गुरुवार, 19 नवंबर 2009

बर्फ की चादर पर विकास की कालिख

देवेन्द्र शर्मा

पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश द्वारा जारी की गई रिपोर्ट हिमालयन ग्लेशियर्स के अनुसार इस बात का कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इस अध्ययन की कोई जिम्मेदारी न लेते हुए जयराम रमेश ने बड़ी तत्परता से इसमें जोड़ा कि इसका मतलब इस विषय पर चर्चा को आगे बढ़ाना था। मुझे इस चर्चा को आगे बढ़ाने में कोई तुक नजर नहीं आता, जबकि इंटरनेशनल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।

मुझे हैरानी नहीं होगी अगर बाद में यह पता चले कि यह नदियों को जोड़ने के लिए माहौल बनाने का प्रयास था। आखिरकार, इस संभाव्य परियोजना पर अरबों डालर का दारोमदार है और लाबी अभी भी काम में जुटी है। हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलने के पुख्ता साक्ष्य न होने के पीछे सीधा सा कारण यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेशनल सेंटर फार माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईओडी) और युनाइटेड नेशंस एनवार्यनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की हिमालयी ग्लेशियरों के विस्तृत अध्ययन की मांग बार-बार अस्वीकार की है। भारत सरकार ग्लेशियरों के अध्ययन के पीछे केवल रक्षा उद्देश्य देखती है। यह ग्लेशियरों के पिघलने और नई निर्मित झीलों के बनने के भारी खतरों से आंखें मूंदे बैठी है। शायद खतरे को स्वीकार करने से पहले भारत किसी बड़े विनाश का इंतजार कर रहा है। जयराम रमेश को यह समझना चाहिए कि हिमालय ग्लेशियर को बचाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने से ध्यान भटकाना देश के पर्यावरण और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालना है। मैं आपका ध्यान हिमालय में प्रतीक्षारत विनाश की ओर खींचना चाहता हूं। यह कुछ समय पहले आईसीआईएमओडी द्वारा तैयार की गई विस्तृत रिपोर्ट पर आधारित है।

4 अगस्त, 1985 को माउंट एवरेस्ट चोटी के निकट समुद्र तल से करीब 4,385 मीटर ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर से बनी दिग त्शो झील अचानक फट गई। अगले चार घंटों में झील से 80 लाख घन मीटर पानी बह निकला। तेजी से बहती जलधारा के रास्ते में जो भी आया, उसने बर्बाद कर दिया। अगले कुछ घंटों में ही जल प्रवाह में एक छोटे बांध नामचे स्माल हायडल प्रोजेक्ट का ढांचा, 14 पुल, सड़कें, खेती-बाड़ी और बड़ी संख्या में मानव और पशु बह गए। दिग त्शो झील अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और भूटान में फैली हिंदू-कुश हिमालयन पर्वत श्रृंखला पर ग्लेशियर से बनी एकमात्र झील नहीं है। तापमान में वृद्धि होने के साथ-साथ ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे विशाल झीलें बन रही हैं। वैसे तो इस क्षेत्र में ग्लेशियरों की सही संख्या का पता नहीं है, फिर भी आईसीआईएमओडी ने नेपाल के 5324 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 3,252 ग्लेशियरों की घोषणा की है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ग्लेशियर पिघलने से बनने वाली झीलों की संख्या 2,323 है। माना जाता है कि इनमें से अधिकांश पिछले पचास वर्र्षो के दौरान बनी हैं। आईसीआईएमओडी ने 20 झीलों को खतरनाक बताया है, इनमें से 17 झीलों का पहले कभी टूटने का इतिहास नहीं रहा है। ये झीले सुदूर क्षेत्रों और ऊंचे पहाड़ों पर बनी हैं, किंतु इनसे होने वाला महाविनाश स्थानीय नागरिक बस्तियों और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। उदाहरण के लिए त्शो रोल्फा झील को ही लें। दोलाखा जिले की रोलवालिंग घाटी में बनी यह झील काठमांडू से महज 110 किलोमीटर दूर है। इस झील का पानी दिनोदिन बढ़ रहा है। 1959 में यह झील .23 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली थी, जबकि 1990 में यह क्षेत्र बढ़कर 1.55 वर्ग किलोमीटर हो गया। जिस क्षेत्र में यह झील बनी है वह बराबर कमजोर हो रहा है। शोधकर्ता इसे खतरनाक घोषित कर चुके हैं। केवल हिमालय में ही नहीं, पूरे विश्व में ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहे हैं। पूर्वी अफ्रीका के माउंट क्लिमंजारो पर 2015 तक बर्फ खत्म होने की आशंका है।

