बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

चिड़ियों की चीखें

अपनी डायरी के पन्नों में भावनाओं का यह बांध मैंने वर्ष 1999 से लेकर 2004 के बीच उस दौरान बांधा था, जब मैं डूबते-मरते शहर की रिपोर्टिंग करने के लिए टिहरी गया था। इस एतिहासिक शहर के डूबने की यह पीड़ा मुझे आज भी उतना ही बैचेन और विचलित करती है, जितनी तब जब टिहरी डूबने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। खबर लिखते वक्त कई बार हाथ भी कांपे थे। जल समाधि ले रहे टिहरी कॊ देखकर मेरे मन में तब क्या उथल पुथल मची थी, इसका एक हिस्सा यहां प्रकाशित कर रहा हूं- एल पी पंत
3 ढलती दोपहरी का समय है। डूबने के इंतजार में उंघता शहर धीरे-धीरे अवसाद की मांद में लुढ़क रहा है। एक ठहरी नदी के किनारे टिहरी चुपचाप बैठा है। अंधेरा घिरते ही बांध की परछाई शहर को अपने घेरे में ले लेती है। आधे टूटे मकान और कंकालनुमा घरों में जड़ी सूनी आंखों से खिड़कियां विकास की दास्तां बयां कर रही हैं। अचानक टिहरी की धरती चीखने लगती है। पूछती है-क्या विकास इसी का नाम है, शहर कुचल दिए जाएं मस्त हाथी की तरह। सुबह होने को है। चिड़ियों की चहचहाहट भी मातमी चीखों सी कानों में चुभ रही हैं।

एल पी पन्त
टिहरी
13 अगस्त 2002
पहली दो कड़ियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
भावनाओं का बांध
एक था टिहरी

4 टिप्‍पणियां:

ओम आर्य ने कहा…

मार्मिक लेख!

Arshia Ali ने कहा…

आज पहली बार आपके ब्लॉग परआना हुआ, पर आप लोगों की बातें पढकर आत्मीयता सी महसूस हुई।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।

शरद कोकास ने कहा…

मुझे भोपाल मे कमला पार्क की दीवार पर लिखा हुआ ऐसा ही एक वाक्य याद आ गया .." सरदार सरोवर एक राष्ट्रीय मूर्खता है "यह किसी दिमाग वाले ने लिखा होगा लेकिन आपने जिसका चित्र दिया है यह तो किसी दिल वाले ने लिखा होगा ।

Girish Mishra ने कहा…

Very interesting pieces. Thanks for forwarding them to me.
Girish Mishra