शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बुरांश की लालिमा में खोए नेहरू

अपनी पहाड़ यात्रा के इस दौर में पंडित नेहरू ने प्रकृति का जी भर कर रसास्वादन किया। यह बसंत का मौसम था और जवाहर लाल पहाडिय़ों पर गुलाब की तरह खिले हुए बड़े बड़े रोडडेन्ड्रन (बुरांश) के फूलों की लालिमा में खोये हुए थे। विनोद भारद्वाज बता रहे हैं कि अपनी इस यात्रा के अंतिम चरण में  नेहरू ने किस तरह पहाड़ों कि रूमानियत और खूबसूरती को महसूस किया। वह लिखते हैं-

खाली से चार मील पंद्रह सौ फुट ऊंचाई पर बिनसर है। हम वहां गए और एक चिर स्मरणीय दृश्य देखा। हमारे सामने तिब्बत के पहाड़ों तक फैला हुआ हिमालय, हिम - माला का एक सौ छह मील का विस्तार था और इसके केंद्र स्थान पर सिर ऊंचा किए नंदा देवी खड़ी थी। इसी के विशाल विस्तार में बद्रीनाथ, केदारनाथ और कई तीर्थ स्थान हैं और इसके पास ही है मानसरोवर और कैलाश। कितना महान दृश्य था वह ! मैं इसकी दिव्यता से मंत्रमुग्ध सा होकर, चकित सा इसे एकटक देख रहा था।
मुझे ये सोचकर थोड़ा सा गुस्सा भी आया कि मैं सारे हिन्दुस्तान का चक्कर लगा आया था और दूर के बहुत से देशों की यात्राएं भी कर चुका था, लेकिन अपने ही प्रांत के एक कोने में इक्कठे इस सौंदर्य को भूला रहा। हिन्दुस्तान के कितने लोगों ने इसे देखा या इसके बारे में सुना ही है ? न जाने ऐसे कितने  हजारों लोग हैं, जो दिखावटी सजे हुए पहाड़ी मुकामों पर हर साल नाच और जुए की तलाश में जाया करते हैं।"

लगातार बीतते समय के साथ ही नेहरू अब इस चिंता में परेशान होने लगे कि उनकी छुट्टियों  के समाप्त होने का समय नजदीक आ रहा था। उनके पास कभी-कभार समाचार पत्रों के जो बंडल व चिट्ठियां आया करती थीं,  उन्हें भी वह बेमन से खोलकर देखा करते थे, लेकिन किसी प्रिय की चिट्ठी  का लालच उन्हें अपना डाक से अलग नहीं कर पाता था। तभी उन्हें हिटलर के ऑस्ट्रिया तक पहुंचने की खबर मिली और वह बैचेन होने लगे। इसी बीच इलाहाबाद में संम्प्रदायिक दंगों की सूचना ने तो उन्हें अंदर तक विचलित कर दिया । वह अनायास ही पहाड़ों के मोहपाश से बाहर आ गए । इन घटनाओं पर उन्होंने लिखा, " मैं खाली को भूल गया और भूल गया पहाड़ों और बर्फ की शिलाओं को !  मेरा शरीर तन गया और मन चंचल हो उठा। जब संसार सर्वनाश के मुख में था, उस समय मैं यहां पर्वतों के दूर कोने में पड़ा क्या कर रहा था ? लेकिन मैं कर ही क्या सकता था ? लेकिन संम्प्रदायिक दंगा !  यह कैसा  खिजाने वाला पागलपन और नीचता है, जिसने हमारे देशवासियों को समय समय पर पतन के गड्ढे में ढकेला है ?
मैं थोड़े दिन खाली में और ठहरा किंतु एक अस्पष्ट अशांति ने मेरे  दिमाग को जकड़ रखा था। फिर भी आदमी की शठता से अछूते, सुनसान और अज्ञेय  उन सफेद पहाड़ों को देखने भर से ही मुझे फिर शांति महसूस हुई।"
विचारों में खोए नेहरू ने उत्तर की सफेद पर्वत चोटियों को निहारा और उनके पावन रेखाचित्रों को अपने दिल में अंकित करके वह इस यात्रा से वापस लौटे।
(नेहरू ने इस यात्रा का वर्णन 1938 में किया)                                     समाप्त .
 
         

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

पहाड़ों से आत्म साक्षात्कार

खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।
 
हाड़ों से अपने आत्म साक्षात्कार में नेहरू आगे लिखते हैं,
..पश्चिम और दक्षिण - पूर्व  की ओर हमारे बहुत नजदीक से दो - तीन हजार फुट  नीचे गहरी घाटियां दूर के प्रदेशों में जाकर मुड़ गई थीं।उत्तर की ओर नंदा देवी और सफेद पोशाक में उसकी सहेलियां सिर ऊंचा किए खड़ी थीं। पहाड़ों के करारे  बड़े डरावने थे और लगभग सीधे कटे हुए कहींं कहीं बहुत गहराई तक चले गए थे , परन्तु उपत्यकाओं के आकार तरूण पयोधरों की तरह बहुधा गोल और कोमल थे। कहीं-कहीं वह छोटे -छोटे  टुकड़ों में बंट गए थे, जिन पर हरे-हरे खेत इंसान की मेहनत को जाहिर कर रहे थे।
सबेरा होते ही मैं कपड़े उतार कर खुले में लेट जाता और पहाड़ों का सुकुमार सूर्य मुझे अपने हल्के आलिंगन में कस लेता। ठंडी हवा से कभी -कभी मैं तनिक  कांप उठता, परंतु फिर सूर्य की किरणें मेरी रक्षा के लिए आकर मुझे गर्म और स्वस्थ कर देतीं। कभी-कभी मैं चीड़ के पेड़ों  के नीचे लेट जाता।
यहां आकर नेहरू पहाड़ों के मोहक वातावरण की तुलना इस सुरम्य वातावरण से दूर मैदानी इलाकों में चल रहे सामाजिक बदलाव,पतन व राजनीति में बढ़ती कलह से करते हैं वह कहते हैं,
पर्वतों पर सन -सन करती हुई हवा मेरे कानों में उनेक विचित्र बातें मंद - मंद कह जाती। मेरी संज्ञा  उसकी थपकियों से सो सी जाती और मस्तिष्क शीतल हो जाता।  मुझे आरक्षित  देखकर वही हवा चतुराई से नीचे मैदान में संसार के मनुष्यों के शठता भरे ढंगों, सतत चलती कलहों, उन्मादों तथा घृणाओं, धर्म के नाम  पर हठधर्मी, राजनीति में व्याभिचार  और आदर्शों से पतन की ओर संकेत करती । नेहरू सोचते कि, क्या ऐसे वातावरण में लौट कर जाना उचित है ? क्या उस तरह की मनस्थिति से पुन सम्पर्क स्थापित करना  अपने जीवन के उद्योगों को व्यर्थ कर देना नहीं है ?
यहां शांति है, नीरवता है, स्वस्थ वातावरण है और संगी -साथियों  के रूप में बर्फ है पर्वत हैं, तरह - तरह  के फूल और घने पेड़ों से लदे हुए पर्वतों के बाजू है पक्षियों का कलरव गान !