1912 से 2000 के बीच इस पर बर्फ की चादर 82 प्रतिशत छोटी हो गई है। 1850 से अल्पाइन ग्लेशियर क्षेत्रफल में 40 प्रतिशत और घनत्व में 50 प्रतिशत पिघल चुके हैं। 1963 से पेरू में ग्लेशियर 155 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिमट रहे हैं। हिमालय के ग्लेशियर बेहद संवेदनशील माने जाते हैं। अपेक्षाकृत निचले भागों में इन ग्लेशियरों पर मानसून के दौरान बर्फ जमती है और गरमियों में पिघलती है। ऊंचे पहाड़ों पर स्थित ग्लेशियरों पर सर्दियों में बर्फ जमती है जबकि गरमियों में पिघलती है। यूएनईपी का अनुमान है कि झीलों का फटना एक बड़ी समस्या बनने जा रही है, खासतौर से दक्षिण अमेरिका, भारत और चीन में। किंतु दुर्भाग्यवश भारत और चीन दोनों देशों ने ग्लेशियरों का इस्तेमाल महज सुरक्षा की दृष्टि से किया है। इन दोनों देशों में बर्फ से ढके अधिकांश इलाके सेना के कब्जे में हैं। सीमा के करीब होने के कारण ये सुरक्षा की दृष्टि से महत्वूपर्ण हैं और इन्हें भीतरी नियंत्रण रेखा कहा जाता है। इन क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोध और जनता के आवागमन की अनुमति नहीं है। दोनों विशाल देशों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहा है कि वैज्ञानिकों को शोध करने दिया जाए और इन्हें बचाने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएं ताकि यह भीतरी नियंत्रण रेखा अनियंत्रित न हो जाए। जबकि विश्व वैश्विक ताप के ग्लेशियरों पर पड़ने वाले खतरनाक प्रभावों पर बहस जारी रखे हुए है, नेपाल के राजा नीदरलैंड-नेपाल फ्रेंडशिप एसोसिएशन के तत्वावधान में पूर्व चेतावनी तंत्र विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही इसके दुष्प्रभावों को कम करने के प्रयास भी कर रहे हैं। इनमें झीलों में पानी तीन मीटर कम करने के प्रयास भी शामिल हैं। यह जानते हुए कि इतना काफी नहीं है, दूसरे चरण में पानी 17 मीटर घटाने की कोशिश की जाएगी। यह अपने आप में उल्लेखनीय पहल है। इसे अन्य देशों में भी लागू करने की जरूरत है, जहां बर्फ तेजी से पिघल रही है पर इसके दुष्प्रभावों को लेकर समझ विकसित नहीं हो रही है। 20 खतरनाक झीलों में से तीन- नगमा, ताम पोखरी और दिग त्शो के टूटने का इतिहास रहा है। इसके अलावा ग्लेशियर से बनी छह अन्य झीलों के बारे में भी आईसीआईएमओडी का मानना है कि अतीत में इनके टूटने से वर्तमान में खतरा नजर नहीं आता। शोधकर्ताओं की राय है कि ग्लेशियरों से बनी झीलों को टूटने से बचाने के लिए इनकी सतत निगरानी और पूर्व चेतावनी तंत्र जरूरी हैं।

सबसे महत्वपूर्ण है बर्फ को पिघलने से बचाकर झीलों में पानी की मात्रा घटाना। मानव और जीव-जंतुओं को बचाने तथा ढांचागत सुविधाओं व संपत्ति का नुकसान रोकने के लिए बहुत सावधानी से योजनाएं बनाने और संबंधित एजेंसियों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। इससे भी जरूरी है आपदा बचाव नीतियां और गतिविधियां लागू की जाएं। पहाड़ों को संभावित ग्रहण से बचाने के लिए जोरदार वैश्विक कार्यक्रम की तुरंत आवश्यकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में पहले ही बेपनाह गरीबी फैली हुई है और साथ ही इस नाजुक प्राकृतिक प्रवास पर विनाश का साया मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन के गंभीर और वास्तविक खतरे की अनदेखी निश्चित तौर पर और अधिक विनाशकारी होगी।

