हिमालय के बीच तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति किसी जादू की तरह महसूस होती है। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की ऊंचाई पर चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल लम्बत खड़ा हुआ है। मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो ह स्र्ग की ओर जाने वाली सीढ़ियां हैं।
रस्किन बॉन्ड
पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार
हिमालय की आंतरिक श्रंखलाओं में 12,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर सबसे ऊंचा मंदिर है। यह चंद्रशिला चोटी के ठीक सामने स्थित है। तीर्थयात्रा के रास्ते से उलट रास्ता होने के कारण केदारनाथ और बदरीनाथ की तुलना में यहां आवाजाही कम होती है, यद्यपि यह केदार मंदिर का ही एक हिस्सा है। इस मंदिर का पुजारी एक स्थानीय आदमी है। माकू गांव का ही एक ब्राह्मण है। दूसरे केदार मंदिरों के पुजारी दक्षिण भारतीय हैं। यह परंपरा अठारहीं सदी के हिंदू सुधारक शंकराचार्य ने प्रारंभ की थी।
तुंगनाथ की एकांत उपस्थिति इसे अपनी तरह का अनोखा जादू प्रदान करती है। वहां जाने के लिए गढ़वाल के हिमालय में बसे कुछ बहुत आनंददायक और समशीतोष्ण जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। कोई तीर्थयात्री, कोई ट्रैकर या मेरे जैसा कोई साधारण आदमी जब यहां आता है तो ज्यादा तरोताजा और खुद को ज्यादा बेहतर इंसान महसूस करता है। हम जान पाते हैं कि यह धरतीवेस्त में पहले कैसी थी, जब मनुष्य ने इसका क्षरण करना नहीं शुरू किया था।तुंगनाथ की समूची श्रंखला से गुजरते हुए यह अनुभूति होती है। सड़क आपको लगभग 900 फीट की ऊंचाई पर तुगालबेटा ले जाती है, जहां सुंदर रंगों में पुता हुआ चीड़ और देदार के पेड़ों से घिरा खूबसूरत सा पीडब्ल्यूडी का एक गेस्ट हाउस है।
बहुत से अधिकारी जो इस गेस्ट हाउस में रुक चुके हैं, तुगालबेटा के सौंदर्य के बारे में बताते हैं। और अगर आप अधिकारी नहीं हैं (इसलिए आप उस रेस्ट हाउस में नहीं ठहर सकते) तो आप चोपटा चले जाइए। हां पर एक टूरिस्ट रेस्ट हाउस है। तीर्थयात्रा के पूरे रास्ते पर इस तरह के टूरिस्ट रेस्ट हाउस बने हुए हैं। ये रेस्ट हाउस तीर्थयात्रियों के लिए रदान हैं, लेकिन तीर्थयात्रा के मौसम में (मई से लेकर अक्टूबर तक) ठसाठस भरे रहते हैं और अगर पहले से सूचना दिए बगैर आप हां पहुंच जाएं तो हो सकता है कि आपको किसी दुकान या धर्मशाला में रात गुजारनी पड़े। चोपटा से तुंगनाथ की दूरी सिर्फ साढ़े तीन मील है, लेकिन उस थोड़ी सी दूरी में हम तकरीबन 300 फीट की चढ़ाई चढ़ते हैं। ऐसा लगता है कि रास्ता बिल्कुल सीधा खड़ा हुआ है।
मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि मानो हवस्र्ग की ओर जानेवाली सीढ़ियां हैं। रास्ते की ऊंचाई और ढलान के बाजूद मेरे साथी ने जिद की कि हमें शॉर्टकट रास्ते से जाना चाहिए। ऊपर जाने का कुछ रास्ता पार करने के बाद ऊपर सीढ़ियों पर गुच्छे-गुच्छे अल्पाइन घास उगी हुई थी। हम आधे रास्ते में ही फंस गए। फिर हमें बहुत धीरे-धीरे रेंगते हुए नीचे उतरना पड़ा। हमें सांप-सीढ़ीवाले खेल की याद हो आई।
