सोमवार, 5 अप्रैल 2010

मेरे एकांत के दुश्मन


रस्किन बॉन्ड
मुझे लोग अच्छे लगते हैं और हर किस्म के लोगों से मिलना पसंद भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे पास लिखने को भी कुछ न होता। लेकिन एक साथ ढेर सारे बिना बताए ही आ धमकें और लगें दरवाजा पीटने, जबकि मैं कोई कविता या कहानी लिखने में मगन होऊं या यूं ही दोपहर में आराम फरमा रहा होऊं तो मैं थोड़ा चिड़चिड़ा जाता हूं। कई बार तो उन्हें उल्टे पांव वापस लौटा देता हूं।

अपनी निजता का अधिकार कमाल की अवधारणा है और शायद पश्चिम में यह होता भी है, लेकिन पूर्वी देशों में निजता महज एक खामख्याली है। अगर मैं एकांत में रहना चाहूं तो मुझे बेशर्म झूठा बनना पड़ता है। मुझे ऐसे दिखाना पड़ता है मानो मैं शहर में हूं ही नहीं और अगर इससे भी काम न बने तो यह घोषणा करनी पड़ती है कि मुझे चेचक निकल आई है या कि गले में गांठ (मम्प्स) हो गई है या किसी नए किस्म के एशियन फ्लू ने पकड़ लिया है।

मुझे लोग अच्छे लगते हैं और हर किस्म के लोगों से मिलना पसंद भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो मेरे पास लिखने को भी कुछ न होता। लेकिन एक साथ ढेर सारे लोग धावा बोल दें, ये मुझे कुछ जंचता नहीं। और अगर वे बिना बताए ही आ धमकें और लगें दरवाजा पीटने, जबकि मैं कोई कविता या कहानी लिखने में मगन होऊं या यूं ही दोपहर में आराम फरमा रहा होऊं तो मैं थोड़ा चिड़चिड़ा जाता हूं या उनका स्वागत करने की मन:स्थिति में नहीं होता। कई बार तो उन्हें उल्टे पांव वापस लौटा देता हूं। जैसे-जैसे मैं बूढ़ा हो रहा हूं, दोपहर की नींद मेरे लिए महज आरामतलबी नहीं, एक जरूरत हो गई है।

लेकिन बड़ा विचित्र है कि लोगों को मुझे दोपहर में दो से चार के बीच ही फोन करना होता है। मेरे ख्याल से उस वक्त उनके पास करने-धरने को कुछ होता नहीं। ‘ये दोपहरी कैसे काटें?’ उनमें से कोई एक बोलेगा। ‘मुझे मालूम है, चलो बुढ़ऊ रस्किन के पास। और कुछ नहीं तो कम से कम वे कुछ जोशीली बातें करके हमारा मन ही बहलाएंगे।’ जोशीली बातें और वो भी भरी दोपहरी? सुकरात भी होते तो इस ख्याल से भाग खड़े होते।

‘माफ कीजिए, मैं आज नहीं मिल सकता।’ मैं भुनभुनाता हूं। ‘मेरी तबीयत जरा नासाज है।’(दरअसल झोला भर अजनबियों के मेरे ऊपर हमला कर देने के ख्याल भर से तबीयत कुछ ज्यादा ही नासाज हो जाती है।) ‘तबीयत ठीक नहीं? ओह, माफ कीजिए। यहां मेरी पत्नी होमियोपैथ डॉक्टर है।’ कमाल की बात है कि जाने कितने होमियोपैथी के जानकार मेरे दरवाजे आते रहते हैं। बदकिस्मती ये कि अपनी छोटी-छोटी पुड़िया वो कभी खुद पर नहीं आजमाते, जो सिर दर्द से लेकर हार्निया तक का रामबाण इलाज है। एक दिन एक परिवार बिना बुलाए आ धमका। पतिदेव आयुर्वेद के डॉक्टर थे, पत्नी होमियोपैथी की और बड़ा बेटा एलोपैथिक मेडिकल कॉलेज का विद्यार्थी।
‘आप में से कोई एक बीमार पड़ जाए तो आप क्या करते हैं? मैंने पूछा।

‘निर्भर करता है कि बीमारी क्या है।’ युवा लड़के ने कहा, ‘लेकिन हम बहुत कम बीमार पड़ते हैं। मेरी बहन योग विशेषज्ञ है।’ उसकी लहीम-शहीम बहन, उम्र बीस के आसपास, योग गुरु कम और पहलवान ज्यादा नजर आती थी। उसने मेरी तोंद का मुआयना किया। उसने देख लिया कि तोंद का आकार कुछ अच्छा नहीं था। ‘मैं आपको कुछ व्यायाम सिखा सकती हूं,’ उसने कहा, ‘लेकिन उसके लिए आपको लुधियाना आना होगा।’ मैंने राहत की सांस ली कि लुधियाना मसूरी से छह घंटे ड्राइव करने की दूरी पर है। हमने खुशी-खुशी विदा ली, लेकिन हर बार आलम ऐसा ही नहीं होता।

एक और महिला थीं, बेहद जिद्दी और इतनी लंठ कि अगर मैं ये कह दूं कि मुझे बर्ड फ्लू हो गया है, तब भी वह टस-से-मस होने वाली नहीं थीं। ‘मैं आपसे मिलना चाहती हूं,’ वह बोलीं, ‘मैंने एक उपन्यास लिखा है और मैं चाहती हूं कि आप बुकर पुरस्कार के लिए उसकी पैरवी कर दें।’ ‘वहां मेरी कोई जान-पहचान नहीं है,’ मैंने विनती की।

