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3 ढलती दोपहरी का समय है। डूबने के इंतजार में उंघता शहर धीरे-धीरे अवसाद की मांद में लुढ़क रहा है। एक ठहरी नदी के किनारे टिहरी चुपचाप बैठा है। अंधेरा घिरते ही बांध की परछाई शहर को अपने घेरे में ले लेती है। आधे टूटे मकान और कंकालनुमा घरों में जड़ी सूनी आंखों से खिड़कियां विकास की दास्तां बयां कर रही हैं। अचानक टिहरी की धरती चीखने लगती है। पूछती है-क्या विकास इसी का नाम है, शहर कुचल दिए जाएं मस्त हाथी की तरह। सुबह होने को है। चिड़ियों की चहचहाहट भी मातमी चीखों सी कानों में चुभ रही हैं।
एल पी पन्त
टिहरी
13 अगस्त 2002
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भावनाओं का बांध
एक था टिहरी
4 टिप्पणियां:
मार्मिक लेख!
आज पहली बार आपके ब्लॉग परआना हुआ, पर आप लोगों की बातें पढकर आत्मीयता सी महसूस हुई।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।
मुझे भोपाल मे कमला पार्क की दीवार पर लिखा हुआ ऐसा ही एक वाक्य याद आ गया .." सरदार सरोवर एक राष्ट्रीय मूर्खता है "यह किसी दिमाग वाले ने लिखा होगा लेकिन आपने जिसका चित्र दिया है यह तो किसी दिल वाले ने लिखा होगा ।
Very interesting pieces. Thanks for forwarding them to me.
Girish Mishra
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