जारी........

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सूरज डूब रहा है, चोटियां चमक रही हैं

खूबसूरत, गुमसुम और खामोश पहाड़ किसी नेता या राजनीतिक दल की प्राथमिकताओ में कभी शामिल नही रहे। पंडित नेहरू जरूर अपवाद स्वरूप उस कड़ी में शामिल हैं जिन्होंने न केवल पहाड़ों को जिया बल्कि उसकी खूबसूरती, ताजगी और बेचैनी को बकायदा लिखकर बयां किया।
मेरे सीनियर और मित्र विनोद भारद्वाज बता रहे हैं आखिर कैसे थे पहाड़ से जुड़े नेहरू के अनुभव।

अपना अधिकांश समय राजनीति में बिताने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू की रूचि बेहद व्यापक थी। यात्राओं के प्रति उनका लगाव उन्हें अक्सर पहाड़ों की ओर खींचकर ले जाता था। पहाड़ दरअसल पं. नेहरू के स्वाभाव का हिस्सा थे। सन 19३8 में जब हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन समाप्त हो चुका था और ताप्ती नदी के किनारे पर बांसों का बना अधिवेशन स्थल सूना - सूना सा लग रहा था तो फुरसत ने नेहरू को पहाड़ों पर जाने के लिए बाध्य कर दिया।
नेहरू ने अपनी मनोस्थिति इस तरह व्यक्त की "रात के बढ़ते अंधेरे में मैं ताप्ती के बहते हुए पानी की धारा तक चला गया। मुझे यह सोचकर अफसोस सा हुआ कि अधिवेशन के लिए बनाया गया यह नगर और डेरे, जो खेतों और ऊसर भूमि पर बनाए गए थे जल्द ही गायब हो जाएंगे, और फिर उनकी यादगार ही बाकी रह जाएगी"  इस विचार से नेहरू की कहीं दूर जाने की इच्छा बलवती हो गई । उन्हें शारीरिक थकान नहीं थी, दरअसल उन्हें तब्दीली और ताजगी की भूख थी । वह राजनीति के उबाने वाले माहौल से निकलने को छटपटा रहे थे। वह उन दिनो लोगों के सवालों के जवाब तो देते समय वह भरसक नम्रतापूर्वक व्यवहार करने की कोशिश करते थे, लेकिन उनका मन कहीं और ही रहता था। वह लिखते हैं " सुदूर उत्तर के पहाड़ो की गहरी घाटियों और बर्फ से ढकी चोटियों व चीड़ व देवदार के कगारों  व हल्के ढालों पर मेरा मन विचर रहा होता। अब मैं हर तरफ से घेरे रहने वाले सवालों और समस्याओं से निकलकर कोलाहल से दूर ,शांति तथा विश्राम की एक हल्की सी सांस के लिए बेचैन हो रहा था। मैंने जल्दी से इलाहाबाद से प्रस्थान किया, बाहर निकलते ही कई समस्यायें तो मेरे मन के किसी कोने में जाकर खो गईं।
कुमाऊं की पहाडिय़ों से होकर अल्मोड़े जाने वाली चक्करदार सड़क  पर जैसे  ही हम पहुंचे, मैं तो पहाड़ी हवा की मादकता में अपने को भूल सा गया।
अल्मोड़े से आगे हम खाली तक गए और अपनी इस यात्रा के आखिरी हिस्से को मजबूत पहाड़ी खच्चरों की पीठ पर तय किया। अब मैं खाली में था, जहां पहुंचने की पिछले दो वर्षों से बेचैनी हो रही थी।"
नेहरू यहां पहाड़ों के उस मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं जो वही व्यक्ति महसूस कर सकता है जिसका लम्बे समय तक पहाड़ों से रिश्ता रहा हो। वे आगे लिखते हैं,
"सूरज डूब रहा था, पहाड़ी की चोटियां उसकी रोशनी में चमक रहीं थी और घाटियों में खामोशी छाई थी। मेरी आंखे  नंदा देवी और उसकी पर्वत मालाओं की सहचरी बर्फ से ढकी चोटियों को खोज रही थीं।
हल्के बादलों ने उन्हें छुपा लिया था। एक दिन जाता और दूसरा आता।  मैंने  जी भर कर पहाड़ी हवा का आनंद लिया और बर्फ तथा घाटियों की रंग -बिरंगी छटा को जमकर निहारा।
कितनी सुंदर तथा शांत थे वे! संसार की बुराइयां इनसे कितनी दूर और कितनी निस्सार थीं"।


