रविवार, 18 अप्रैल 2010

लकड़ी के संदूक वाला भूत



रस्किन बॉन्ड

जैसे-जैसे दिवाली निकट आती है, दिन छोटे होने लगते हैं और लंबी, ठंडी शामें भूत की कहानी सुनाने के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। ‘क्या आप भूतों में विश्वास करते हैं?’मुझसे अकसर लोग ये सवाल पूछते हैं, खासकर युवा, जो पारलौकिक शक्तियों से काफी अभिभूत रहते हैं। भले ही उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का ही बोलबाला हो।

‘मैं भूतों में वैसे तो विश्वास नहीं करता,’ मैं स्वीकार करता हूं, ‘लेकिन मैं समय-समय पर उन्हें देखता और सुनता जरूर रहता हूं।’मेरा ख्याल है हम सभी कभी न कभी भूतों के दर्शन करते ही हैं। आसपास से गुजरने वाले अजनबी चेहरे, कुछ जाने-पहचाने, लेकिन याद नहीं आते। क्या किसी पिछले जन्म में उनसे हमारा नाता था? भूत दरअसल होते क्या हैं, और वह प्रेत, जो लोगों को सपने में दिखाई देते हैं। कुछ याद आ जाते हैं, कुछ से हम पहली बार मिलने जैसे मिलते हैं।

मैं कभी-कभार भूतों की आवाज सुनता हूं। आधी रात को, जब मैं आधी नींद में होता हूं, किसी के खिड़की से टकराने और खड़खड़ाने की आवाज सुनाई देती है। कोई पतंगा, चमगादड़ या कोई गुजरती हुई आत्मा मुझे अपनी मौजूदगी का एहसास करा रही होती है। कुछ नजर नहीं आता। मैं अपना चेहरा खिड़की के कांच से टिका दूं, तब भी नहीं। और फिर हम हवा को भी तो नहीं देख सकते, हालांकि वह हमेशा मौजूद होती है। अदृश्य हवा, कभी शांत, कभी वहशी। मैं आपको उस नन्हे भूत के बारे में बताता हूं, जो मेरे दादाजी ने पकड़ा था।

जब मैं बारह या तेरस साल का था, एक बार जाड़े में मैं बोर्डिग स्कूल से वापस आया और दून में अपने दादाजी के पुराने घर में रहने के लिए गया। उन्होंने मुझे एक कमरा दे दिया। वह कमरा दरअसल मेरे अंकल केन का था। लेकिन उन्होंने उस कमरे में रहने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें पसंद नहीं था कि अजनबी आवाजों के शोर से उनकी नींद में खलल पड़े। अंकल केन दिन हो या रात, कभी भी गहरी नींद में सो सकते थे और अकसर सोते भी थे। कमरे के एक कोने में बड़ा सा लकड़ी का बक्सा रखा हुआ था, बहुत भारी और सख्त। इतना भारी कि मैं उसे मुश्किल से एक या दो इंच भी नहीं खिसका सकता था। उसमें हमेशा ताला बंद रहता था और उसकी चाबी दादी के पास रहती थी। वह चाबी दादी किसी को भी नहीं देती थीं, दादाजी को भी नहीं।उस कमरे में पहली रात तेज खटखटाहट से मेरी नींद खुल गई। मैं उठा और कमरे का दरवाजा खोला, लेकिन बाहर कोई भी नहीं था। जैसे ही मैं वापस बिस्तर पर गया, खटखटाने की आवाज फिर से आने लगी। तभी मुझे समझ में आया कि यह आवाज लकड़ी के बक्से में से आ रही थी। पूरी रात रह-रहकर वह आवाज आती और बंद हो जाती रही।

अगले दिन जब मैंने दादाजी को इसके बारे में बताया तो वे हंसे और बोले, ‘अरे वह तो हमारे घर में रहने वाला भूत है। हमें उसे पकड़कर ताले में बंद करना पड़ा। वो बहुत उत्पात मचा रहा था। वह बहुत शरारती था। जब भी जोश में होता, चीजें तोड़ता-फोड़ता रहता था। फर्नीचर उठाकर फेंकता, खिड़की-दरवाजे खुले छोड़ देता, तुम्हारी आंटी रूबी को डराता रहता था। वह दुष्ट प्रेत था। हमें उसे बक्से के अंदर बंद करना पड़ा।’‘लेकिन आपने ये किया कैसे? आपने भूत को कैसे पकड़ लिया?’

