रविवार, 27 दिसंबर 2009

आंखों का वह नीला रंग


रस्किन बॉन्ड
इतने समय से मेरा लिखा पढ़ते-पढ़ते पाठकों को अब तक ये तो समझ में आ ही गया होगा कि बंदर हमेशा मेरे पीछे पड़े रहे हैं और मुझे तंग करते रहे हैं। और मेरे प्यारे पाठको! ऐसा सोचकर आप कुछ गलत भी नहीं कर रहे हैं। और इस समय, जब मैं ये लिख रहा हूं, अभी भी एक बंदर मेरी खिड़की पर बैठा हुआ अपनी खीसें निपोर रहा है। किस्मत से खिड़की बंद है और वह भीतर नहीं आ सकता। मैं उसकी ओर नजरें करके उसे जीभ दिखाता हूं और वो डरकर पीछे हट जाता है। ऐसा लगता है जैसे मैं उसे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से कहीं ज्यादा भयानक नजर आता हूं।

लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता था। कुछ साल पहले की बात है। उस समय मैं जंगल के आखिरी सिरे पर रहता था। उस समय एक छोटी सी बंदरिया चुपचाप शरमाती हुई सी मेरी खिड़की के चौखट पर बैठी रहती थी और बड़ी दोस्ताना जिज्ञासा और उत्सुकता से मेरी ओर देखती रहती थी। उसकी बिरादरी के किसी और सदस्य ने एक इंसान के रूप में मुझमें कोई रुचि नहीं दिखाई, सिर्फ उस छोटी सी बंदरिया को छोड़कर। मैं भी उसे एक बंदर से ज्यादा एक इंसान के रूप में देखता था।

हर सुबह जब मैं बैठा अपने टाइपराइटर पर काम कर रहा होता था तो वह आ जाती थी और वहां चुपचाप बैठी रहती थी। जब मैं कोई कहानी या लेख टाइप कर रहा होता तो उसकी निगाहें मुझ पर ही टिकी रहती थीं। शायद यह मेरा टाइपराइटर था, जो उसे आकर्षित करता था। लेकिन मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि वह मेरी नीली आंखों के आकर्षण में बंधी हुई थी। उसकी आंखें भी नीली थीं। अकसर ऐसा नहीं होता है कि लड़कियां मुझे लेकर रूमानी कल्पनाएं करती हों, लेकिन मुझे यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है कि वह छोटी सी बंदरिया मेरे प्रति आकर्षित थी।

उसकी आंखों में एक शांत, सौम्य और अपनी ओर खींचने वाला भाव था। वह बहुत धीरे-धीरे मुस्कराती और किटकिट की आवाज करती थी। इस आवाज को मैं यूं समझता था कि मानो यह कोई अंतरंग बातचीत हो। अगर मैं उसकी ओर देखता तो वह अखरोट के पेड़ की डाली से कूदकर मेरी खिड़की पर आकर बैठ जाती थी और मेरी ओर ऐसी नजरों से देखती मानो कह रही हो कि मैं भी वहां उसके पास जाऊं। लेकिन मेरे पेड़ पर चढ़ने के दिन बीत चुके थे। साथ ही मैं उसके माता-पिता और जान-पहचान वालों से बहुत खौफ भी खाता था।

एक दिन मैं कमरे में आया और देखा कि वह टाइपराइटर पर बैठी हुई उसके बटनों से खेल रही थी। जब उसने मुझे देखा तो भागकर वापस खिड़की पर चली गई और मेरी तरफ अपराध-बोध भरी नजरों से देखने लगी। मैंने टाइपराइटर पर लगे हुए कागज की ओर निगाह घुमाई। क्या वह मेरे लिए कोई संदेश टाइप कर रही थी? कागज पर कुछ इस तरह लिखा हुआ था- *!,.-रु;:0 - और इसके बाद पंक्ति टूट गई थी। मुझे पूरा विश्वास है कि वह ‘लव’ लिखने की कोशिश कर रही थी।

लेकिन मुझे कभी भी पक्के तौर पर इस बात का पता नहीं चल पाया कि वह क्या लिखना चाह रही थी। जाड़ा आया, तेज बर्फ पड़नी शुरू हो गई और उन बंदरों की पूरी बिरादरी ही वहां से चली गई। मेरी छोटी बंदरिया को भी वे अपने साथ लेते गए। उसके बाद मैंने उसे दोबारा कभी नहीं देखा। शायद उसकी बिरादरी के लोगों ने उसकी कहीं शादी कर दी होगी।

