सोमवार, 4 जनवरी 2010

चलती-फिरती फुलवारियां

आप चौंक रहे होंगे, फुलवारियां और वॊ भी चलती-फिरती। गढ़वाल में सुप्रसिद्ध हिम-क्रीड़ा स्थल औली के आसपास बसे गांवॊं में कुछ ऐसा ही दृश्य नंदाष्टमी के दिन देखने को मिलता है। इस दिन हिमालय की ऊंची श्रृंखलाओं में खिलने वाले दिव्य ब्रह्मकमल फूलों को अनूठा त्योहार मनाया जाता है और गांव-गांव में मेले लगते हैं। दो दिन पूर्व गांव-गांव से कुछ लोग किट मार्गो में चलते हुए १६ -१७ हजर फीट ऊंचे दर्रो पर पहुंचते हैं। उनके पास पीठ पर लगी एक-एक कंड व रिंगाल से बनाई गई छतरियां होती हैं, जिन पर दुर्लभ भोजपत्र वृक्ष की छालें लपेट ली जाती हैं।

ये लोग बरसात में खिलने वाले हिमपुष्प ब्रह्मकमल को बड़ी संख्या में तोड़कर छतरी व कंड में सजा कर गांव लौटते हैं। इन लोगों को स्थानीय बोली में ‘फुल्यारी कहते हैं। यह फुलवारी का ही अपभ्रंश है। सचमुच, जब ये लोग सर से पांव तक फूलों से लकदक भरे पहाड़ी ढलानों से लौटते हैं तो बिलकुल ऐसा लगता है- जैसे फुलवारियां ही चलती-फिरती आ रहीं हों। जब ये अपने-अपने गांव पहुंचते हैं तो गांवॊं में इनका भव्य स्वागत होता है। लोकगीत, नृत्य शुरू हो जाते हैं। विशेष पूजा होती है। मेले का दृश्य जीवंत हो उठता है। कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाले इस आनंदमय वातारण में सराबोर हो उठती हैं। नर-नारियों में सुख-सौभाग्य के सूचक ब्रह्मकमल फूलों को प्राप्त करने की होड़ सी लग जाती है।

दरअसल भादो माह की नंदाष्टमी को यहां शिव-पार्वती के विवाह होने के उपलक्ष्य में विशेष त्योहार उल्लासर्पूक मनाया जाता है। पार्वती ही यहां नंदादेवी है। नंदादेवीं पर पर्वतवासियों की अडिग आस्था आज भी कायम है। रहस्य-रोमांच, सुख-दुख, साहस-संघर्ष से भरी हुई दंतकथाओं और लोकगीतों में नंदादेवी का रूप देवी से कहीं ज्यादा बढ़कर एक पहाड़ी बहू-युती का है। बेटी के ब्याह में जश्न मनाये जाने की अवधारणा के अंतर्गत पर्वतीय क्षेत्र में नंदाष्टमी को विशेष उत्साह से मनाया जाता है।

बद्रीनाथ धाम से पूर्व औली (जोशीमठ) के आसपास बसे गांव हेलंग-सेलंग, सलूड़, डाडौ, परसारी, तपोन, उर्गम,-भरक, बांसा, कलगोठडुमक में यह फूलों भरा उत्सव आज भी नंदादेवी के प्रति अत्यन्त आत्मीय आस्था को दर्शाता है। नंदाष्टमी से दो दिन पूर्व एक विशेष सामूहिक पूजा के बाद फुल्यारी यानी कुछ चुनिंदा साहसी युवक प्रत्येक गांव से कठिन हिमालय दर्रे की तरफ निकल पड़ते हैं। सभी अलग-अलग रास्तों से चलते हुए अंतत: तेरह हजार फीट की ऊंचाई पर करी बुग्याल पहुंचते हैं। रात्रि विस्राम वहां प्राकृतिक गुफाओं में या भेड़-बकरी पालकों के अस्थयी डेरों में करते हैं। अगले दिन सुबह मुंह अंधेरे में ही वे अत्यंत ठंडे पानी में नहा-धोकर मसाण्गेठा नाम बीहड़ दर्रे की ओर निकल पड़ते हैं।

यह दर्रा १६ से १७ हजार फीट ऊंचाई तक पसरा हुआ है। चारों ओर हिमखंड, चट्टानों पत्थरों का महाराज्य फैला हुआ दिखता है एक अविनाशी मौन में डूबा हुआ। इन दिनों यहां इन चट्टानों और पत्थरों में चारों ओर खिले होते हैं ब्रह्मकमल। पूजा-अर्चना के इन्हीं ब्रह्मकमलों को लेने जाते हैं फुल्यारी युवक।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया जानकारी..


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