मंगलवार, 29 मार्च 2011

केवल पहाड़ों पर आता है वसंत


रस्किन बॉन्ड

आज जब पीछे लौटकर देखता हूं तो एकबारगी यकीन ही नहीं होता कि मैंने इन पहाड़ों पर इतने साल बिता दिए। 25 गर्मियां और मानसून और सर्दियां और वसंत (वसंत केवल पहाड़ों पर ही होता है, मैदानी इलाकों में नहीं)। मुझे वह आज भी कल ही की बात लगती है, जब मैं यहां पहली बार आया था।

समय गुजर जाता है, लेकिन गुजरकर भी गुजर नहीं पाता। लोग आते और चले जाते हैं, लेकिन पहाड़ अपनी जगह पर बने रहते हैं। पहाड़ जिद्दी होते हैं। वे अपनी जगह छोड़ने से इनकार कर देते हैं। हम चाहें तो विस्फोट करके उनके दिल में छेद कर दें या उनसे उनके वृक्षों का आवरण छीन लें या उनकी नदियों पर बांध बनाकर उनका रुख मोड़ दें या सुरंगें, सड़कें और पुल बना दें, लेकिन हम इन पहाड़ों को उनकी जगह से बेदखल नहीं कर सकते। मुझे उनकी यही बात सबसे अच्छी लगती है।

मुझे यह सोचकर अच्छा लगता है कि मैं पहाड़ों का एक हिस्सा बन गया हूं। मैं यहां इतने समय से रह रहा हूं कि अब मेरा इन दरख्तों, जंगली फूलों और चट्टानों से गहरा नाता बन चुका है। कल शाम जब मैं बलूत के दरख्तों के नीचे से होकर गुजर रहा था, तब मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं इस जंगल का एक हिस्सा हूं। मैंने अपना हाथ एक बूढ़े दरख्त के तने पर टिका दिया। जैसे ही मैं मुड़ा, पेड़ की पत्तियों ने मेरे चेहरे को सहला दिया। मानो वे इसके लिए मेरा आभार स्वीकार रही हों।

एक दिन मैंने सोचा कि यदि हम इन दरख्तों को बहुत ज्यादा सताएंगे तो कहीं ऐसा न हो किसी दिन वे अपनी जड़ें समेटकर कहीं और चले जाएं। शायद किसी और पर्वत श्रंखला पर, जहां मनुष्यों की पहुंच न हो। मैंने कई जंगलों को इसी तरह गायब होते देखा है। अब तो इन जंगलों को कहीं और जाने से रोकने के लिए काफी बातें की जाने लगी हैं। आजकल पर्यावरणविद् होना भी एक फैशन है। ठीक है। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि हमसे बहुत देर हो चुकी हो?

कॉनराड, मेलविल, स्टीवेंसन, मेसफील्ड जैसे कई महान लेखकों ने समुद्र के वैभव का उत्सव मनाया है, लेकिन ऐसे कितने लेखक हैं, जो पहाड़ों की निरंतरता को अपनी विषयवस्तु बनाते रहे हैं? पहाड़ों के बारे में कोई सच्ची भावना प्राप्त करने के लिए संभवत: मुझे प्राचीन चीन के ताओ कवियों की ओर मुड़ना होगा। किपलिंग जरूर कभी-कभी पहाड़ों का उल्लेख कर देते हैं, लेकिन मुझे पता नहीं कि किन भारतीय लेखकों ने हिमालय के बारे में महत्वपूर्ण साहित्य रचा है। कम से कम आधुनिक लेखकों में से तो किसी ने हिमालय पर नहीं लिखा। आमतौर पर लेखकों को अपनी आजीविका चलाने के लिए मैदानी इलाकों में ही गुजर-बसर करनी पड़ती है। लेकिन मेरे जैसे लेखक के लिए पहाड़ बहुत ही उदार साथी साबित हुए हैं।