(जारी..........)
खाली* (वर्तमान में इसे खाली स्टेट के नाम से जाना जाता है. जो बिन्सर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अंदर  स्थित है।)

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कत्ल होते बेजुबान, तमाशबीन हम

ये सिर्फ तस्वीरें नही हैं बल्कि  हमारे समय का भयानक सच है। और कुछ सयाने लोग इन तस्वीरों को सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट का उदाहरण कहकर भी परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन हकीकत के एक चेहरे से कुछ यूं रूबरू होइए.......
ये वाक्या है एक हिरन की मौत का..जिसे पहले तो कुत्तों ने दौड़ा दौड़ा कर मौत के करीब पहुंचा दिया उसके बाद जब उसे बचाने के लिए जंगल और जानवरों के रहनुमाओं से कहा गया तो वो अपनी रेंज का रोना रहते रहे..ये सबकुछ हुआ विश्व प्रसिद्ध कॉर्बेट नेशनल पार्क के पास बसे गांव टेड़ा में।
मामले की जानकरी जब वन्यजीव प्रेमी और वाइल्ड रेंजर्स - कॉर्बेट के नीरज उपाध्याय को मिली तो वो फौरन मौके पर पहुंचे और घायल हिरन को देखा.उस वक्त तक हिरन जीवित था लेकिन हालत बेहद नाजुक .वाइल्ड रेंजर्स ने तुंरत ही वन विभाग के उच्च अधिकारियों को दी.लेकिन फौरी कार्यवाही के बदले अधिकारी दूसरे विभाग और दूसरे का क्षेत्र होने की बात कहकर टालते रहे.इस बीच अंधेरा गहराने लगा और डूबते सूरज के साथ ही हिरन की सांसे भी थम गई। (जैसा कि मौके पर मौजूद नीरज उपाध्याय ने बताया-देखा )

                                       



शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

देश के दुश्मनों के साथ हमें कैसा सलूक करना चाहिए?

राजधानी दिल्ली में आजादी- एक मात्र रास्ता, सेमिनार ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बडा प्रश्न तो यही है कि क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर पृथकतावादी ताकतों को देश की अखंडता को ललकारने की आजादी दे सकती है? 

यह सेमिनार कश्मीर की आजादी को लेकर था और यह पहली बार हुआ है कि जब सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में आकर सीधे तौर पर चुनौती दी है। बीजेपी से जरूर विरोध के स्वर आए हैं लेकिन राष्ट्रीयता से गहरे लगाव रखने का दावा करने वाली इस पार्टी ने दरअसल राष्ट्रीयता को बदनाम ही किया है। इस सेमिनार पर मनमोहन की चुप्पी असहज लगती है क्योंकि राजधानी में गिलानी भारत की संप्रभुता और प्रधानमंत्री की सत्ता को ही खारिज कर रहे थे। गृहमंत्री चिदंबरम यह कहकर बच रहे हैं कि हमने पूरे कार्यक्रम की वीडियोग्राफी की है लेकिन सवाल यही है इस सेमिनार की अनुमति ही क्यों दी गई?

याद कीजिए कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान न्यूजीलैंड के एक टीवी एंकर की उस नस्लीय टिप्पणी को जिससे मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सहित पूरा विदेश मंत्रालय बौखला गया था। भारतीय प्रतिरोध इतना मुखर था कि टीवी चैनल को मजबूरी में ही सही एंकर को बर्खास्त करना पड़ा। लेकिन यहां पाकिस्तान परस्त एक शख्स हमारी संप्रभुता और संविधान को ललकार रहा है और हम चिरखामोशी में हैं। इस मसले पर कश्मीरी पंडितों की संस्था पुन्नुन कश्मीर का आक्रामक विरोध काबिल-ए-गौर है लेकिन विरोध की इस तल्खी को भी किसी प्रिंट और न्यू मीडिया में ठीक से जगह नही मिल पाई।और अब बेचैनी इसलिए भी हैं कि क्योंकि अगर हम यूं ही चुप रहे और भारत भी रूस की तरह बिखर गया तो क्या होगा?

अपने संपादकीय मेंकुछ अखबारों ने जरूर इस सवाल को उठाया है। पेश-ए-नजर। 

राजद्रोह है इसलिए इजाजत नहीं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अलगाव का प्रचार



गुरुवार की दोपहर जब सुरक्षा बल श्रीनगर के नजदीक एक मकान में छिपे आतंकवादियों का मुकाबला कर रहे थे, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कश्मीर की आजादी की वकालत करने के लिए एक सेमिनार हो रहा था। ‘आजादी - एकमात्र रास्ता’ इस सेमिनार की थीम थी और हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी इसमें प्रमुख वक्ता थे।

कश्मीरी पंडितों की संस्था ‘पुनुन कश्मीर’ के कार्यकर्ताओं ने इस सेमिनार में अलगाववादियों की मौजूदगी का तीखा विरोध किया और हंगामे के दृश्य सारे देश ने टीवी न्यूज चैनलों पर देखे। इस पूरी घटना ने देशवासियों के मन में कुछ बेचैन सवालों को जन्म दिया है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार देता है। अनुच्छेद 19 में वर्णित यह अधिकार एक नागरिक के रूप में हमारी स्वतंत्रता की गारंटी है। लेकिन क्या देश की एकता व अखंडता के खिलाफ बोलना या अलगाववाद की वकालत करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है?

