की उम्मीद अब कम ही है। पुष्कर नगर में घूमते वक्त सतत यह महसूस होता है कि लगभग 500 मन्दिरों वाले इस शहर में सारे नगरवासी एक स्वर में यह प्रार्थना कर रहे हैं कि हल्की बारिश को तेज बाढ़ में बदल दें, ताकि सरोवर भर सके। शायद भगवान उनकी प्रार्थना सुन लें…


(मूल स्रोत: open)(लेखक का ईमेलः kabeer@openmedianetwork.in)(हिन्दी अनुवादः इण्डिया वाटर पोर्टल हिन्दी)

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

खतरे के दौर से गुजर रहीं बडी नदियां

वैश्विक धारा के प्रवाह को लेकर हुए एक व्यापक अध्ययन के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले कुछ क्षेत्रों में नदियां अपना पानी खो रहीं हैं. अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेयरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों के नेतृत्व हुए इस अध्ययन के मुताबिक कई मामलों में प्रवाह के कम होने की वजह जलवायु परिवर्तन से जुड़ी हुई है.इस अध्ययन के नतीजे अमेरिकन मेट्योरोलॉजिकल सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे.

1948 से 2004 के बीच धाराओं के प्रवाह की जांच के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि दुनिया की एक तिहाई सबसे बड़ी नदियों के जल प्रवाह में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं. इस दौरान अगर किसी एक नदी का प्रवाह बढा है तो उसके अनुपात में 2.5 नदियों के प्रवाह में कमी आई है. उत्तरी चीन की पीली नदी, भारत की गंगा नदी, पश्चिम अफ्रीका की नाइजर, संयुक्त राज्य अमेरिका की कोलोराडो बडी आबादी वाले इलाकों की प्रमुख नदियां हैं जिनके प्रवाह में गिरावट आई है.

इसके विपरीत आर्कटिक महासागर जैसे कम आबादी वाले इलाकों में अधिक धारा प्रवाह की रिपोर्ट है, जहां बर्फ तेजी से पिघल रहा है. संस्था के वैज्ञानिक और प्रमुख लेखक अगुई दाई कहते हैं, "नदियों के प्रवाह के घटने से शुद्ध जल के संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है, खास तौर पर उन इलाकों में जनसंख्या बढ़ने के कारण पानी की अधिक मांग है. स्वच्छ जल एक महत्वपूर्ण संसाधन है लिहाजा इसमें कमी एक बड़ी चिंता का विषय हैं." नदियों के प्रवाह को कई चीजें प्रभावित कर सकती हैं जैसे बांध और कृषि व उद्योग के लिए पानी को मोडा जाना. हालांकि, शोधकर्ताओं का मानना है कि कई मामलों में कम प्रवाह वैश्विक जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है, जिसके कारण वाष्पीकरण की दर में वृद्धि हो रही है. यह अध्ययन पारिस्थितिक और जलवायु से संबंधित कई व्यापक चिंताओं को जन्म देती है.

विश्व के महान नदियों का जल पोषक तत्वों और खनिजों के निक्षेपों समेत महासागर में विलीन होता है. इस मीठे पानी का प्रवाह वैश्विक महासागर संचलन पैटर्न, को प्रभावित करता है जो लवणता और तापमान में परिवर्तन से संचालित होते हैं और दुनिया की जलवायु को विनियमित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. दाई कहते हैं, हालांकि ताजे पानी के प्रवाह में हाल के परिवर्तनों के प्रभाव अपेक्षाकृत न्यून हैं और विश्व की प्रमुख नदियों के मुंहाने पर ही असर डालते हैं, मगर वैश्विक महासागर में ताजा पानी के संतुलन की दीर्घकालिक निगरानी की आवश्यकता है.

दुनिया की प्रमुख नदियों पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के बारे में वैज्ञानिकों का रुख अस्पष्ट है. कंप्यूटर मॉडल के साथ किए गए शोध के अनुसार आर्कटिक के बाहर नदियों के प्रवाह में कमी की वजह मध्य और निम्न अक्षांशों का असर और उच्च तापमान के कारण में वाष्पीकरण का होना है. इससे पहले, प्रमुख नदियों के कम व्यापक विश्लेषण से संकेत मिले थे कि वैश्विक धारा प्रवाह में वृद्धि हो रही है. दाई और उनके सह लेखकों ने दुनिया की 925 बड़ी नदियों के प्रवाह का विश्लेषण किया है, इस दौरान उन्होंने कंप्यूटर के साथ-साथ धारा प्रवाह की वास्तविक माप का भी सहारा लिया है. कुल मिलाकर, इस अध्ययन यह नतीजा निकला है कि 1948 से 2004 के बीच प्रशांत महासागर में गिरने वाले नदियों के जल की वार्षिक मात्रा में 6 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई है, यानी 526 क्यूबिक किलोमीटर जो मिसिसिपी नदी हर साल मिलने वाले पानी की मात्रा के बराबर है.

हिंद महासागर के वार्षिक निक्षेप में 3 प्रतिशत या 140 क्यूबिक किलोमीटर की गिरावट है. इसके विपरीत आर्कटिक महासागर के वार्षिक निक्षेप में 10 प्रतिशत या 460 क्यूबिक किलोमीटर की बढोत्तरी दर्ज की गई है. संयुक्त राज्य अमेरिका की कोलंबिया नदी के प्रवाह में 1948-2004 के अध्ययन अवधि के दौरान 14 प्रतिशत की गिरावट आई, ऐसा मुख्यतः पानी के अत्यधिक उपयोग की वजह से हुआ. दक्षिण एशिया में ब्रह्मपुत्र और चीन में यांग्त्ज़ी जैसी कुछ नदियों के प्रवाह में या तो स्थिरता या वृद्धि दर्ज की गई है. लेकिन हिमालय के ग्लेशियरों के क्रमिक रूप से गायब होने के कारण भविष्य के दशक में इनके प्रवाह में तेजी से गिरावट आ सकती है.