देवेन्द्र शर्मा
पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश द्वारा जारी की गई रिपोर्ट हिमालयन ग्लेशियर्स के अनुसार इस बात का कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इस अध्ययन की कोई जिम्मेदारी न लेते हुए जयराम रमेश ने बड़ी तत्परता से इसमें जोड़ा कि इसका मतलब इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाना था। मुझे इस चर्चा को आगे बढ़ाने में कोई तुक नजर नहीं आता, जबकि इंटरनेशनल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
मुझे हैरानी नहीं होगी अगर बाद में यह पता चले कि यह नदियों को जोड़ने के लिए माहौल बनाने का प्रयास था। आखिरकार, इस संभाव्य परियोजना पर अरबों डालर का दारोमदार है और लाबी अभी भी काम में जुटी है। हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने के पुख्ता साक्ष्य न होने के पीछे सीधा सा कारण यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेशनल सेंटर फार माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईओडी) और युनाइटेड नेशंस एनवार्यनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की हिमालयी ग्लेशियरों के विस्तृत अध्ययन की मांग बार-बार अस्वीकार की है। भारत सरकार ग्लेशियरों के अध्ययन के पीछे केवल रक्षा उद्देश्य देखती है। यह ग्लेशियरों के पिघलने और नई निर्मित झीलों के बनने के भारी खतरों से आंखें मूंदे बैठी है। शायद खतरे को स्वीकार करने से पहले भारत किसी बड़े विनाश का इंतजार कर रहा है। जयराम रमेश को यह समझना चाहिए कि हिमालय ग्लेशियर को बचाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने से ध्यान भटकाना देश के पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालना है। मैं आपका ध्यान हिमालय में प्रतीक्षारत विनाश की ओर खींचना चाहता हूं। यह कुछ समय पहले आईसीआईएमओडी द्वारा तैयार की गई विस्तृत रिपोर्ट पर आधारित है।
4 अगस्त, 1985 को माउंट एवरेस्ट चोटी के निकट समुद्र तल से करीब 4,385 मीटर ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर से बनी दिग त्शो झील अचानक फट गई। अगले चार घंटों में झील से 80 लाख घन मीटर पानी बह निकला। तेजी से बहती जलधारा के रास्ते में जो भी आया, उसने बर्बाद कर दिया। अगले कुछ घंटों में ही जल प्रवाह में एक छोटे बांध नामचे स्माल हायडल प्रोजेक्ट का ढांचा, 14 पुल, सड़कें, खेती-बाड़ी और बड़ी संख्या में मानव और पशु बह गए। दिग त्शो झील अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान में फैली हिंदू-कुश हिमालयन पर्वत श्रृंखला पर ग्लेशियर से बनी एकमात्र झील नहीं है। तापमान में वृद्धि होने के साथ-साथ ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे विशाल झीलें बन रही हैं। वैसे तो इस क्षेत्र में ग्लेशियरों की सही संख्या का पता नहीं है, फिर भी आईसीआईएमओडी ने नेपाल के 5324 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 3,252 ग्लेशियरों की घोषणा की है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनने वाली झीलों की संख्या 2,323 है। माना जाता है कि इनमें से अधिकांश पिछले पचास वर्र्षो के दौरान बनी हैं। आईसीआईएमओडी ने 20 झीलों को खतरनाक बताया है, इनमें से 17 झीलों का पहले कभी टूटने का इतिहास नहीं रहा है। ये झीले सुदूर क्षेत्रों और ऊंचे पहाड़ों पर बनी हैं, किंतु इनसे होने वाला महाविनाश स्थानीय नागरिक बस्तियों और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। उदाहरण के लिए त्शो रोल्फा झील को ही लें। दोलाखा जिले की रोलवालिंग घाटी में बनी यह झील काठमांडू से महज 110 किलोमीटर दूर है। इस झील का पानी दिनोदिन बढ़ रहा है। 1959 में यह झील .23 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली थी, जबकि 1990 में यह क्षेत्र बढ़कर 1.55 वर्ग किलोमीटर हो गया। जिस क्षेत्र में यह झील बनी है वह बराबर कमजोर हो रहा है। शोधकर्ता इसे खतरनाक घोषित कर चुके हैं। केवल हिमालय में ही नहीं, पूरे विश्व में ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहे हैं। पूर्वी अफ्रीका के माउंट क्लिमंजारो पर 2015 तक बर्फ खत्म होने की आशंका है।
