मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

उस रात जब उड़ गया छप्पर

रस्किन बॉन्ड

यहां 7000 फीट की ऊंचाई पर हिमालय से घिरे पहाड़ों पर रहते हुए हमें अचानक उठने वाले तेज तूफानों की आदत पड़ गई है। इन तेज हवाओं के हम आदी हो चुके हैं। जिस पुरानी इमारत में मैं रहता हूं, वह लगभग सौ साल पुरानी है और यह इतने सालों से पहाड़ियों के इस इलाके में बहने वाले तेज तूफान और बारिश को देख रही है। फरवरी और मार्च का महीना तो सबसे खराब होता है।

यह एक तीन मंजिला इमारत है और हम सब यहां रहते हैं। हम यानी चार बच्चे और तीन वयस्क। हमारी ढलुआ छत ने जाने कितने तूफानों का मुकाबला किया है और बिल्कुल अडिग खड़ी रही है, लेकिन उस दिन वह हवा मानो तेज तूफानी हवा थी। उसकी गति और ताकत तूफान जैसी थी और वह बहुत तेजी के साथ चीखती-बिलखती बहती चली आई थी। पुरानी पड़ चुकी छत कराहने लगी, उसने हवा के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध किया। जब तक हवा और छत के बीच गुत्थम-गुत्था चलती, कई घंटे गुजर गए।

अब बारिश की बौछारें खिड़की पर भी चाबुक फटकारने लगी थीं। बत्ती कभी आती थी, कभी जाती थी। अलाव बुझे काफी वक्त गुजर चुका था। चिमनी टूट गई थी और उससे होकर छत से बरसात का पानी घर में लगातार घुसा चला आ रहा था।
हवा से चार घंटे की लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार छत ने हार मान ही ली। सबसे पहले घर में मेरे वाले हिस्से की छत उड़ गई। हवा छत के नीचे से घुसकर उसे धक्का देने लगी और तब तक देती रही, जब तक चीखती-कराहती बेचारी टीन की छत उखड़ नहीं गई। उनमें से कुछ तूफान की तरह कड़कड़ की आवाज करती दूसरी ओर सड़क पर जा गिरीं।

जो होना था सो हो गया। मैंने सोचा कि अब इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। जब तक ये सीलिंग बची हुई है, मैं अपने बिस्तर से उठने वाला नहीं हूं। सुबह हम टीन की छत को फिर से लगा देंगे। लेकिन अपने चेहरे पर टपकते हुए पानी के कारण मैंने अपना विचार बदल दिया। बिस्तर से उठने पर मैंने पाया कि सीलिंग का अधिकांश हिस्सा तो टूट चुका है। मेरे खुले टाइपराइटर पर पानी टपक रहा था। बेचारा फिर कभी ठीक नहीं हो सका।

बिस्तर के किनारे रखे रेडियो और बिस्तर की चादरों पर भी पानी की टप-टप चालू थी। अपने कमरे के भीतर गिरते-पड़ते मैंने देखा कि लकड़ी की बीम के बीच-बीच से पानी रिस रहा था और मेरी किताबों की अलमारी पर मजे से बरस रहा था। इस बीच बच्चे भी मेरे पास आ गए थे। वे मेरा बचाव करने के लिए आए थे। उनके हिस्से की छत अभी तक सही-सलामत थी। बड़े लोग खिड़कियां बंद करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, जो खुली रहने के लिए बेताब थीं और ज्यादा से ज्यादा हवा और पानी को अंदर आने का रास्ता दे रही थीं।

‘किताबों को बचाओ!’ सबसे छोटी डॉली चिल्लाई और उसके बाद अगले एक घंटे हम किताबों को बचाने में ही लगे रहे। डॉली और उसके भाई दोनों बांहों में किताबें भर-भरकर उन्हें अपने कमरे में ले जाने लगे, लेकिन पूरे फ्लैट की फर्श पर पानी बह रहा था, इसलिए किताबों को भी बिस्तर पर जमाना पड़ा। डॉली मुझे कुछ फाइलें और पांडुलिपियां संभालने में मदद कर रही थी, तभी एक बड़ा सा चूहा डेस्क पर से उसके सामने कूद पड़ा। डॉली जोर से चिल्लाई और दरवाजे की ओर भागी। ‘अरे कोई बात नहीं,’ मुकेश बोल पड़ा।

जानवरों के प्रति उसका प्रेम इतना ज्यादा था कि सड़क के चूहों के लिए भी उमड़ पड़ता था। ‘वह सिर्फ तूफान से अपना बचाव कर रहा है।’ बड़े भाई राकेश ने हमारे कुत्ते गूफी को बुलाने के लिए सीटी बजाई, लेकिन गूफी को उस समय चूहे में कोई रुचि नहीं थी। उसने रसोई में अपने लिए एक सूखा कोना खोज लिया था, जो घर में उस समय एकमात्र सूखी हुई जगह थी और उसने तूफान के बीच भी अपने सोने की तैयारी कर ली थी।