वास्तव में पहाड़ शुरू से ही मेरे प्रति उदार रहे। मैंने दिल्ली में अपनी नौकरी छोड़ दी थी और पहाड़ों की गोद में रहने चला आया था। आज बहुतेरे हिल स्टेशन अमीरों की आरामगाह हैं, लेकिन पच्चीस साल पहले यहां गरीब-गुरबे लोग बहुत कम आमदनी में भी मजे से रहते थे। यहां बहुत कम कारें दिखाई देती थीं और अधिकतर लोग पैदल ही चलते थे। मेरी कॉटेज बलूत और मेपल के जंगल के किनारे पर थी और मैंने वहां आठ-नौ साल बिताए। वे बहुत खुशनुमा साल थे और इस दौरान मैं कहानियां, निबंध, कविताएं और बच्चों के लिए किताबें लिखता रहा। पहाड़ों पर रहने से पहले मैं बच्चों के लिए कुछ नहीं लिख पाया था।

मुझे लगता है कि इसका कोई न कोई संबंध प्रेम के बच्चों से होगा। प्रेम और उसकी पत्नी ने मेरे घर की देखरेख का पूरा जिम्मा अपने कंधों पर उठा लिया था। मैं तो खैर इन मामलों में अनाड़ी ही हूं। मैं तो अपने आपको बिजली के फ्यूज, गैस सिलेंडर, पानी के पाइप, आंधी में उड़ जाने वाली टिन की छत जैसी चीजों के सामने असहाय ही महसूस करता हूं। प्रेम और उसकी पत्नी के कारण ही मैं लेखन में मन लगा पाया। उनके बच्चे मुकेश, राकेश और सावित्री हमारे मेपलवुड कॉटेज में ही पले-बढ़े। यह स्वाभाविक ही था कि मैं उनके परिवार का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। एक दत्तक पितामह। राकेश के लिए मैंने चेरी के एक ऐसे दरख्त की कहानी लिखी, जो पनप नहीं पा रहा था। नटखट मुकेश के लिए मैंने भूकंप से संबंधित एक कहानी लिखी। सावित्री के लिए मैंने कविताएं और गीत लिखे।

पहाड़ों पर रहते हुए मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि मेरे पास लिखने के लिए कुछ भी नहीं है। पहाड़ी के नीचे एक छोटी-सी नदी बहती थी और उसने मुझे छोटे जीव-जंतुओं, जंगली फूलों, परिंदों, कीड़े-मकोड़ों, पौधों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। आस-पड़ोस के गांव और वहां रहने वाले खुशमिजाज लोग हमेशा मुझे आकर्षित करते रहे। लेंडूर और मसूरी हिल स्टेशनों के पुराने घर और इनमें रहने वाले लोग भी हमेशा मेरी दिलचस्पियों के दायरे में रहे। मैं पहाड़ों की पगडंडियों पर पैदल चलता रहा। कभी-कभी मैं सड़क किनारे चाय की दुकान या किसी देहाती स्कूल में जाकर थोड़ी देर सुस्ता लेता। किपलिंग ने कहा था कि पहाड़ों की गोद में जाना मां की गोद में जाने की तरह है। इससे सच्ची बात शायद ही कोई दूसरी हो सकती है। पहाड़ एक गर्वीली किंतु प्रेम करने वाली मां की तरह हैं। जब भी मैं लौटकर उनके पास गया, उन्होंने स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया। मैं कभी उनसे दूर नहीं हो पाया।

लेकिन कुछ कठिनाइयां भी आती रहीं। कभी-कभी ऐसा होता कि मेरा सारा पैसा खत्म हो जाता। मैं अपने लेखन से इतना पैसा कभी नहीं कमा पाया कि अपने लिए एक अच्छा-सा घर बनवा पाऊं। अगर मैं लंदन में होता या अपने भाई की तरह कनाडा में या फिर मुंबई में ही होता तो शायद मैं इससे ज्यादा पैसे कमा पाता। लेकिन अगर मुझे फिर से चुनाव करने का मौका मिले, तब भी मैं इन पहाड़ों को ही चुनूंगा। पहाड़ हमें जिस तरह की स्वतंत्रता देते हैं, वह कोई और जगह नहीं दे सकती। इस मायने में पहाड़ स्वर्ग के बहुत करीब हैं।

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