हमेशा वाले रास्ते पर लौटने के बाद हम भगवान गणेश के एक छोटे से मंदिर से गुजरे। इतनी तीखी और ऊंची चढ़ाई के बाजूद मैं थका नहीं था। ठंडी, ताजी हवा और चारों ओर बिखरी हुई हरियाली प्राणायु का काम कर रही थी। खुली ढलानों पर असंख्य जंगली फूल उग आए थे। बटरकप्स, जंगली स्ट्रॉबेरी और फॉरगेट मी नॉट के ढेरों पौधे उसे किसी फूलों की घाटी में तब्दील कर रहे थे। अल्पाइन घास के मैदानों में पहुंचने से पहले हम बुरुंश के जंगलों से होकर गुजरते हैं। लाल-लाल फूलोंवाले बुरुंश के पेड़ 6000 फीट से लेकर 10,000 फीट की ऊंचाई तक पूरे हिमालय में मिलते हैं, लेकिन यहां 10,000 फीट से ऊपर सफेद फूलों की तमाम प्रजातियां मिलीं। प्राय: ये पेड़ 12 फीट से ज्यादा ऊंचे होते हैं और बर्फ के भारी दबा के कारण कुछ तिरछे होकर उगते हैं। बुरुंश के पेड़ हमारे रास्ते में आनेवाले आखिरी पेड़ थे। जैसे ही हम तुंगनाथ पहुंचे, पेड़ हां खत्म हो गए थे और मानो जैसे आकाश और धरती के बीच कुछ छोटी-छोटी घास के सिवा और कुछ भी नहीं था। हमारे ऊपर कुछ कौओं ने झपट्टा मारा। कौए कितनी भी ऊंचाई और मौसम में आसानी से रह लेते हैं। भोपाल की सड़कों और तुंगनाथ की ऊंचाइयों पर बड़े आराम से अपना घर बना लेते हैं।
इन कौओं की तरह किसी भी मौसम में जीवित रहनेवाला दूसरा प्राणी है पिकावा पिकावा एक किस्म का चूहा होता है। यह बात अलग है कि वह चूहा कम और गिनीपिग जैसा ज्यादा दिखता है। उसके कान छोटे होते हैं, पूंछ होती नहीं, स्लेटी-भूरे रंग के बाल और मोटे-मोटे पैर होते हैं। इन नन्हे जको अकसर चुपचाप अपने बिलों से निकलते और भोजन की तलाश करते देखा जा सकता है। अपने सादे भोजन और घने बालों के कारण वे भयंकर ठंड में भी रह सकते हैं। 16,000 फीट तक ऊंचाई पर मिलते हैं, जो किसी भी स्तनधारी जी के लिए सबसे ज्यादा ऊंचाई है। गढ़ाली इस नन्हे से जी को रुंडा कहते हैं। मंदिर के पुजारी भी इसे यही कहकर बुलाते हैं और कहते हैं कि यह इतना बहादुर है कि राशन खाने के लिए किसी भी दुकान या घर में मजे से घुस जाता है। इससे पता चलता है कि उसमें चूहे के गुण ज्यादा हैं। चोपटा से लेकर तुंगनाथ तक चट्टानों के पीछे से झांकते और पहाड़ियों पर नजर आते ये रुंडा हमारे साथ थे। उन्हें हमारी उपस्थिति की कोई पराह नहीं थी। तुंगनाथ में वे मंदिर के पत्थरों के नीचे बिलों में रहते हैं। ये रुंडा एक सूराख से भीतर घुसते हैं और किसी दूसरे सूराख से बाहर निकलते हैं। अंडरग्राउंड रास्तों का उनका नेटर्क बड़ा जटिल है।
जब तक हम पहुंचे बादलों ने तुंगनाथ को पूरी तरह ढंक लिया था, जैसा कि हर दोपहर के बाद होता है। यह मंदिर बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन बहुत प्रभावित करता है। जब आप मंदिर से नीचे की ओर झांकते हैं तो सिर्फ कत्थई और स्लेटी रंग की छतें और पत्थरों के ढेर नजर आते हैं। जब हम वहां से लौटने लगे तो बारिश शुरू हो गई। हम किसी तरह धर्मशाला पहुंचे। कौए अभी भी धुंधले आसमान में मंडरा रहे थे, रुंडा ने बिल में से अपनी नाक बाहर निकाली, शायद मौसम का जायजा लेने के लिए। तूफान की गड़गड़ाहट हुई और वह तेजी सेवपस अपने बिल में घुस गया। अभी हम तुंगनाथ से नीचे आधी सीढ़ियां ही उतरे थे कि बहुत जोरों की बारिश होने लगी। रास्ते में हमें कुछ बंगाली तीर्थयात्री मिले, जो तेज तूफान में सीधे ऊपर चले आ रहे थे। उनके पास छाता या रेनकोट नहीं था, लेकिन वे जरा भी निरुत्साहित नहीं थे। मेरी कलाई की घड़ी एक चट्टान से टकराई और उसका कांच टूट गया। उस वक्त वहां समय कोई मायने भी नहीं रखता था।
नदी, चट्टानें, पेड़-पौधे, पशु और पक्षी, ये सभी मिथकों और रोजमर्रा की पूजा-अर्चना में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन एकांत सुदूर इलाकों में प्रकृति के साथ इनका तादात्म्य साफ दिखाई देता है, जहां ईश्रवर और पहाड़ों का सहअस्तित् विद्धमान है। अभी तक भौतिकादी दुनिया की छाया से अछूता तुंगनाथ खुले हृदय और मस्तिष्क से यहां आनेवालों पर अपना जादू करता है।
दैनिक भास्कर से सभार
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