विस्फॊट डाट काम से साभार

बुधवार, 18 नवंबर 2009

बुधवार, 11 नवंबर 2009

टिहरी : न जीवन, न लहर


अपनी डायरी के पन्नों में भावनाओं का यह बांध मैंने वर्ष 1999 से लेकर 2004 के बीच उस दौरान बांधा था, जब मैं डूबते-मरते शहर की रिपोर्टिंग करने के लिए टिहरी गया था। इस एतिहासिक शहर के डूबने की यह पीड़ा मुझे आज भी उतना ही बैचेन और विचलित करती है, जितनी तब जब टिहरी डूबने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। खबर लिखते वक्त कई बार हाथ भी कांपे थे। जल समाधि ले रहे टिहरी कॊ देखकर मेरे मन में तब क्या उथल पुथल मची थी, इसका एक हिस्सा यहां प्रकाशित कर रहा हूं-एल.पी.पंत


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टिहरी मेरे सिरहाने तक चला आया है। यहां कुछ दिन और रूका तो या तो आत्महत्या कर लूंगा या पागल हो जाऊंगा। यहां न जीवन है, न लहर है और न ही उछाल। मरघट सा शहर सब कुछ ठंडा। यह इतिहास की लहुलुहान रणभूमि है। रात का एक पहर बीत चुका है। एतिहासिक इमारतों की कब्र पर खड़ा बांध ठहाके लगा रहा है।

एल.पी.पंत
2 oct 2002


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हम सबने जिंदगी में बहुत कुछ नष्ट होते देखा है पर इस शहर के नष्ट होने की पीड़ा कुछ ओर ही है। प्रकृति और जीवन का अस्तित्व तकनीक के आगे यहां बहुत छोटा महसूस हो रहा है। धूप कुछ और ढल चुकी है। डूबता सूरज बहुत अकेला और उदास नजर आ रहा है। अपनी लाशनुमा जिंदगी से तंग आकर टिहरी अब अपनी जिंदगी खुद खत्म करने की आजादी चाहता है।

एल.पी.पंत
8 nov 2003

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रात होने को है। बांध की छायाएं और लंबी होकर सोने जा रही हैं। पूरी तरह टूट चुके एक मकान की खिड़क खुली है। पास ही एक बच्ची मलबे को आकार देने में जुटी है। हर बार मलबा खिसककर नीचे आ गिरता है। बच्ची हिम्मत नहीं हार रही है। नीड़ के निर्माण में लगातार जुटी है। बांध बनाने वाले बच्ची से बचकर गुजरते हैं। जैसे किसी दुर्गन्ध के पासे से हम नाक में रूमाल दिए तेजी से आगे बढ़ जाते हैं। पास ही एक मां अपने अजन्मे बच्चे को टिहरी से आखिरी खत लिख रही है।

एल.पी.पंत
13 apr 2004

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टिहरी में पसरे सुन्न सन्नाटे में मैं अपनी सांसों को सुन सकता हूं। इंसान के नाम पर सिर्फ अपनी छाया दिखाई देती है। चोंच में सपनों को समेटकर चिड़ियों का झुंड शहर छोड़कर जा रहा है। रात होने लगी है। अंधेरे में बाहर कुछ दिखता तो नहीं, गूंजती बस एक आवाज- मैं डूब गया, मैं डूब गया। सन्नाटे के बिस्तर पर रात सिसक रही है।

एल.पी.पंत
8 aug 2004

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टिहरी विस्थापित एकदम नए बने मकानों में बस चुके हैं। यहीं की छतें नहीं टपकतीं। दीवारों पर सीलन भी नहीं है। दरवाजे-खिड़कियां एकदम चकाचक। पर इस नई टिहरी में पुराने जैसा कुछ भी नहीं है। यह वर्तमान इतिहास की कोख से नहीं बल्कि इतिहास के शव पर उपजा है।

एल.पी.पंत
14 sep 2004

पहली 3 कड़ियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
चिड़ियों की चीखें
भावनाओं का बांध
एक था टिहरी

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

खुशी तितली की तरह


रस्किन बॉण्ड

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली। हमेशा खुशी के पीछे-पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर आप शांत, स्थिर बैठे रहेंगे तो हो सकता है कि वह आपके पास आए और चुपचाप आपकी हथेलियों पर बैठ जाए। लेकिन सिर्फ थोड़े समय के लिए। उन छोटे-छोटे कीमती लम्हों को बचाकर रखना चाहिए क्योंकि वे बार-बार लौटकर नहीं आते।

