सोमवार, 14 मार्च 2011

पहाड़ जैसी चुनौतियां परिंदों जैसा जीवन:कीर्ति राणा


फोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ से मित्र की आवाज सुनाई दी। उन्होंने बताया कि परिवार सहित शिमला घूमने आना चाहते हैं। मैंने पहला प्रश्न किया - ‘पैदल चलने की आदत है या नहीं?’ ‘हां-हां क्यों नहीं, यहां भी तो पैदल चलते हैं।’ बातचीत में ही उन्होंने बताया, ‘एक दिन ही रुकेंगे, दूसरे दिन बाकी जगहों पर घूमने का प्रोग्राम है।’

खैर वे सपरिवार आए। ऊंचे-नीचे घुमावदार रास्तों के कारण हालत खराब हो गई। सामान उतारते ही नजरें ऑटो रिक्शा तलाशने लगीं। मैंने समझाया - यहां टेम्पो-ऑटो नहीं चलते। उनका चेहरा देखने लायक था। मैंने कहा - घबराओ मत, कुली कर लेते हैं। कुली ने पांच लोगों का सामान कंधों पर लादा। उसके पीछे हम कदमताल करते चल पड़े। जो लोग पहाड़ी इलाकों में पहली बार जाते हैं, वे एक दिन में ही इतना पैदल चल लेते हैं, जितना मैदानी इलाकों में महीनों में चलते होंगे। जैसे-तैसे होटल पहुंचे। कमरों की चाबी मिलते ही सीधे पलंग पर लेट गए और फरमान सुना दिया कि अब एक दिन यहीं रुकेंगे, बहुत थक गए हैं। मैंने याद दिलाया कि शिमला में दो दिन रुकने का तो प्रोग्राम था ही नहीं। जवाब मिला, थक गए हैं। सुबह जल्दी नहीं उठ पाएंगे। मैंने याद दिलाया, तुम तो कह रहे थे कि पैदल चलने की आदत है तुम्हारी।

अब वह मुझ से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहा था - यहां के लोग कैसे रोज के काम निपटाते होंगे? ऑटो-टेम्पो-तांगे नहीं चलते? माल रोड और आसपास के रास्ते ‘नो व्हीकल जोन’ क्यों कर रखे हैं? मैंने उसे समझाया कि ज्यादातर पहाड़ी क्षेत्रों में पैदल ही आना-जाना करते हैं लोग। बसें भी चलती हैं, लेकिन लोग शॉर्टकट रास्तों से पैदल जल्दी पहुंच जाते हैं। शिमला चूंकि अपनी खूबसूरती के कारण जाना जाता है, इसलिए भी कई इलाकों को ‘नो व्हीकल जोन’ घोषित कर रखा है। पहाड़ी शहरों में रास्ते संकरे होते हैं। जाम की स्थिति न बने, इसलिए भी भीड़ वाले इलाकों में पैदल ही आवाजाही रहती है। अब मित्र के बच्चों की जिज्ञासा थी कि क्या सभी जगह पैदल ही आना-जाना पड़ेगा? मैंने उन्हें समझाया - पैदल चलना तो अच्छा है सेहत के लिए। हमारे धार्मिक स्थल, शक्तिपीठ आदि पहाड़ियों पर इसलिए स्थापित हैं कि हम पैदल दर्शन को जाएं तो पहाड़, जंगल, पशु-पक्षी देखने के साथ ही पहाड़ी लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन को भी जान-समझ सकें।

हमारी जीवन शैली में कितना बदलाव आ गया है। अब पैदल चलने का मतलब है मॉर्निग वॉक। वह भी तब जब डाक्टर पैदल चलने की सलाह दें। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले हर रोज पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना करते हैं। शायद इसीलिए उनका दिल उदार होता है। कब आंधी चल पड़े, पानी बरसने लगे, बर्फ गिरने लगे, इन सारे हालात का चाहे जब सामना करने के लिए तत्पर रहने के कारण ही पहाड़ के लोग विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते-मुस्कराते नजर आते रहते हैं। मैदानी इलाकों में नल न आए तो पानी के लिए खून बहाने के हालात बन जाते हैं। बिजली गुल हो तो हाहाकार मच जाता है। पहाड़ी इलाकों में महीनों तक 8 से 12 फीट बर्फ जमी रहती है। बिजली गुल रहती है। मैदानी इलाकों में तो दसवीं पढ़ रहा स्टूडेंट भी शान से बाइक लेकर जाता है। पहाड़ों में 5-7 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल आना-जाना सामान्य बात है। जो है, जैसा है, हर हाल में खुश रहने की आदत पड़ जाने का ही नतीजा है कि पहाड़ के लोगों का स्वभाव अधिक शांत है। हर छोटी-मोटी बात पर धरना-प्रदर्शन-चक्काजाम-तोड़फोड़ करना इनके खून में शामिल नहीं है। अलबत्ता लोगों के इस ‘कोल्ड नेचर’ का फायदा उन राजनेताओं को ज्यादा हो रहा है, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में दुआ-सलाम करके इन लोगों का गुस्सा शांत करने का फॉमरूला पता होता है।

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