राजेंद्र पचौरी
भारत एक लोकतांत्रिक और जिम्मेदार देश है। 2010 में भारत को पर्यावरण प्रबंधन के लिए बेसिक देशों के साथ मिलकर वैश्विक बंधुत्व के नजरिए से काम करना होना। इसकी भूमिका नवंबर 2009 में जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन में हुए सम्मेलन में तय हो गई है।
दुनिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भारत और चीन (बेसिक समूह) ने मिलकर इस जिम्मेदारी को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया है। बेशक विकसित देशों ने अपनी अपेक्षित जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया, लेकिन ये चार विकासशील देश मिलकर आगे आए हैं। बेसिक समूह के कंधों पर बड़ा दायित्व है और इससे भारत को बहुत उम्मीदें हैं। बेसिक समूह अमेरिका के साथ मिलकर पूरी दुनिया में कोपेनहेगन के प्रस्तावों को क्रियान्वित करने के लिए काम करेगा।
ग्लोबल वार्मिग और पर्यावरण को लेकर अब तक हुए सभी सम्मेलनों में संभवत: कोपेनहेगन सम्मेलन सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। सभी इस बात से सहमत थे कि जलवायु परिवर्तन हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है, हमारी धरती खतरे में है। वे इस बात पर भी सहमत थे कि पूरी दुनिया के स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में जबर्दस्त कटौती की जरूरत है। बहुत निराशाजनक होने और अपनी अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के बावजूद सभी देश अंत तक कुछ जरूरी मुद्दों पर महत्वपूर्ण नतीजों तक पहुंच सके। कोपेनहेगन के प्रस्तावों पर निगाहें तो सभी देशों की थीं, लेकिन उन पर अपनी स्वीकृति की मोहर दुनिया के कुछ मुट्ठी भर देशों ने ही लगाई। भारत उनमें से एक है।
भारत जैसे विकासशील देशों के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधानों का बहुत महत्व है। जलवायु परिवर्तन की चिंताओं के संबंध में जो भी नए अनुबंध हों, चाहे वे जिस भी नाम से हों, सबसे जरूरी यह है कि क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिंदुओं का नए अनुबंध में भी जस का तस पालन किया जाए। फरवरी के अंत तक यह परिदृश्य साफ हो चुका होगा कि किन देशों ने इस सम्मेलन के प्रावधानों को गंभीरता से लिया है और उस पर अमल कर रहे हैं। विकसित देशों ने यह वादा किया है कि वे 2010 से 2012 के बीच की अवधि में 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता प्रदान करेंगे।
विकसित देशों ने यह वादा तो कर दिया, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राशि किन स्रोतों के माध्यम से कैसे आएगी और किन कामों में उसका समुचित इस्तेमाल किया जाएगा। इसके विवरण पर नजर रखने के लिए एक उच्च स्तरीय पैनल का गठन किया जाएगा। यह पैनल धन के स्रोतों व उसके प्रबंधन की निगरानी करेगा। पैनल का गठन तो हो जाएगा, लेकिन यह बेसिक देशों का दायित्व है कि वे इस बात को सुनिश्चित करें कि इस पैनल में विकासशील देशों का नेतृत्व और उनकी सक्रिय भागीदारी हो। जब तक विकासशील देश बढ़कर आगे नहीं आएंगे और नेतृत्व की कमान नहीं संभालेंगे, तब तक जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की समस्या को पूरी शक्ति और सामथ्र्य के साथ चुनौती नहीं दी जा सकती है।
विकसित देश अपनी अपेक्षित जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर रहे हैं, लेकिन भारत इस प्रक्रिया में ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता कि जैसे वह दुनिया से कटा हुआ है। हमें अपने साथ-साथ सभी गरीब और कम विकसित मुल्कों को भी साथ लेकर चलना होगा। अफ्रीका के देशों, छोटे देशों और द्वीपों को ऐसा महसूस नहीं होना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिग के खिलाफ इस जेहाद में उन्हें बिल्कुल पीछे छोड़ दिया गया है। वे हाशिए पर पड़े हैं और दुनिया की बड़ी ताकतों को उनकी कोई परवाह नहीं है। यह हमारे नेताओं, सत्ता प्रतिष्ठानों और नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वह संपूर्ण विश्व को यह विश्वास दिलाएं कि भारत की चिंताएं सिर्फ अपने निजी राष्ट्रीय हितों तक ही सीमित नहीं हैं।
दैनिक भास्कर से साभार
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2 माह पहले
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