कोयल पेड़ की चोटी पर बैठकर आवाज लगाती है। एक और गर्मियां आईं और चली गईं। यह मेरे जीवन की पचहत्तरवीं गर्मियां हैं, जो गुजर गईं। यद्यपि मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि पहली पांच गर्मियों के बारे में मुझे ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं है। शुरू-शुरू में जामनगर की एक गर्मी की मुझे याद है। समंदर में पैडल मारते हुए छोटी सी स्टीमर के बाहर देखना।

पूरे कच्छ की खाड़ी में दूर-दूर तक फैलती हुई निगाहें। देहरादून मंे अप्रैल की एक सुबह, आम की खुशबू से भरी बिखरी हुई हवाएं, नई दिल्ली की लंबी, भीषण तपती हुई गर्मियां, खसखस के पर्दे पर पानी डालता हुआ भिश्ती (उन दिनों एयरकंडीशन नहीं हुआ करते थे)। शिमला में गर्मियों से भरा एक दिन, शिमला में ही गर्मियों में पिता के साथ आइसक्रीम खाना। ये सब उन गर्मियों की बातें हैं, जब मेरी उम्र दस साल से कम थी।

मई की एक अलसुबह मेरा जन्म हुआ था। भरी गर्मियों में ही मेरे पैदा होने की भविष्यवाणी थी। सूर्य के जैसा और कुछ भी नहीं है। मैदानी इलाकों में घने छायादार पीपल या बरगद के तले बैठे हुए आप सूरज के और मुरीद हो जाते हैं। पहाड़ों में सूरज आपको अपने ठंडे कमरे से बाहर निकाल लाता है ताकि आप उसकी भव्यता में चहलकदमी कर सकें। बागों को सूरज की रोशनी चाहिए और मुझे चाहिए फूल।

इसलिए हम दोनों ही साथ-साथ सूरज का पीछा करते हैं। इस पृथ्वी ग्रह पर अपने ७५ वर्षो के जीवन में मैंने क्या सीखा? बिलकुल ईमानदारी से कहूं तो बहुत थोड़ा। बड़ों और दार्शनिकों पर भरोसा मत करो। प्रज्ञा उम्र के साथ नहीं आती है। यह आपके साथ ही पैदा होती है। या तो आपके पास प्रज्ञा होती है या नहीं होती है। ज्यादातर समय मैंने बुद्धि की जगह हमेशा अपने मन, अपने संवेगों की आवाज सुनी है और इसकी परिणति हुई है खुशी में।

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली। हमेशा खुशी के पीछे-पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर आप शांत, स्थिर बैठे रहेंगे तो हो सकता है कि वह आपके पास आए और आपकी हथेलियों पर बैठ जाए। लेकिन सिर्फ थोड़े समय के लिए। उन छोटे-छोटे कीमती लम्हों को बचाकर रखना चाहिए क्योंकि वे बार-बार लौटकर नहीं आते।

एक शांतचित्तता और स्थिरता हासिल करना कहीं ज्यादा आसान होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह बिल्ली है, जो हर दोपहरी को सूरज की रोशनी में आराम फरमाने के लिए बालकनी में आकर बैठ जाती है और फिर कुछ घंटे ऊंघती रहती है। एक व्यस्तता भरी सुबह की थकान और तनाव से राहत देने के लिए दोपहर की थोड़ी सुस्ताहट और आराम से बेहतर और कुछ नहीं है।

जैसा कि गारफील्ड कहते हैं : कुछ इसे आलस कहते हैं, मैं इसे गहन चिंतन कहता हूं। किसी धार्मिक आसरे के बगैर जीवन के इस मोड़ पर पहुंचकर मेरे पास उन सब चीजों के बारे में कहने को कुछ है, जो मेरे जीवन में खुशी और स्थिरता लेकर आईं। बेशक किताबें। मैं इन किताबों के बिना जिंदा ही नहीं रह सकता। यहां पहाड़ों पर रहना, जहां हवा साफ और नुकीली है। यहां आप अपनी खिड़की से बाहर नजरें उठाकर उगते और ढलते हुए सूरज के बीच पहाड़ों को अपना माथा ऊंचा उठाए देख सकते हैं।