इस समय दो कमरे तो बाकायदा छतविहीन हो गए थे और आसमान में लगातार कड़कती बिजली की चमक से रोशन हो जाते थे। घर के अंदर भी पटाखे छूट रहे थे क्योंकि बिजली के एक टूटे हुए तार पर पानी छू गया था। अब तो पूरे घर की ही बिजली चली गई। बिजली जाने से एक तरह से घर ज्यादा सुरक्षित हो गया था। राकेश ने अब तक दो लैंप खोज लिए थे और उन्हें जला भी दिया था। हमने किताबें, कागज और कपड़े बच्चों के कमरे में पहुंचाना जारी रखा। तभी हमने देखा कि फर्श पर पानी अब कुछ कम होने लगा था।

‘ये जा कहां रहा है?’ डॉली ने पूछा, क्योंकि हमें पानी के निकलने का कोई रास्ता तो नजर आ नहीं रहा था।
‘फर्श से होकर फ्लैट के नीचे जा रहा है,’ मुकेश ने कहा। वह सही था। हमारे पड़ोसियों का चौंकना (जो अब तक इस तूफान के असर से बचे हुए थे) ये बता रहा था कि अब उन्हें भी उनके हिस्से की बाढ़ मिल रही थी। हमारे पांव ठंड से बिल्कुल जम रहे थे क्योंकि हमारे पास जूते पहनने का भी वक्त नहीं था। वैसे भी हमारे सारे जूते-चप्पल पानी में भीगे हुए थे। किताबों के साथ-साथ मेज-कुर्सियों को भी ऊंची जगहों पर जमाया जा चुका था।

उस रात से पहले इस ओर कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया था कि मेरी किताबों की लाइब्रेरी कितनी विशालकाय है। लगभग दो हजार किताबों को बचाया जा चुका था। पलंग को घसीटकर बच्चों के कमरे के सबसे सूखे कोने में पहुंचा दिया गया। उस पर कंबल-रजाइयों का ढेर लगा हुआ था। वह पूरी रात हमने उस पलंग पर बिताई, जबकि बाहर तूफान गुस्से में गरजता रहा।
लेकिन तभी हवा और निर्दयी हो गई और बर्फ पड़ने लगी।

मैं देख सकता था कि दरवाजे से लेकर बैठक तक सीलिंग की दरारों में से बर्फ गिर रही थी और तस्वीरों के फ्रेम और इधर-उधर बिखरी चीजों पर जमा हो रही थी। कुछ निर्जीव चीजें जैसे गोंद की शीशी और प्लास्टिक की गुड़िया बर्फ से ढंकी हुई खास तरह से सुंदर लग रही थीं। दीवार पर टंगी घड़ी ने चलना बंद कर दिया। चारों ओर से बर्फ से ढंकी घड़ी मुझे सल्वाडोर डॉली की एक पेंटिंग की याद दिला रही थी।

मेरा शेविंग ब्रश ऐसा लग रहा था मानो अभी इस्तेमाल करने के लिए तैयार हो।जब सुबह हुई तो हमने देखा कि खिड़कियों की चौखट पर बर्फ जम गई है। फिर सूरज उगा और सीलिंग की दरारों में से झांकने लगा। सूरज की रोशनी में कमरे की हर चीज सोने की तरह दमक उठी। किताबों की अलमारी पर बर्फ के टुकड़े दमक रहे थे। राकेश बढ़ई और लोहार को बुलाने के लिए चला गया और हम बाकी लोग सारी चीजों को सूखने के लिए धूप में रखने लगे।

सिर्फ कुछ किताबें इतनी खराब हो चुकी थीं कि उन्हें फिर से ठीक करना संभव नहीं था। शाम तक अधिकांश छत वापस अपनी जगह पर लगाई जा चुकी थी। मेरे पास एक और विकल्प था कि मैं किसी होटल में चला जाता। मसूरी में कोई खाली घर नहीं है। लेकिन अब ये छत काफी बेहतर हो चुकी है। अब मैं और आत्मविश्वास के साथ अगले तूफान का इंतजार कर रहा हूं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

6 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

बहुत ही जीवंत वर्णन है ।

राजीव जैन ने कहा…

pahli baar aapko blog par dekha
badhai

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति, दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये !

s.p.pant ने कहा…

Nice and mind bogling.good experience.

S P PANT
email:-sppant69@yahoo.co.in

L P Pant ने कहा…

thanx

बेनामी ने कहा…

wow..