सोमवार, 25 जनवरी 2010

पहाड़ों में बसा बनारस

रस्किन बॉन्ड
पहली बार किसी नदी का दूसरी विशाल नदी के साथ संगम होते हुए देखना मेरे लिए बहुत खास क्षण था। वह नदी थी मंदाकिनी। रुद्रप्रयाग में मंदाकिनी के जल का अलकनंदा के साथ महामिलन हुआ। एक केदारनाथ के बर्फीले शिखरों से बहकर आई और दूसरी बदरीनाथ के ऊपर हिमालय की चोटियों से। दोनों ही पवित्र नदियां हैं। दोनों ही आगे चलकर पवित्र गंगा हो जाती हैं। पहली ही नजर में मुझे मंदाकिनी से प्रेम हो गया। या फिर मुझे उस घाटी से प्रेम हो गया।

ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन इस बात से ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता। घाटी ही नदी है। अलकनंदा घाटी की ऊंचाई पर बहुत गहरे और संकरे रास्ते हैं। वहां ढालू चट्टानें पर्यटक के ऊपर डरावनी होकर लटकी रहती हैं। मंदाकिनी घाटी काफी चौड़ी, सुकूनदेह और बड़े-बड़े खेतों से भरी हुई है। कई जगहों पर नदी के तट बहुत हरे-भरे हैं। रुद्रप्रयाग काफी गर्म है। जाड़े के दिनों में संभवत: यह काफी खुशनुमा और आरामदेह जगह होती है, लेकिन जून महीने के आखिर में यह निश्चित रूप से काफी तपती हुई जगह है। लेकिन जैसे-जैसे कोई नदी के साथ-साथ चलता जाता है और घाटी में धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है तो बर्फ के बीच से ठंडी हवाएं बहती हैं और हवाओं में बारिश की महक घुली हुई होती है।

नदी के एक चौड़े घाट पर एक भरा-पूरा कस्बा अगस्तमुनि भी बसा हुआ है और नदी की धारा के साथ और ऊपर जाने पर एक जगह है चंद्रपुर। हम अपने सफर को कुछ देर रोकने और वहां की नर्म-हरी घास पर थोड़ी देर सुस्ताने से खुद को रोक नहीं पाते। यह हरी घास नदी के साथ-साथ ढालू होती चली गई है। इस जगह पर गढ़वाल मंडल विकास निगम एक छोटा सा विश्रामगृह बना रहा है और कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि क्यों। यह ऐसी जगह है, जहां सिर्फ एक या दो घंटे नहीं, बल्कि एक या दो या फिर कई-कई दिन रुका जाए। एक हंसमुख सा चौकीदार हमारे लिए चाय बनाता है, जबकि उसके ढेर सारे बच्चे हमारे आसपास फिरते रहते हैं। केले की पत्तियां झूमती हैं और पीपल की पत्तियां हवा के साथ नाचती हैं।

नदी तेजी से कलकल करती, चट्टानों पर बलखाती, गोते खाती बहती जाती है। अपने बर्फीले फेनिल जल के संग पहाड़ों से बचकर भाग निकलने के लिए वह सबसे आसान रास्ते तलाशती है। बचकर भाग निकलना तो एक शब्द है। बहुत से गढ़वालियों की एक सतत दुख की अभिव्यक्ति यह होती है कि उनके पहाड़ विपुल नदियों से भरे हुए हैं, लेकिन सारा पानी बहकर नीचे चला जाता है और अगर थोड़ा-बहुत कहीं पहुंचता भी है तो ऊपर के खेतों और गांवों में। सड़क धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ती है। वह अभी भी नदी के साथ-साथ चल रही है। गुप्तकाशी के ठीक बाहर एकाएक हमारा ध्यान विशालकाय वृक्षों के एक झुंड की तरफ जाता है। उन वृक्षों की छाया में एक छोटा सा प्राचीन मंदिर है। हम वहां जाते हैं और वृक्षों की छाया में प्रवेश करते हैं। मंदिर बिलकुल निर्जन है।

यह भगवान शिव का मंदिर है। मंदिर के प्रांगण में नदी के जल से घिसकर गोलाकर हुए पत्थर के ढेर सारे शिवलिंग हैं, जिनके इर्द-गिर्द पत्तियां और फूल गिरे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां कोई आता नहीं है। यह थोड़ा विचित्र है, क्योंकि यह मंदिर तीर्थयात्रियों के मार्ग में है। पास के खेत से दो लड़के अपने जुते हुए बैलों को छोड़कर हमारे पास आते हैं और बात करते हैं, लेकिन वे भी उस मंदिर के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता पाते, सिवाय इसके कि इस मंदिर में कभी-कभार ही कोई आता है। बस यहां रुकती नहीं है। यह पर्याप्त वाजिब वजह लगती है। बस जहां जाती है, तीर्थयात्री भी वहीं जाते हैं और एक तीर्थयात्री जहां जाता है, बाकी तीर्थयात्री भी उसी राह का अनुसरण करते हैं। उससे ज्यादा नहीं और उससे आगे नहीं।

