उधर देखो, हिमालय क्यों डगमगा रहा है
ना कोई भूकंप आया है
ना किसी तूफान में ताकत है
फिर क्या है
जो इस पहाड़ को हिला रहा है
शायद यह नाराज है
हमने जो खून बहाया है
इसकी गोद में
आतंक का दामन छुपाया है
भारत को चीरा
और पाकिस्तान को बनाया है
खैर थी इतनी भी
पर हमने दुश्मनी को बढ़ाया है
यही वजह है शायद
आज हिमालय हिलता ही जा रहा है
पहले खीचं डाली सरहद
फिर आसमां को बाटां
मां की छाती से बच्चे को छीना
मजहब के नाम पर
यह क्या गुनाह किया
रास ना आया तभी
अडिग गिरी डगमगा रहा है
सियासत के गलियारों से
गदंगी की बू आती है
जो अमन के बजाए
कारगिल को लाती है
ना छुपने दो उन फरिश्तों को
ना झुकने दो उन अरमानों कों
जिन्होने दोस्ती का दिया जलाया है
वरना देख लो अभी से
हिमालय डगमगा रहा है
घर जले थे पंजाब में
तपिश है अभी उस आग में
देख लो चाहे तुम
महीने लग जाते हैं पहुचने में
अमृतसर और लाहौर के
चन्द लम्हों के फासले में
ना जाने हश्र क्या हो्गा
यह हिमालय हिलता ही जा रहा है
गलती जो कर दी थी कभी
ना दोहराओ तुम अभी
छा जाने दो खुशी
उन बुझे बुझे से चेहरों पर
जो दो ना पायें हैं जी भर
बिछड़े हैं जबसे दिल जिगर
कैसे भूल जाते हो
दर्द धरती के स्वर्ग का
इंसान हैं वो
जीने का हक उन्हे भी दो
दोस्ती का पैगाम लाऔ
तोड़ डालो मुहं उस तीसरे का
जो हुंकारता है दूर से
और हमारे बीच टागं अड़ाता है
देर ना हो जाए कहीं
क्योंकि हिमालय डगमगा रहा है
सब रास्ते खोल दो
मिटा दो सरहद की जंजीरों को
भारत-पाक चलो उस राह पर
जहां अमन नजर आता है
कहीं एसा ना हो जाए ‘ज़ालिम’
अपवादों की धरती पे
टूट जाए यह पहाड़
और मिटा दे सरहद सदा के लिए
यह हो जाएगा
क्योंकि हिमालय हिलता ही जा रहा है
हिमालय की बेबसी और उसके दर्द कॊ लेकर हर कॊई बेचैन है। आखिर हॊं भी क्यॊ न। क्यॊंकि अगर हिमालय है तॊ हम हैं। कवि सुनील डॊगरा जालिम की यह कविता सरहदॊं से निकलकर हिमालय के दर्द की दास्तां कुछ यूं बयां कर रही है।
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2 माह पहले
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