मुख्य विपक्षी दल भाजपा का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश के किसी भी हिस्से को अलग करने की वकालत नहीं की जा सकती। इसीलिए उसने केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे ‘अस्वीकार्य विचारों’ के प्रचार की इजाजत देने के लिए सरकार की तीखी आलोचना की है। जवाब में केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा है कि सरकार ने पूरे आयोजन की फिल्म बनाई है और अगर कुछ ऐसा हुआ है जो संविधान सम्मत नहीं था, तो कानून मंत्रालय की राय के बाद कार्रवाई की जाएगी।संवैधानिक और राजनीतिक बहस के अलावा देश के जनमानस में बेचैनी की वजह दूसरी भी है। भारतीय राष्ट्र-राज्य की स्थापना को अभी छह दशक से कुछ ही ज्यादा समय हुआ है और राष्ट्रों के निर्माण के लिहाज से यह बहुत ज्यादा समय नहीं होता।

हालांकि इन छह दशकों में भारतीय राष्ट्र-राज्य ने काफी मजबूती हासिल की है, लेकिन फिर भी ऐसी घटनाएं स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्षो और स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षो में देश के एकीकरण की स्मृतियों को ताजा कर देती हैं।
जरूरत इस बात की है कि अलगाव की वकालत करने वाले स्वरों को बढ़ने से रोका जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य अपने खिलाफ किसी भी तरह के हमले की इजाजत नहीं दे सकता, चाहे वह कश्मीर के अलगाववादी हों या लाल गलियारे में फैले माओवादी। जरूरत इस बात की भी है कि देश की अखंडता से जुड़े सवालों को राजनीतिक दलों के बीचमुकाबले का विषय न बनाया जाए।

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

प्रेम की उछाल ः आस्ट्रिया के नेशनल पार्क में हिरन और बारासिंगा आपस में जब मिले तो दोनों के बीच प्रेम का इजहार कुछ इस अंदाज में हुआ। एपी के फोटोग्राफर क्रिस्टीन जानसन ने प्रेम की इस उछाल को अपने कैमरे में उतारा है।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

हिमालय की ऊँचाइयों पर बाघ का वजूद

बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री टीम ने हिमालय की ऊँचाइयों में एक प्राकृतिक ख़ज़ाना ढूँढा है जोकि आमतौर पर जंगलों में ही पाया जाता है...

बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री यूनिट का दावा है कि उन्होंने अपने कैमरों में हिमालय की ऊंचाई में रहने वाले बाघ की तस्वीरें कैद की हैं। यह इस बात का पहला प्रमाण है कि बाघ 12000 फीट की ऊंचाई पर रह सकते हैं और अपना परिवार भी बढ़ा सकते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह बात इस खत्म हो रहे जीव को बचाने में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है और यह इलाका वाइल्ड कॉरिडोर के तौर पर विकसित किया जा सकता है।
दरअसल बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री यूनिट ने भूटान के पहाड़ों में दर्जनों कैमरा ट्रैप लगाकर महीनों इंतजार किया। उन्होंने 4000 मीटर (तकरीबन 12000 फीट) ऊंचाई पर रहने वाले नर और मादा बाघ की विडियो रिकॉर्डिंग की है। पहले यह माना जाता था कि जंगल में रहने वाले किसी जीव के लिए इतनी ऊंचाई पर रहना नामुमकिन है। हालांकि इससे पहले भी बंगाल टाइगर को इतनी ऊंचाई पर कैमरों में कैद किया गया है लेकिन बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री यूनिट का दावा है कि यह वो पहला सबूत है जिससे पता चलता है कि इतनी ऊंचाई पर भी बाघ न केवल रह सकते हैं बल्कि प्रजनन भी कर सकते हैं।

दूध पिलाती दिखी बाघिन
वीडियो में एक बाघिन अपने शावक को दूध पिलाती हुई दिखाई दे रही है। वहीं अन्य क्लिप में बाघ अपने इलाके का निर्धारण करता हुआ दिखाई दे रहा है जो दर्शाता है कि बाघ केवल उस इलाके से गुजर ही नहीं रहा है बल्कि वहीं रहता भी है। बकौल वाइल्डलाइफ कैमरामैन गॉर्डन बुकानन, यह बाघ के संरक्षण की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण खोज है।

इस खोजी टीम में पर्वतारोही स्टीव बैकशेल के अलावा टाइगर कंजर्वेशनिस्ट एलन रबिनोविट्ज ने स्थानीय ग्रामीणों की उस सूचना पर गौर कर काम शुरू किया जिसमें कहा गया था कि इस इलाके में बाघ देखे गए हैं।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

बोल रे मौसम कितना पानी !

 बारिश तो हर मानसून में पहाड़ों पर कहर बरपाती है लेकिन इस बार तो बरसात गजब ढा रही है। हम पहाड़ियों ने कभी नहीं देखी एेसी बारिश। बारिश से पहाड़ आफत में हैं और सैलाब से सबकुछ बह रहा है। जनकवि अतुल शर्मा देहरादून में रहते हैं और बारिश से बदहाल पहाड़ी पीड़ा कोअपनी कविता से कुछ इस तरह बयां कर रहे हैं।
 
बोल रे मौसम कितना पानी !
सिर से पानी गुजर गया
हो गई खतम कहानी
बोल रे मौसम कितना पानी !

झुलसी हुई कहानी है,
आग बरसता पानी है
दबी हुई सांसे जिनकी,
सूनी लाश उठानी है
चीखा जंगल रोया पर्वत
मौसम की मनमानी
बोल रे मौसम कितना पानी

आंसू डूबी झींलें हैं
गाल नदी के गीले हैं,
सूनी लाशें ढूंढ रहीं
आश्वासन की चींलें हैं
देखे कोई समझ न पाये
किसको राहत खानी
बोल रे मौसम कितना पानी

बहाव नदी का दूना है
घर आंगन भी सूना है
सीढ़ीदार खेत बोले
गुम हो गया बिछौना है
नींद आंख से रूठ गई
खून सना है पानी
बोल रे मौसम कितना पानी

-अतुल शर्मा

 