‘फिर नोबेल पुरस्कार कैसा रहेगा?’ मैंने एक मिनट सोचा और फिर बोला, ‘सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र में, यदि जींस, स्टेम सेल से जुड़ी चीज हो तो।’ उन्होंने मुझे यूं देखा मानो मैं कोई फटेहाल चिरकुट हूं। ‘आप मददगार नहीं हैं।’ ‘ठीक है, आप मुझे अपनी किताब पढ़ने तो दीजिए।’

‘मैंने अभी तक लिखी नहीं है।’ ‘ठीक है तो आप तब क्यों नहीं आतीं, जब किताब पूरी हो जाए? खुद को एक साल, दो साल का वक्त दीजिए, ऐसे काम जल्दी में नहीं होते।’ ऐसा कहते हुए मैंने उन्हें दरवाजे का रास्ता दिखाया। ‘आप बड़े कठोर हैं।’ उन्होंने कहा, ‘आपने मुझे भीतर आने के लिए भी नहीं पूछा। मैं खुशवंत सिंह से आपकी शिकायत करूंगी।

वे मेरे मित्र हैं। वे अपने कॉलम में आपके बारे में लिख देंगे।’ मैंने कहा, ‘अगर आप खुशवंत सिंह को जानती हैं तो मुझे क्यों परेशान कर रही हैं। वे तो नोबेल वालों, बुकर वालों, सबको जानते हैं। दरअसल सभी नामी-गिरामी लोगों से उनकी पहचान है।’ मैंने उन्हें कभी दोबारा नहीं देखा। लेकिन उन्हें मेरा नंबर मिल गया और अब वह हफ्ते में एक बार फोन करके बताती हैं कि उनकी किताब का काम अच्छा चल रहा है और वह कभी भी अपनी पांडुलिपि लेकर आ सकती हैं।

यूं ही कभी भी अपनी किताब या पांडुलिपियां लेकर धमक पड़ने वाले आगंतुकों से मैं बड़ा खौफ खाता हूं। वे मुझसे मेरी राय पूछते हैं और यदि मैं अपनी दो-टूक राय दे दूं तो उनका मुंह फूल जाता है। वैसे भी किसी होने वाले लेखक को यह कहना गलत होगा कि बेहतर है कि तुम्हारा ये संस्मरण, उपन्यास या कविताएं न ही छपें। किसी की हत्या कर देना इससे कम बड़ा गुनाह है। इसलिए मैं सुरक्षित पाला ही चुनता हूं और कहता हूं, ‘बहुत अच्छा है, लिखते रहो।’ लेकिन ये और भी खतरनाक है क्योंकि फिर तुरंत ही मुझसे प्रकाशक के एक नाम चिट्ठी के साथ-साथ किताब की भूमिका या परिचय लिखने की भी मांग कर दी जाती है। न चाहते हुए भी मैं साहित्यिक एजेंट बन जाता हूं। वो भी मुफ्त का। मैं कला और साहित्य का बड़ा हिमायती हूं और उसे बढ़ाना चाहता हूं।

लेकिन मुझे लगता है कि लेखकों को अपने प्रकाशक खुद ढूंढ़ने चाहिए और अपनी किताब की भूमिका भी खुद ही लिखनी चाहिए। इससे जुड़ी एक दुर्घटना हो चुकी है, जब मुझे एक किताब की भूमिका लिखनी पड़ी थी। किताब एक भयानक मानव भक्षक तेंदुए के बारे में थी, जो दोगादा (गढ़वाल में एक जगह) में लोगों का मांस खाना पसंद करता था। किताब के लेखक को ठीक-ठीक एक पंक्ति लिखनी भी नहीं आती थी, लेकिन किसी तरह उसने उस तेंदुए के बारे में ढेर सारी जानकारियां एक जगह जुटा ली थीं।

वो मुझे फोन कर-करके और बोल-बोलकर इतना पीछे पड़ा कि आखिरकार मैंने उस किताब की भूमिका लिख ही दी। बाद में वह एक फोटो के लिए मेरी जान खाता रहा। महीनों बाद जब किताब छपकर आई तो उसमें मेरा फोटो और उस मरे हुए तेंदुए का भी फोटो था। लेकिन स्थानीय छापेखाने वाले ने फोटो के कैप्शन उलट दिए थे। मरे हुए जानवर के नीचे लिखा था: ‘विख्यात लेखक रस्किन बॉन्ड,’ और मेरी फोटो के नीचे यह ऐतिहासिक पंक्ति लिखी थी: ‘भयानक मानव भक्षक। अपने छब्बीसवें शिकार के मारे जाने के बाद ली गई फोटो।’ दुष्ट छापेखाने वाले ने मुझे ‘सीरियल किलर’ बना दिया।

4 टिप्‍पणियां:

अपना अपना आसमां ने कहा…

पंत जी बहुत बढ़िया और जरूरी विषय को लेकर ब्लॉग लिख रहे हैं। हिमालय से जुड़ा होना अपने आप में रोमांच पैदा करता है.. उस पर वहीं पैदा होना...पलना..बढ़ना और अब उसकी देखभाल के लिए जतन करना कितना बेहतरीन और सुकूनदेह काम है...जैसे बूढ़े पिता को देखने शहर से वापस लौट पड़ना.
हमारी शुभकामना!!

Jandunia ने कहा…

लंबी पोस्ट है कंम्प्यूटर पर पढ़ने में थोडी दिक्कत होती है। फिर भी आपकी पोस्ट अच्छी है।

L.Goswami ने कहा…

पोस्ट अच्छी है।

alka ने कहा…

bahut khoob pant..lage raho