सुबह सूरज का उगना, दिन का गुजरना और फिर सूरज का ढल जाना। सब बिलकुल अलग होता है। गोधूली, शाम और फिर रात का उतरना। सब एकदम जुदा-जुदा। हमारे चारों ओर ये जो कुछ भी फैला हुआ है, उसके बारीक, गहरे फर्क को हमें समझना चाहिए क्योंकि हम यहां जिंदगी से प्रेम करने, उसे गुनने-बुनने के लिए हैं। किसी दफ्तर के अंदर बैठकर पैसे कमाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन कभी-कभी अपनी खिड़की से बाहर देखना चाहिए और देखना चाहिए बाहर बदलती हुई उन रोशनियों की तरफ। ‘रात की हजार आंखें होती हैं और दिन की सिर्फ एक।’ लेकिन लाखों लोगों की जिंदगियों में रोशनी बिखेरने वाला वही चमचमाता हुआ सूरज है।

खुशी का रिश्ता मनुष्य के स्वभाव और संवेगों से भी होता है और स्वभाव एक ऐसी चीज है, जिसके साथ आप पैदा होते हैं, जिसे हमने अपने नजदीक या दूर के पुरखों से पाया होता है और प्राय: हम उनके सबसे खराब जीन को ही अपनी जिंदगी में ढोते हैं : चिड़चिड़ा स्वभाव, अनियंत्रित अहंकार, ईष्र्या, जलन, जो अपना नहीं है उसे हड़प लेने की प्रवृत्ति।

‘प्रिय ब्रूटस, गलतियां हमारे सितारों में नहीं होती हैं। वह हममें ही होती हैं, हमारे भीतर ही छिपी होती हैं..’शेक्सपियर प्राय: इस ओर इशारा करते हैं।

और भाग्य? क्या भाग्य जैसी कोई चीज होती है? लगता है कि कुछ लोगों के पास दुनिया का सारा सौभाग्य है। या यह भी आपके स्वभाव और संवेगों से जुड़ी बात ही है? जो स्वभाव ऐसा है कि खुशी के पीछे भागता नहीं फिरता है, उसे ढेर सारी खुशी मिल जाती है। नर्म, संतोषी और कोई अपेक्षा न करने वाले स्वभाव को तकलीफ नहीं होती। वहीं दूसरी ओर जो अधीर, महत्वाकांक्षी और ताकत की चाह रखने वाले हैं, वे कुंठित होते हैं। भाग्य उन लोगों के साथ-साथ चलता है, जिनका मन थोड़ा स्वस्थ होता है और जो रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष से टूट-बिखर नहीं जाते, जिनमें उसका सामना करने की हिम्मत होती है।

मैं बहुत ज्यादा किस्मतवाला हूं। तकदीर का धनी रहा हूं मैं। मुझे सभी भगवानों का पूरा आशीर्वाद मिला है। मैं किसी खास गहरी निराशा, अवसाद और दुख के बगैर ही पचहत्तर साल की इस बूढ़ी और प्रौढ़ अवस्था तक आ चुका हूं। मैंने सीधा-सादा, साधारण और ईमानदार जीवन जिया है। मैंने वे काम किए, जिसमें मुझे सबसे ज्यादा आनंद आता था। मैंने शब्दों को आपस में जोड़-जोड़कर कहानियां गढ़ी और सुनाईं। मैं जिंदगी में ऐसे लोगों को पाने में सफल रहा, जिनसे मैं प्रेम कर सकता और जिनके लिए जी सकता।

क्या यह सब बस यूं ही अचानक हो गया? सब सिर्फ अचानक ही घट गई किस्मत की बात थी या सबकुछ पहले से ही नियत और तयशुदा था या फिर यह मेरे स्वभाव में ही था कि मैं किसी दुख, घाव या चोट के बिना अपनी जिंदगी की यात्रा में इस आखिरी पड़ाव तक पहुंच पाया?

मैं इस जिंदगी को गहरी भावना, आवेग और शिद्दत से भरकर प्यार करता हूं और मेरी तमन्ना है कि यह जिंदगी बस ऐसे ही चलती रहे, चलती रहे। लेकिन हर अच्छी चीज का कभी न कभी अंत तो होता ही है। एक दिन वह अपने अंत के निकट जरूर पहुंचती है। और आखिर में एक दिन जब मेरी रुखसती का, मेरी विदाई का वक्त आए तो मैं उम्मीद करता हूं कि पूरी गरिमा, सुख और खुशी के साथ मैं इस दुनिया से रुखसत हो सकूं।