सोमवार, 6 सितंबर 2010

सुनहरे रेत से मनोरम हरियाली

राजस्थान का दूसरा नाम मरूप्रदेश है। सुनते ही जेहन में तस्वीर उभरती है सुनहरी रेत, टीबे, बावडिय़ां और शुष्क मरूधरा। लेकिन अब यह सोच बदलने का वक्तहै। राजस्थान में इस बार मानसून खूब मेहरबान रहा और सावन का औसत कोई दिन ऐसा नहीं रहा जब थोड़ी या ज्यादा बारिश न हुई हो। इन बौछारों से जयगढ़, आमेर, नाहरगढ़ आदि क्षेत्रों की पहाड़ी पर हरियाली की जो छटा बिखरी, उसने प्रदेश की पहचान ही बदल दी। प्रकृति ने झूम के अंगड़ाई ली और पूरे पहाड़ हरे-भरे, शीतल और दिल को छू लेने वाली रूमानियत से भर गए। आलम यह है कि किसी को बिना बताए, आंख पर पट्टी बांधकर यहां लाया जाए तो वह बता नहीं पाएगा कि यह राजस्थान है या ऊटी, मंसूरी या कोई दूसरा हिल स्टेशन। झीलों की नगरी उदयपुर में भी इस बार प्रकृति के रंग देखने लायक हैं। लबालब भरे ताल, झलकने को बेताब हैं और हरियाली की चादर जो दिलकश सीनरी बनती है, उसका क्या कहना।
सचमुच ये वो दृश्य हैं जिन्हें देखने, महसूस करने के लिए मुझ पहाड़ी को लंबी यात्रा कर अपने गृहनगर या दूसरे हिल स्टेशन जाना पड़ता। मेरे लिए रेतीले धोरों में हरियाली से लदी  अरावली पहाड़ी श्रृंखला को देखना किसी चमत्कार से कम नहीं है। पता नहीं इस रेगिस्तान में यह नैसर्गिक सुंदरता
कितने समय तक रहेगी लेकिन अगर इतना खुशगवार मौका मिला है तो क्यों न इसे जीकर थोड़ा रूमानी हो लिया जाए। फिलहाल मजा लीजिए रेगिस्तान के मायने बदलने वाली इन तस्वीरों का।
Bird View of Sagar from Burj of Jaigarh fort, Jaipur.


Another Breath stopping view of Pinkcity from peak of Jaigarh fort.

The palace of Aamer on green carpet, Jaipur.

Jaigarh fort's Boundery wall on valley of greens.

Fatehsagar Lake of Udaipur. Eager to come out with joy...

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

शिमला के वे दिन

खुशवंत सिंह
चार बरस की उम्र से लेकर देश को आजादी मिलने के कुछ साल बाद तक शिमला छुट्टियां बिताने के लिए मेरी सबसे पसंदीदा जगह थी। मेरे पिता और मेरे चाचा उज्जल सिंह ने दो परिवारों के रहने के लिए शिमला में एक घर किराए पर ले रखा था, लेकिन मैं इस शहर के कई अलग-अलग हिस्सों में रह चुका हूं।

वहां मेरा सबसे पहला बसेरा छोटा शिमला में था। उसके बाद जब मेरे चाचा पंजाब के विधायक बन गए तो मैंने दो गर्मियां एमएलए क्वार्टर में बिताईं। फिर हम पहाड़ियों के ऊपर सैरगाह की तरफ रहने चले गए। वहां रहने वाले कांग्रेस पार्टी के विधायक के दो पोते (एक चार साल का और दूसरा पांच साल का) हमें देखकर फिकरे कसने लगते थे। इसके बाद मेरे पिता ने मशोबरा के समीप एक शानदार हवेली खरीद ली, जिसका नाम था एप्पल ट्री हाउस।

उन्होंने यह हवेली एक अंग्रेज से ली थी, जो 1947 के बाद अपने देश लौट गया था। हमने इसका नाम बदलकर सुंदरबन कर दिया। हवेली के बगीचे में सेब और चेरी के ढेरों दरख्त थे। इसके अलावा वहां सेब से शराब बनाने का एक छोटा सा कारखाना, बियर ठंडी करने के लिए बर्फ का एक खंदक, एक बिलियर्ड रूम, बड़े से पियानो वाला एक डांस हॉल और एक टेनिस कोर्ट भी था। मेरे लिए शिमला की सबसे खुशगवार यादें सुंदरबन में बिताए दिनों की ही हैं।

जब वादियां धूप से धुली होतीं तो सुंदरबन के झरोखे से बर्फ से लदे पहाड़ों का खूबसूरत नजारा दिखाई देता था। नीचे छोटी-छोटी नदियों की धाराएं बहा करती थीं। गांवों की किशोरियां घास काटते समय कोई गीत गुनगुनाया करतीं। मैं अपनी शामें सैरगाह में बिताया करता था। मेरी सैरगाह की सरहद वेंगर्स रेस्टॉरेंट से शुरू होती। इसके बाद डेविकोज होता हुआ मैं स्कैंडल पॉइंट चला जाता और वहां खूब वक्त बिताता। मैं सुंदर-सलोनी महिलाओं और शहर के नामी-गिरामी लोगों को रिक्शे में बैठकर यहां से गुजरते देखता।

रिक्शा खींचने वाले लोग वर्दी में होते थे। मेरी पत्नी का भी कसौली में एक पुश्तैनी बंगला था। लेकिन एक बार मशोबरा से जाने के बाद मैं फिर कभी वहां लौटकर नहीं जा सका। ये तमाम खुशगवार यादें मेरे जेहन में तब ताजा हो गईं, जब मैंने मीनाक्षी चौधरी की किताब लव स्टोरीज ऑफ शिमला हिल्स (रूपा से प्रकाशित) पढ़ी। इससे पहले मीनाक्षी ने शिमला के भूतों और वहां के पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के बारे में लिखा था। उनकी ताजा किताब अव्यक्त प्रेम संबंधों के बारे में है। शिमला की प्रेम कहानियों पर मीनाक्षी की यह किताब इतनी सुंदर है कि उसे पढ़ते हुए हमें उनसे प्यार हो जाता है।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

उत्तराखंड के जनकवि 'गिरदा' का निधन


शालिनी जोशी
पहाड़ के जल, जंगल और जमीन के सरोकारों को लेकर अपनी कविताओं के जरिए जन-जन से संवाद करने की ताकत रखने वाले मशहूर जनकवि गिरीश तिवारी 'गिरदा' का निधन हो गया.

