शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

बद्रीनाथ को जाती सड़क

अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगान विष्णु अवतरित हुए।

रस्किन बॉन्ड
पद्मश्री ब्रिटिश मूल के साहित्यकार

अगर आपने मंदाकिनी घाटी की यात्रा की है और अलकनंदा की घाटी तक भी गए हैं तो आपको दोनों में काफी फर्क महसूस हुआ होगा। मंदाकिनी घाटी ज्यादा नाजुक, समृद्ध और हरी-भरी है। कई जगह तो ऐसा लगता है मानो सचमुच चरागाह उग आए हैं, जबकि अलकनंदा घाटी ज्यादा आकर्षक, ढलान जैसी, खतरनाक और अकसर उन लोगों के प्रति कठोर होती है, जो उसके आसपास की जगहों में रहते हैं और अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए काम करते हैं। जैसे ही हम चमोली से आगे बढ़ते हैं और बद्रीनाथ की सीधी, घुमादार चढ़ाई शुरू होती है, प्रकृति का चेहरा बहुत नाटकीय ढंग से बदलने लगता है। नदी की ओर जाते हुए हरे-भरे ढलुआ मैदान गायब होने लगते हैं। यहां पहाड़ ज्यादा जोखिम भरे ढलुआ चट्टानों में बदलने लगते हैं, पहाड़ तीखे और संकरे होते जाते हैं और नीचे बह रही नदी संकरे पहाड़ी रास्तों के संग कल-कल करती हुई भगीरथ, देप्रयाग पहुंचने के लिए बेताब हो रही होती है।

बद्रीनाथ मंदिर प्रबंधन का रिसॉर्ट जोशीमठ बलखाती हुई अलकनंदा के साथ-साथ ऊंचाई पर बना हुआ चिड़ियों के बैठने का अड्डा है। ६००० फीट की ऊंचाई पर मौसम बहुत सुहाना हो जाता है। यह खासा बड़ा कस्बा है। हालांकि आसपास की पहाड़ियां बिलकुल निर्जन नजर आती हैं, लेकिन यहां एक महान वृक्ष है, जो वक्त के थपेड़ों के बाद भी ज्यों का त्यों खड़ा है। यह प्राचीन शहतूत का पेड़ है। इसे कल्पवृक्ष (कामना पूर्ण करने वाला) कहते हैं। इसी वृक्ष के नीचे सदियों पूर्व शंकराचार्य ने ध्यान किया था। कहते हैं कि यह वृक्ष २००० वर्ष पुराना है और यह निश्चित ही मसूरी में मेरे चार कमरों के खासे बड़े फ्लैट से भी ज्यादा बड़ा है। मैंने कुछ बहुत विशालकाय वृक्ष देखे हैं, लेकिन यह संभतया उनमें सबसे प्राचीन और सबसे विशाल है। मुझे खुशी है कि शंकराचार्य ने इस वृक्ष के नीचे तपस्या की और इसे हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया। वरना यह पेड़ भी उन्हीं तमाम पेड़ों और जंगल की राह पर चला जाता, जो कभी इस इलाके में बहुत फले-फूले थे।

एक छोटा लड़का मुझसे कहता है कि यह कल्प वृक्ष है, इसलिए मैं इससे कुछ मांग सकता हूं। मैं मांगता हूं कि उसी की तरह हां के और पेड़ भी हरे-भरे रहें। ‘तुमने क्या मांगाज्, मैंने उस लड़के से पूछा। ‘मैंने मांगा कि आप मुझे पांच रुपए दोगे, उसने बड़ी चतुराई से जवाब दिया। उसकी इच्छा पूरी हो गई। मेरी इच्छा भविष्य की अनिश्चितताओं में छिपी हुई है, लेकिन उस लड़के ने मुझे कामना करने का पाठ सिखाया।

बद्रीनाथ में रहनेवाले लोग नंबर में यहां आ जाते हैं, जब मंदिर छह महीने के लिए पूरी तरह बर्फ से ढंक जाता है। यह बहुत खुशनुमा फैला हुआ पहाड़ी रिसॉर्ट है, लेकिन यहां पर छोटे होटल, आधुनिक दुकानें और सिनेमा हॉल भी हैं। जोशीमठ का विकास और हां आधुनिकता के पांव पड़ने की शुरुआत १९६० के बाद से हुई, जब पैदल तीर्थयात्रा के मार्ग पर पक्की सड़क बनने की शुरुआत हुई, जो तीर्थयात्रियों को बद्रीनाथ तक लेकर जाती है। अब तीर्थयात्री उस कल्प वृक्ष की छांव से वंचित रह जाते हैं क्योंकि वह मुख्य सड़क के रास्ते से थोड़ा हटकर है। अब लोग बस, निजी गाड़ियों या लक्जरी कोच से उतरते हैं, रास्ते में पड़नेवाले किसी रेस्त्रां में तरोताजा होते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।