1912 से 2000 के बीच इस पर बर्फ की चादर 82 प्रतिशत छोटी हो गई है। 1850 से अल्पाइन ग्लेशियर क्षेत्रफल में 40 प्रतिशत और घनत्व में 50 प्रतिशत पिघल चुके हैं। 1963 से पेरू में ग्लेशियर 155 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिमट रहे हैं। हिमालय के ग्लेशियर बेहद संवेदनशील माने जाते हैं। अपेक्षाकृत निचले भागों में इन ग्लेशियरों पर मानसून के दौरान बर्फ जमती है और गरमियों में पिघलती है। ऊंचे पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियरों पर सर्दियों में बर्फ जमती है जबकि गरमियों में पिघलती है। यूएनईपी का अनुमान है कि झीलों का फटना एक बड़ी समस्या बनने जा रही है, खासतौर से दक्षिण अमेरिका, भारत और चीन में। किंतु दुर्भाग्यवश भारत और चीन दोनों देशों ने ग्लेशियरों का इस्तेमाल महज सुरक्षा की दृष्टि से किया है। इन दोनों देशों में बर्फ से ढके अधिकांश इलाके सेना के कब्जे में हैं। सीमा के करीब होने के कारण ये सुरक्षा की दृष्टि से महत्वूपर्ण हैं और इन्हें भीतरी नियंत्रण रेखा कहा जाता है। इन क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोध और जनता के आवागमन की अनुमति नहीं है। दोनों विशाल देशों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहा है कि वैज्ञानिकों को शोध करने दिया जाए और इन्हें बचाने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएं ताकि यह भीतरी नियंत्रण रेखा अनियंत्रित न हो जाए। जबकि विश्व वैश्विक ताप के ग्लेशियरों पर पड़ने वाले खतरनाक प्रभावों पर बहस जारी रखे हुए है, नेपाल के राजा नीदरलैंड-नेपाल फ्रेंडशिप एसोसिएशन के तत्वावधान में पूर्व चेतावनी तंत्र विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही इसके दुष्प्रभावों को कम करने के प्रयास भी कर रहे हैं। इनमें झीलों में पानी तीन मीटर कम करने के प्रयास भी शामिल हैं। यह जानते हुए कि इतना काफी नहीं है, दूसरे चरण में पानी 17 मीटर घटाने की कोशिश की जाएगी। यह अपने आप में उल्लेखनीय पहल है। इसे अन्य देशों में भी लागू करने की जरूरत है, जहां बर्फ तेजी से पिघल रही है पर इसके दुष्प्रभावों को लेकर समझ विकसित नहीं हो रही है। 20 खतरनाक झीलों में से तीन- नगमा, ताम पोखरी और दिग त्शो के टूटने का इतिहास रहा है। इसके अलावा ग्लेशियर से बनी छह अन्य झीलों के बारे में भी आईसीआईएमओडी का मानना है कि अतीत में इनके टूटने से वर्तमान में खतरा नजर नहीं आता। शोधकर्ताओं की राय है कि ग्लेशियरों से बनी झीलों को टूटने से बचाने के लिए इनकी सतत निगरानी और पूर्व चेतावनी तंत्र जरूरी हैं।
सबसे महत्वपूर्ण है बर्फ को पिघलने से बचाकर झीलों में पानी की मात्रा घटाना। मानव और जीव-जंतुओं को बचाने तथा ढांचागत सुविधाओं व संपत्ति का नुकसान रोकने के लिए बहुत सावधानी से योजनाएं बनाने और संबंधित एजेंसियों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इससे भी जरूरी है आपदा बचाव नीतियां और गतिविधियां लागू की जाएं। पहाड़ों को संभावित ग्रहण से बचाने के लिए जोरदार वैश्विक कार्यक्रम की तुरंत आवश्यकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में पहले ही बेपनाह गरीबी फैली हुई है और साथ ही इस नाजुक प्राकृतिक प्रवास पर विनाश का साया मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन के गंभीर और वास्तविक खतरे की अनदेखी निश्चित तौर पर और अधिक विनाशकारी होगी।
विस्फॊट डाट काम से साभार
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2 माह पहले