हल्द्वानी के सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज में एक ऑपरेशन के बाद रविवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली. गिरीश तिवारी 'गिरदा' का जन्म 10 सितंबर, 1942 को अल्मोड़ा के एक गांव में हुआ था. अपने ओज और अक्खड़पन के कारण वो 'गिरदा' नाम से लोकप्रिय हुए.

बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'गिरदा' लोकधुनों और लोकमंच के तो जानकार थे ही, उनके गीत चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, अलग राज्य के उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन की पहचान थे.

गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती.
मंगलेश डबराल, हिंदी कवि
उन्होंने खुद भी कई आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई.

उन्हें सुनने और देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते. लोगों को एकजुट करने की उनमें गजब की शक्ति थी.

हिंदी में उनकी एक लोकप्रिय रचना है-

अजी वाह क्या बात तुम्हारी

तुम तो पानी के व्यापारी

सारा पानी चूस रहे हो

नदी समंदर लूट रहे हो

गंगा यमुना की छाती पर कंकड़ पत्थर कूट रहे हो

उफ़ तुम्हारी ए ख़ुदग़र्ज़ी चलेगी कब तक ए मनमर्ज़ी

जिस दिन डोलेगी ए धरती

सर से निकलेगी सब मस्ती

दिल्ली देहरादून में बैठे योजनकारी तब क्या होगा

वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा.
कुमांऊनी में उनका लिखा आज हिमालै तुमुकैं धत्यूंछौ... जागो जागो हो मेरा लाल...’ एक नारे की तरह जाना जाता है.

उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे.
ज़हूर आलम, नैनीताल के रंगकर्मी
देशभर के संस्कृतिकर्मियों और लोकचेतना से जुड़े साहित्यकारों और पत्रकारों में उनके जाने से शोक की लहर है.

वरिष्ठ हिंदी कवि मंगलेश डबराल ने कहा, " गिरदा की बहुत बड़ी उपस्थिति थी न सिर्फ़ उत्तराखंड में बल्कि पूरे देश की लोक-सांस्कृतिक चेतना में. उनके गीतों में क्रांतिकारिता थी. उनके बिना पहाड़ की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती. उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मियों के लिए उनकी मृत्यु बड़ा आघात है."

नैनीताल के रंगकर्मी ज़हूर आलम का कहना है, " उत्तराखंड की संस्कृति के बारे में जितनी जानकारी गिरदा को थी और जितना काम उन्होंने उसे बचाने के लिए किया, वैसा और नहीं हो सकता. आंदोलन जब भी होंगे, जनसरोकारों की बात जब भी होगी गिरदा हमेशा वहां मौजूद होंगे."

गिरदा नैनीताल में रहे लेकिन उनके विचार और काम का फलक पूरे पहाड़ में फैला था.

आखिरी दिनों में भी वो सक्रिय रहे थे. उनकी सादगी, प्रखरता, जीवंत और जुझारू व्यक्तित्व को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

कश्मीर को क्या चाहिए

कुमार प्रशांत
एक तरफ कश्मीर उबल रहा है, लोग मर और मार रहे हैं, शेष भारत से उनका जुड़ाव कम से कम होता जा रहा है, पाकिस्तान इसका फायदा उठाने में लगा है, तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला बैठकें बुलाने और दिल्ली भागने से अधिक कुछ कर नहीं पा रहे। प्रधानमंत्री कश्मीर को लेकर बैठकें ही बुला रहे हैं और फारूक अब्दुल्ला बेटे की गद्दी बचाने की कोशिश से ज्यादा कोई पहल नहीं कर पा रहे। यह हमारा वह कश्मीर है, जिसे भारत का अभिन्न अंग बताने के लिए हम फेफड़े का पूरा जोर लगाते हैं, लेकिन गोली और गाली से अधिक कुछ भी खर्चने को तैयार नहीं होते। उमर अब्दुल्ला कश्मीर की किस्मत पलटने की संभावना बनकर वर्ष २००८ में आए थे। उम्र से भी, राजनीति की दकियानूसी चालों के प्रति हिकारत का भाव रखने के कारण भी और तथाकथित आधुनिक पीढ़ी के प्रतिनिधि होने के नाते भी देश ने सोचा था कि अब कश्मीर में नई पहल होगी। चुनाव में उमर को कश्मीरियों का अच्छा समर्थन मिला था। लेकिन आज वह कश्मीरी राजनीति के सबसे बदरंग पत्ते बनकर रह गए हैं। ऐसा ही उनके पिता के साथ हुआ था। ऐसा ही मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद के साथ हुआ। महबूबा मुफ्ती का तो आज हाल यह है कि वह किसी समस्या का हल नहीं, अपने आप में एक समस्या बन गई हैं।

वैसे भी, कश्मीर के बारे में हमारी राजनीतिक सोच शुरू से दिल्ली केंद्रित रही है। आज भी हम कश्मीर को राष्ट्रीय संकट के रूप में नहीं देखते। आखिर कितना नुकसान करने के बाद हमारी समझ में आएगा कि कश्मीर एक राज्य का नाम नहीं है, वह भारत जैसे बहुधर्मी-बहुभाषी देश के लिए राजनीतिक परंपरा व ढांचा बनाने की सबसे तीखी चुनौती का नाम है। बहुत संभव था कि हम कश्मीर के संदर्भ में ऐसा कुछ विकसित कर पाते! कश्मीर को यह भरोसा दिलाने की जरूरत है कि अपने राजनीतिक हित के लिए दिल्ली उसमें फेरबदल नहीं करेगी। अब भी उमर पर महबूबा की अवसरवादी राजनीतिक चालों का ज्यादा दबाव है। उमर जिस तरह से घिरते जा रहे हैं, दिल्ली उतनी ही उनके अधिकार अपने हाथ में समेटती जा रही है। रबर की मुहर जैसा मुख्यमंत्री कश्मीर को नहीं चाहिए।