वह वृक्ष अपनी महक और फूलों के आकार के कारण चंपक प्रजाति के लगते हैं और वे लड़के उन्हें चंपास बोलते हैं। लेकिन मैंने कभी चंपास पेड़ों को इतनी भारी संख्या में उगते हुए नहीं देखा। संभवत: वे कोई और वृक्ष हैं। कोई बात नहीं। उन वृक्षों को एक मधुर-सुगंधित रहस्य ही बना रहने देते हैं। जब हम वृक्षों को अलग-अलग वर्गो में बांटते हैं और उन्हें लंबे-लंबे लैटिन नाम देते हैं तो हम किसी चीज को उनसे अलग कर रहे होते हैं - उन वृक्षों का जादू और उनमें लिपटा हुआ आश्चर्यलोक। शाम का समय गुप्तकाशी में काफी हलचलों से भरा होता है। केदारनाथ की ओर जाती हुई तीर्थयात्रियों से भरी हुई एक बस अभी-अभी पहुंची है और बस अड्डे के पास चाय की दुकानों में खासी कमाई हो रही है। तभी नदी पार ओखीमठ से एक स्थानीय बस वहां पहुंचती है और ढेर सारे यात्री चाय की दुकान का रुख करते हैं। वह दुकान अपने समोसे के लिए विख्यात है। स्थानीय बस का नाम है ‘भूख हड़ताल बस’। ‘इस बस का ये नाम कैसे पड़ा?’ मैं एक समोसा खाने वाले से पूछता हूं।

‘ये बड़ी मजेदार कहानी है। बहुत दिनों से हम अधिकारियों से यहां के स्थानीय लोगों और सड़क के पास रहने वाले गांव वालों के लिए एक बस की व्यवस्था करने की मांग कर रहे थे। बाकी बसें श्रीनगर से आती हैं और तीर्थयात्रियों से भरी होती हैं। स्थानीय लोगों को उनमें बैठने की जगह नहीं मिलती। लेकिन हमारी मांग को तब तक अनदेखा और अनसुना किया जाता रहा, जब तक हम सबने मिलकर भूख हड़ताल पर जाने का निर्णय नहीं लिया। हड़ताल सफल रही और उस सफल भूख हड़ताल के नाम पर ही इस बस का नाम पड़ा। गुप्तकाशी में कोई सिनेमा हॉल या मनोरंजन की जगह नहीं है। पूरा कस्बा जल्दी सो जाता है और जल्दी उठ जाता है। सुबह छह बजे ताजातरीन बारिश से हरी-भरी पहाड़ियां सूर्य की रोशनी में जगमगा उठती हैं। हवा स्वच्छ है। मुझे बताया गया कि यहां मौसम पूरे वर्ष सुहावना रहता है। दूसरी पहाड़ी पर ओखीमठ अभी भी धुंधलके में छिपा हुआ है।

गुप्तकाशी का सौंदर्य अभी भी बैरक जैसी दिखने वाली इमारतों से खराब नहीं हुआ है, जो कई विकसित हो रहे पहाड़ी कस्बों में खड़ी हो रही हैं। पुराने दोमंजिले मकान पत्थर के बने हुए हैं, जिनके ऊपर भूरे स्लेट की छतें हैं। वहां के लोगों में से एक हमें गुप्तकाशी के प्रसिद्ध मंदिर में ले जाता है। बनारस की तरह वहां विश्वनाथ और दो धाराओं (भूमिगत धारा) के रूप में शिव की पूजा होती है।

यह दोनों धाराएं पवित्र यमुना और भगीरथी की प्रतीक हैं। इसी मंदिर की वजह से इस जगह का नाम गुप्तकाशी पड़ा है - छिपा हुआ बनारस। उस कस्बे और उसके आसपास के क्षेत्रों में ढेर सारे शिवलिंग हैं। वहां रहने वाले लोग कहते हैं - जितने कंकर, उतने शंकर। वहां की पवित्रता को व्यक्त करने के लिए यह एक जन कहावत बन गई है। मैं इस नदी तक फिर लौटकर आऊंगा। इस नदी ने मेरे हृदय को अपने मोहपाश में बांध लिया है। और उसी तरह इस नदी तट पर रहने वाले यहां के उदार और भाईचारे से भरे हुए लोगों ने मेरा दिल जीत लिया है।

रस्किन बॉन्ड लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

4 टिप्‍पणियां:

Sachi ने कहा…

सुंदर लेख का बढ़िया अनुवाद|

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

यह लेख आज भास्कर में छपा है।

babulal sharma ने कहा…

bahut achcha laga; sir.

babulal sharma ने कहा…

bahut achcha laga; sir.