‘एक दिन वह भूत लॉन्ड्री वाली डोलची में बैठा हुआ था। वहां बैठकर वह मेरा पायजामा फाड़ने में लगा था। मैंने डोलची को एक झटके से बंद कर दिया। उसके बाद हमने प्रेत और डोलची को तुम्हारे कमरे में उस खाली ट्रंक में बंद कर दिया और उसमें हमेशा-हमेशा के लिए ताला लगा दिया। उसकी चाबी तुम्हारी दादी के पास है और वो उसे किसी को नहीं देंगी। वह कहती हैं कि उनकी बहुत कीमती क्रॉकरी खराब हो गई।’

मुझे भूत पर बड़ा तरस आया। बेचारा अंधेरे संदूक में बंद था। लेकिन जब रात में उसने बिना रुके लगातार खट-खट करना शुरू किया तो मुझे गुस्सा आ गया और मैं चिल्लाया : ‘चुप, शोर मचाने वाले बदमाश!’ और वह थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। लेकिन फिर सुबह होते-होते वह फिर से खट-खट की आवाज कर शोर मचाने लगा। मुझे ऐसा लगा कि कोई मिमियाहट जैसी आवाज में रो रहा है, ‘मुझे बाहर निकालो, प्लीज मुझे बाहर निकालो।’ कोई आश्चर्य नहीं कि अंकल केन ने इस कमरे में सोने से इनकार कर दिया था।

लेकिन मुझे इसकी आदत सी पड़ गई थी और कुछ हफ्तों के बाद जब मैं स्कूल वापस लौट गया, वह कमरा बंद पड़ा रहा। उस कैद भूत के अलावा और कोई उस कमरे का इस्तेमाल नहीं करता था। एक या दो साल बाद, जब मेरे दादाजी ने यह देश छोड़ दिया और न्यूजीलैंड जाकर बस गए तो वह अपनी संपत्ति मेरे चचेरे भाई पर्सी को सौंप गए। पर्सी एक स्वार्थी लड़का था, जिसका मुझे या अंकल केन या और किसी को भी वहां उस पुराने घर में ठहरने के लिए बुलाने का कोई इरादा नहीं था।

मुझे बाद में सुनने में आया कि दादी की चाबियां पर्सी को मिल गईं और तब उसने घर की सभी बंद आलमारियां और डिब्बे खोलकर देखे। सबसे अंत में उस लकड़ी के संदूक की बारी आई, जो अंकल केन के पुराने कमरे में रखा हुआ था। इस बात से आश्वस्त होकर कि जरूर उस ट्रंक में कीमती खजाना रखा हुआ है, पर्सी ने उस संदूक को खोलने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। लेकिन जैसे ही उसने ढक्कन उठाया, गंदी हवा का एक भभका सा उठा और पर्सी पीछे की ओर गिर पड़ा, क्योंकि किसी नाजुक लिसलिसी सी चीज ने उसे कसकर पकड़ लिया था।

पर्सी इस कमरे से उस कमरे में बदहवास भागता रहा। वह बगीचे और आम के बाग में दौड़ता फिरा। पर्सी ने अपना सामान पैक किया और बंबई चला गया, जहां उसके पास एक फ्लैट था, जिसकी खिड़की समंदर की ओर खुलती थी। लेकिन भूत उससे चिपका रहा और हर जगह उसका पीछा करता रहा। पर्सी ने अरब का रास्ता पकड़ा और समुद्री रास्ते से अफ्रीका चला गया। लेकिन वह बच नहीं पाया। आखिरी बार उसे जंजीबार के समुद्र तट पर एक पालतू झींगा मछली के साथ खेलते देखा गया और वह किसी अदृश्य साथी से बात कर रहा था। शायद वह वहीं हमेशा मौजूद रहने वाला भूत था। और उस पुराने घर का क्या हुआ? अंकल केन उस घर में रहने चले गए और बाकी जिंदगी वहां आराम से बसर की। दादाजी के बाग में पैदा होने वाले आम और पपीते से अपनी आजीविका लायक पैसे कमा लेते थे।

अब उस पुराने घर को देखने मत जाइए। इस घर के नए मालिक ने उसे बिगाड़कर रख दिया है और उस पुराने मकान की जगह पर फ्लैटनुमा डिब्बे खड़े कर दिए हैं। शायद किसी दिन वह भूत फिर से लौटकर आए, इन रहने वाले लोगों को सुधारने और सही राह पर लाने के लिए।