कश्मीर को आज क्या चाहिए? भारत में बने रहने का राजनीतिक आधार! यह राजनीतिक भरोसा कि उसकी चुनी सरकार को दिल्ली उलटेगी नहीं; दिल्ली किसी भी राजनीतिक स्थिति की आड़ में उसे अपने कठपुतली नहीं बनाएगी; कश्मीर की स्थिति जितनी नाजुक है, उसमें यह खतरा तो केंद्र सरकार नहीं ही उठाएगी कि फौज को वापस बुला ले, लेकिन राजनीतिक दूरदर्शिता का तकाजा है कि फौज को तुरंत बैरकों में भेज दिया जाए और स्पेशल आर्मी पावर ऐक्ट को सारे देश में अप्रभावी घोषित किया जाए। आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई को ढीला करने की जरूरत नहीं है, न सीमा पर ढील देने की जरूरत है और न पाकिस्तान की अनदेखी करने की जरूरत है। यह सब आसान नहीं है, लेकिन कश्मीर समस्या ही आसान नहीं है। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि राजनीतिक ईमानदारी और प्रशासनिक पारदर्शिता का माहौल बनाए बगैर आप कश्मीर में कुछ नहीं कर सकेंगे। कोई उमर अबदुल्ला इसीलिए लोगों में आशा जगाता है कि राष्ट्रीय राजनीति को निकट से जानने के कारण कश्मीर को वह राजनीतिक न्याय दिला सकता है। लेकिन वही उमर जब पुरानी राजनीतिक शैली की लकीर पीटते नजर आते हैं, तब निराशा गहरी होती है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

Kind Attn : Dear Satya Kumar

(Originally published in Hindi in the July 2010 issue of the  Regional Reporter (Srinagar, Garhwal)  this open letter is addressed to Dr. S.  Satya Kumar, of the Wild Life
Institute of India, Dehra Dun, who had led a group of experts, on whose  study
and recommendation the Nanda Devi  region was closed to the community of
villages that lived around it who had looked after and preserved its bio
diversity for centuries. Hindi editorial inputs by Dr. Sunil Kainthola and English translation by Harish Chandola)



Kind Attn: 
Dr. S. Satya Kumar,
The Wildlife Institute of India,
Chandrabani, Dehradun
 
Respected Sir, 
I hope this letter finds you happy and in good health. And also that your research work is going on well. We here in this village of Lata are also all right, though for how long we do not know, it depends on the will of the almighty. 
Our survival is no less than a miracle. Our village, the part above the road, is still in the clutches of an environment regime, and the part below it is suffering from the blows of a dam being built. 
For years we have been awaiting your arrival with great eagerness. We felt that as a great protector of the environment, whose research had established that the hoofs of our goats and sheep had damaged the environment, and who had brought to an end our centuries’ old system of worshipping Dubdi Devi in the Nanda Devi National Park, and whose words denied us our basic right of freedom to worship, such a great scientist must be seriously worried over the damage being done to the environment by the dam being built at the bottom of our village, below the road.

He would be able to put a stop to that destructive dam work below the village in no time with a scientific report. But now we suspect that that task may not be easy for the great scientist to accomplish. It is on this subject that I am writing this letter, with the consent of the elders of my village. 
Honorable Sir, 
You have traveled extensively in the Himalayas. Like the Third Eye of the God Shiva, your pen has destroyed the livelihood and culture of thousands of families living in this part of the Himalaya. Intellectuals everywhere bow before your prowess. In such a situation, I, Dhan Singh Rana and his community, destroyed by the power of your pen, wish to remind you of the moments when you
have hurt us.
 
O Protector of Bio-Diversity! 
I want you to recall our 2003 journey to Nanda Devi Base Camp. On the way back, we had with us an army wireless operator who was very ill. A helicopter could not be called because of bad weather. The porters had already left the valley for Lata Kharak with your equipment and baggage and some of
our villagers had come to the Dubbal valley to help because his life was in danger. We traveled in pouring rain and our food rations were low. I spent two nights with you to save the sick operator. You may recall that we survived those two days and two nights living on herbs, boiling them over a wood fire.
 
On our return to our village when I mentioned this experience to the porters, they accused you of being a person with double standards. They said, while climbing if a porter held on to a handful of grass for support you would shout at him for damaging it. You spent nights in a tent. But the porters had to sleep in the open, huddled around rocks and stones. If they lit a wood fire to keep themselves warm you reprimanded them for burning wood.  
But when it came to your own self-preservation while accompanying the sick wireless operator, you conveniently forgot those rules of preserving grass and wood. I had to silence the porters by telling them that you were an enlightened person, sent to the region for the protection of wild life and that human sympathy may have escaped your attention temporarily.
 
O Hard to Please God!

Crawling and flying insects, grasses and weeds have their place in our universe. They all are related to one another. Like the honeybees in our homes which not only give honey but also pollinate the flowers. They are the guarantors of the flowers, like the flowers are the guarantee of the bees. Bees receive shelter in our homes because we get honey from them. But now we have neither bees nor honey. Your attention may not have been drawn to this aspect, but O Holiest of the Learned! did you ever wonder how bio-diversity would suffer with the banishing of the bees from our community? Did you ever think about how our community would suffer with the going away of the honeybees? Is it normal that your eye should ignore this aspect?

