अपनी डायरी के पन्नों में भावनाओं का यह बांध मैंने वर्ष 1999 से लेकर 2004 के बीच उस दौरान बांधा था, जब मैं डूबते-मरते शहर की रिपोर्टिंग करने के लिए टिहरी गया था। इस एतिहासिक शहर के डूबने की यह पीड़ा मुझे आज भी उतना ही बैचेन और विचलित करती है, जितनी तब जब टिहरी डूबने की प्रक्रिया से गुजर रहा था। खबर लिखते वक्त कई बार हाथ भी कांपे थे। जल समाधि ले रहे टिहरी कॊ देखकर मेरे मन में तब क्या उथल पुथल मची थी, इसका एक हिस्सा यहां प्रकाशित कर रहा हूं-एल.पी.पंत
4टिहरी मेरे सिरहाने तक चला आया है। यहां कुछ दिन और रूका तो या तो आत्महत्या कर लूंगा या पागल हो जाऊंगा। यहां न जीवन है, न लहर है और न ही उछाल। मरघट सा शहर सब कुछ ठंडा। यह इतिहास की लहुलुहान रणभूमि है। रात का एक पहर बीत चुका है। एतिहासिक इमारतों की कब्र पर खड़ा बांध ठहाके लगा रहा है।
एल.पी.पंत
2 oct 2002
5हम सबने जिंदगी में बहुत कुछ नष्ट होते देखा है पर इस शहर के नष्ट होने की पीड़ा कुछ ओर ही है। प्रकृति और जीवन का अस्तित्व तकनीक के आगे यहां बहुत छोटा महसूस हो रहा है। धूप कुछ और ढल चुकी है। डूबता सूरज बहुत अकेला और उदास नजर आ रहा है। अपनी लाशनुमा जिंदगी से तंग आकर टिहरी अब अपनी जिंदगी खुद खत्म करने की आजादी चाहता है।
एल.पी.पंत
8 nov 2003
6रात होने को है। बांध की छायाएं और लंबी होकर सोने जा रही हैं। पूरी तरह टूट चुके एक मकान की खिड़क खुली है। पास ही एक बच्ची मलबे को आकार देने में जुटी है। हर बार मलबा खिसककर नीचे आ गिरता है। बच्ची हिम्मत नहीं हार रही है। नीड़ के निर्माण में लगातार जुटी है। बांध बनाने वाले बच्ची से बचकर गुजरते हैं। जैसे किसी दुर्गन्ध के पासे से हम नाक में रूमाल दिए तेजी से आगे बढ़ जाते हैं। पास ही एक मां अपने अजन्मे बच्चे को टिहरी से आखिरी खत लिख रही है।
एल.पी.पंत
13 apr 2004
7टिहरी में पसरे सुन्न सन्नाटे में मैं अपनी सांसों को सुन सकता हूं। इंसान के नाम पर सिर्फ अपनी छाया दिखाई देती है। चोंच में सपनों को समेटकर चिड़ियों का झुंड शहर छोड़कर जा रहा है। रात होने लगी है। अंधेरे में बाहर कुछ दिखता तो नहीं, गूंजती बस एक आवाज- मैं डूब गया, मैं डूब गया। सन्नाटे के बिस्तर पर रात सिसक रही है।
एल.पी.पंत
8 aug 2004
8टिहरी विस्थापित एकदम नए बने मकानों में बस चुके हैं। यहीं की छतें नहीं टपकतीं। दीवारों पर सीलन भी नहीं है। दरवाजे-खिड़कियां एकदम चकाचक। पर इस नई टिहरी में पुराने जैसा कुछ भी नहीं है। यह वर्तमान इतिहास की कोख से नहीं बल्कि इतिहास के शव पर उपजा है।
एल.पी.पंत
14 sep 2004
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चिड़ियों की चीखेंभावनाओं का बांधएक था टिहरी
6 टिप्पणियां:
बहुत ही मार्मिक वर्णन है। टिहरी एक वर्तमान से भूत बन गई, जिसका कोई भविष्य नहीं है।
घुघूती बासूती
nice
rakesh
d.doon
nice
nice
इससे पहले टिहरी के बारे में शायद ही कहीं पढा था।
मैं बहुत कुछ टिहरी बांध के विषय में नहीं जानता। केवल कुछ सुनता आया हूं।
आगे मैं जो कहने जा रहा हूं। शायद उसे पढ़कर लोग यह भी कहे कि विस्थापित नहीं हो। तो ऐसी बातें निकल रही है। पर, मेरा मानना है कि टिहरी को लेकर इतनी हाय-तौब्बा मचाने की जरूरत भी नहीं है। आखिरकार विकास चाहिए तो कुछ कुर्बानी देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। छोटी सी ही चीज।
गांवों में संपर्क मार्ग बनता है तो कईयों की जमीन, कइयों के मकान उसकी जद में आ जाते हैं। तो क्या सड़क न बने। यह कहते हुए इसका काम रोक देना चाहिए कि विस्थापन किसी भी कीमत पर नहीं होगा। कृषि योग्य भूमि है, इसलिए हम इसे नहीं देंगे। तो फिर हो चूका विकास। वहीं हुआ। विकास नहीं। तो सवाल। हैं तो सवाल। कहां तक जायज है। मुङो नहीं लगता कि टिहरी बांध को लेकर इतना छाती पीटने वालो को विकास के नाम पर सरकार को कटघरें में खड़ा करने का अधिकार है।
फिर यहां तो सवाल इक बांध का है। जिससे बिजली के साथ सिंचाई और पीने के पानी का मिलता है। कहीं-कहीं यह बाढ़ को रोकने तथा सुखा दूर करने में सहायक होता है। अगर सवाल खड़ा करना ही है तो उस सरकारी तंत्र पर करना चाहिए। जिसने पुर्नवास कायदे से न किया हो। बांध से लाभ न मिला हो। रोजगार न मिला हो।
इसका नहीं कि बांध में फला शहर डुब गया। उसके अवशेष दिखाई पड़ रहे है किसी कंकाल की तरह। लिखा तो काफी अच्छा गया। खासकर हिंदी शब्दों का जादूई प्रयोग हुआ है। किसी पटकथा की तरह। मुङो लगता है कि इन सभी संकलनों को पुस्तक का आकार देना चाहिए। फिर कहूंगा। लिखते समय सोचना चाहिए था कि मुद्दा क्या है। भोपाल का गैस त्रासदी कांड या मुबंई का आतंकवादी हमला नहीं है। जहां सरकार की नाकामी, अर्कमण्यता से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। या फिर नंदीग्राम नहीं। जहां के भौतिक संसाधनों पर बहुत कुछ टाटा का नैनों कार निर्भर नहीं था।
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