लेकिन अब भी कुछ लोग हैं जो बहुत कठिन रास्ता पार करके यहां तक आते हैं। खासकर वे लोग जिन्होंने संन्यास ले लिया है। ये धूप और बारिश, झाड़ियों से उड़नेवाली धूल और रास्ते के नुकीले कंकड़-पत्थरों की परवाह किए बगैर बद्रीनाथ से ऋषिकेश तक की यात्रा करते हैं। यहां पर एक ऐसा युवक मिला जो रोलर स्केट पहनकर पूरी यात्रा कर रहा था। उसके ऐसा करने की वजह न तो धार्मिक थी और न आध्यात्मिक। उसने बताया कि उसकी इच्छा है कि उसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस में शामिल हो। उसने मुझे अपनी इस उपलब्धि का गवाह होने के लिए कहा। वह चाहता था कि मैं बद्रीनाथ से लेकर ऋषिकेश तक रोलर स्केट्स पहनकर की जा रही उसकी पूरी यात्रा में शामिल होऊं। ‘बहुत खुशी से,जब मैंने उससे कहा। लेकिन तुम तो नीचे की ओर जा रहे हो और मैं ऊपर जा रहा हूं। मैंने उसे शुभकामनाएं दीं और कहा कि मैं गिनीज बुक में उसका नाम आने का इंतजार करूंगा। आखिरकार हम उस बंजर घाटी में पहुंच ही गए, तेज हाओं ने जिसे अपनी चपेट में ले रखा था। बद्रीनाथ की यह घाटी तेजी से विकसित होता कस्बा है। यह बहुत जिंदादिल और फलती-फूलती जगह है। ऊंची-ऊंची बर्फ से ढंकी चोटियों ने इसे चारों ओर से घेर रखा है। यहां होटलों और धर्मशालाओं की कमी नहीं है। इसके बाजूद हर होटल और रेस्ट हाउस हमेशा खचाखच भरे रहते हैं। तीर्थयात्रा के पूरे इलाके में यह सबसे ऊंची जगह है।

जिस तरह केदारनाथ हिमालय की घाटी में स्थित भगवान शिव के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है, उसी तरह बद्रीनाथ वैष्ण संप्रदाय के लोगों के लिए पूजा का सबसे पवित्र स्थान है। इसी जगह भगवान विष्णु अपने भक्तों के समक्ष स्यंभू प्रकट हुए थे। उनकी चार भुजाएं थीं और मोतियों का मुकुट माला पहनी हुई थी। श्रद्धालुओं का कहना है कि आज भी महान कुंभ के दिन नीलकंठ की चोटी पर भगवन विष्णु के दर्शन किए जा सकते हैं। नीलकंठ चोटी इस समूचे क्षेत्र में सबसे विशाल और ऊंची है और हां पर मुश्किल से ही कोई पेड़ या वनस्पति जीति रह पाते हैं। नीलकंठ की चोटी जादुई और प्रेरणा देनेवाली है। यह २१,६४० फीट ऊंची है और उसकी चोटी से बद्रीनाथ सिर्फ पांच मील दूर है। जिस शाम हम वहां पहुंचे थे, हम चोटी को नहीं देख सके क्योंकि बादलों ने उसे पूरी तरह ढंक लिया था।
बद्रीनाथ खुद बादलों की धुंध के बीच छिपा हुआ था, लेकिन हमने किसी तरह अपना रास्ता बनाया और मंदिर तक पहुंचे। यह लगभग ५० फीट ऊंची रंग-बिरंगी और खूबसूरती से सजाई गई इमारत है। ऊपर चमकदार छत है। मंदिर में काले पत्थर पर उकेरी गई भगान विष्णु की एक प्रतिमा है, जिसमें ध्यान की मुद्रा में खड़े हुए हैं। लोगों का अंतहीन काफिला उस मंदिर से गुजरता है, जो भगवान विष्णु के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं और उनसे अपनी समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं।उस रंग-बिरंगे छोटे से मंदिर में चहल-पहल भरी खुशनुमा भीड़ का हिस्सा होना और एक पवित्र नदी को उसके उद्गम के इतने निकट से देखना बहुत सुखद था। और अगले ही दिन सुबह-सुबह मुझे इस सुखद अनुभव से गुजरने का मौका मिला। अपने छोटे से कमरे की खिड़की खोलकर जैसे ही मैंने बाहर नजर डाली, बर्फ से ढंकी हुई नीलकंठ की चोटी पर सूरज चढ़ता हुआ दिखाई दिया। पहले-पहल तो बर्फ गुलाबी रंग की हुई, फिर नारंगी और फिर सुनहरे रंग में बदल गई। जब मैंने आकाश में तने हुए उस भव्य शिखर को देखा तो मेरी सारी नींद हवा हो गई। और उसी क्षण उस चोटी पर भगवान विष्णु अतरित हुए। मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं था।

(दैनिक भास्कर से सभार)