Oh Great Sachin Tendulkar of Bio-Diversity,
 
What a contradiction it is, that you, living in a cement-concrete structure worship nature, while we, who live in it are called its enemies! There may be differences in the amount of carbon you and we produce, but why is it that the protection of nature always remains your responsibility?  
Our forests have been exploited from the time of the British. Where are the forests now? Those that are there belong to you, where you plant trees according to your need. Our needs and those of the wild life here are different from yours. Respected Sir! There is no food left now in your forests for the wild life. Hungry, it now comes to the cultivated fields of farmers and enters settlement. In this process people, as well as the voiceless wild life are getting killed. If anyone is responsible for this, it is you and your research and the consequent birth of ‘forest management.’
 
Oh Toothless Paper Tiger of National and International Workshops!

We have a saying that it is possible to wake up a person who is sleeping but not one who is pretending to sleep. Since you are the one laying down laws for us, we think we have the right to know if you are sleeping or pretending to sleep? Efforts of imperialist forces wanting to control our forests have not come to an end. It makes little difference if one’s finger is on the trigger of a gun or pointing at someone. Both convey a hunter’s attempt to take aim! Isn’t that so, Professor Satya Kumar? 
My village cannot survive anymore without the presence of the Joshimath market, nearby. Farmers who have toiled for centuries in their fields now visit the market more often than they do their fields. Destroying our self-sufficient way of life has been considered your constitutional right. But if we point fingers at your life-style, that is considered a violation of your personal freedom and basic rights. I am not very educated, but the question of why people in power can’t use hands to clean themselves like us village folk has always worried me? I wonder when the day will come when your research brotherhood will find that the growth of natural resources and decrease in carbon production is also linked with the use of toilet paper? Respected Professor, if your pampered brethren do not understand this relationship, then even a child from Lata village can teach them this basic self-help skill. Without charging any consultancy fee! 
Respected Sir! We believe in democracy as well as in the power of the Divine, which without a plan and the aid of the World Bank, gave us our forests. When in trouble, we knock at the door of both. I consider you unfortunate for taking into account only the bio-diversity of Nanda Devi’s area while failing to notice the cultural heritage of our region.  Because of your preconceptions you closed the doors to the very knowledge that would have imparted to you the understanding of a self reliant social and cultural system existing for centuries in a natural environment of togetherness and cooperation. 
Your half-baked research has closed the ears and poisoned the mind of democracy. In doing that, your own corrupt intentions have become known to all. You are absent from the struggle against dams.
 
O Supreme Guru of Protected Regions, 
Do you find a human being living an animal life undeserving of your sympathy? In our scriptures there is the story of the ten-headed demon king Ravana. In my lack of wisdom I presume that the ten heads of the demon talked differently. This may have been the case during your Nanda Devi visit. Did you ever realize that you may represent one of the ten heads of the demon king Ravana (the mythical ruler of Lanka), because what you see and say with one head is not felt and seen by your other heads? As the Wild Life Institute of India, you are the government for us, as are the Tehri Hydel Development Corporation (T.H.D.C.) and the National Thermal Power Corporation (N.T.P.C.), the hydro-power companies that are building the dam below our village. 
What a strange contrast it is that while you saw the wealth of bio-diversity  and its knowledge getting destroyed with the excretion and urination of us villagers, it is not being seen by dam experts, whose heads are joined with yours in what we call the government. This is an odd game: the Forest Department imposes sanctions, from the villages of Mana to Milam, in the name of the preservation of the biosphere, while the dam experts declare the Niti valley (which is within it) as outside the Nanda Devi National Park! We can draw only one conclusion from this: those who escaped being victimized by the power of your pen, will now be crushed under the bulldozers of the dam.
 
Our system of life retains a centuries old tradition of natural and social management, including that of our forests, which we would have continued without your interference. In your system where do you place the poor woman who comes to clean your floors and pots? From Kashmir to Kanya Kumari hundreds of thousands of tribal people are being dispossessed of their lands in the name of conservation as well as development. These dispossessed are providing you with cheap labour for domestic work in cities. With your rich earnings from environment studies you may have the legal sanctity to buy shares of companies like NTPC and Vedanta but if there is a carrying capacity for misdeed in this world, then your quota is over.

Our folk songs sing of the creation of the universe. These contain stories of pride and selflessness. Your pride in your knowledge is nothing compared with the wisdom of nature. Nature conveys the sound of our misery to the supreme authority, whose comprehensive laws you fail to understand. In this human world one can hear the cries of the suffering of the oppressed. And there is retribution that comes to teach a lesson to the oppressors and the evil-doers. This retribution is beyond our control, though it may come about as a result of our cries of pain. We do not call for retribution but it comes naturally as a result of the cosmic laws of universe.  
If you think peacefully and without bias you will realize that the system of protection of nature you impose does not take humanity to its betterment. If you reflect on it honestly you will realize that all your efforts in that direction have been wasted. This then is your retribution. There is no time-limit or age for repenting. 

More later. 
From Lata village, Dhan Singh Rana and his villagers.

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

100 फीट ऊंचाई से रोमांच भरी छलांग

लंदन.यह है रोमांच भरे हुए क्षण। इस कठोर हृदय वाले हिम्मती युवक ने 100 फीट की ऊंचाई से छलांग लगाई। इस मौत को यादगार बनाने वाले करतब की तस्वीरें एक फोटोग्राफर ने खींची।
कूदने से पहले यह अजनबी युवक कार्नवेल के पेनजांस की चोटी पर कुछ ही देर खड़ा रहा। पानी में गिरने से पहले इसने हवा मे मात्र 2.5 सेकंड रहा। इस स्थान पर समुद्र की गहराइ 20 फीट मानी जाती है। 11 तस्वीरों को क्रमबद्ध ढंग से एलास्टेयर सूप ने खींचा। इस अजनबी के कूदने से पहले फोटोग्राफर ने इससे बात की। उसने फोटोग्राफर को बताया कि यहां से डाइव लगाने के पहले मौसम और अन्य चीजों का अध्ययन किया।