जब भी शादी के बारे में बात चलती है तो अकसर ही मेरे साथ सहानुभूति रखने वाले पाठकों द्वारा मुझसे यह सवाल पूछा जाता है कि आखिर मैंने कभी शादी क्यों नहीं की? यह एक बहुत लंबी और दुखद कहानी है। यहां इन बातों के बीच उस दुखभरी कहानी का जिक्र कतई वाजिब नहीं होगा। लेकिन उसकी जगह मैं अपने एक अंकल बर्थी की कहानी सुना सकता हूं कि क्यों उन्होंने कभी शादी नहीं की। अंकल बर्थी जब जवान थे तो वे इशापोर राइफल फैक्ट्री में काम करते थे। यह फैक्ट्री कलकत्ता के बाहर थी।

आजादी के पहले हिंदुस्तान में बहुत सारे एंग्लो इंडियन और यूरोपीय समुदाय के लोग रहते थे। उनमें से बहुत सारे लोग उस फैक्ट्री में नौकरी करते थे। अंकल बर्थी थोड़ा अधीर और जल्दबाज किस्म के व्यक्ति थे। वे एक लड़की से प्रेम करते थे, जो वहीं सड़क की दूसरी ओर रहा करती थी। एक दिन की बात है। बहुत भीड़-भड़क्के और शोरगुल के नजदीक ही आम का एक बगीचा था। उस बगीचे में उन्होंने बड़ी अधीरता और बेताबी से उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। वह लड़की बहुत उत्साह और खुशी से विवाह के लिए राजी हो गई।

लड़की उनसे उम्र में बड़ी थी और काफी लंबी भी। उस लड़की का फिगर 46-46-46 था। उस लड़की को मैरेलिन दिएत्रिच या मर्लिन मुनरो से जरूर रश्क रहा होगा। लड़की के माता-पिता शादी के लिए राजी हो गए थे। विवाह की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, जब अंकल बर्थी ने अपने इस निर्णय के बारे में एक बार फिर से विचार करना शुरू किया। वह हमेशा हर चीज के बारे में दोबारा सोचते थे। जब उनका वह थोड़े समय का आकर्षण खत्म हो गया तो उन्हें इस बात पर आश्चर्य होने लगा कि सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने उस लड़की में आखिर ऐसा क्या देख लिया। उस लड़की को नाचना पसंद था और बर्थी नाच नहीं पाते थे।

उसका पढ़ना सिर्फ कुछ फिल्मी पत्रिकाओं जैसे हॉलीवुड या रोमांस तक ही सीमित था, जबकि अंकल बर्थी मक्सिम गोर्की और एमिल जोला को भी पढ़ा करते थे। वह खाना नहीं बना सकती थी और न ही अंकल को खाना बनाना आता था। खानसामा रखना बहुत खर्चीला था। उसे बाहर खरीदारी के लिए जाना बहुत पसंद था और बर्थी अंकल की तनख्वाह थी तीन सौ रुपया महीना। शादी की तारीख पक्की हो गई। वह महान दिन आ पहुंचा और चर्च ढेर सारे मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों से भर उठा। पादरी ने अपना गाउन पहना और विवाह की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार हो गया। दुल्हन अपने सफेद शादी के जोड़े में सजी हुई थी। इसी जोड़े में उसकी मां की भी शादी हुई थी। लेकिन अंकल बर्थी का वहां कोई अता-पता नहीं था। आधा घंटा गुजर गया। फिर एक घंटा, दो घंटा बीत गया, लेकिन दूल्हे का कहीं पता नहीं चला।

दरअसल अंकल बर्थी कलकत्ता से भाग गए थे और कहीं जाकर भूमिगत हो गए थे। उसके बाद कुछ समय तक वे भूमिगत ही रहे। इशापोर में हर कोई उनके लौटने का इंतजार कर रहा था। उन सभी ने बहुत अलग-अलग और मजेदार तरीके से सोच रखा था कि वे अंकल बर्थी के साथ क्या करेंगे। उनमें से कुछ लोग तो आज भी उनका इंतजार कर रहे हैं।

ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था, ‘शादी एक ऐसा रोमांस है, जिसमें पहले ही अध्याय में नायक की मृत्यु हो जाती है।’ अंकल बर्थी तो प्राक्कथन में ही गायब हो गए थे।

लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

तुंगनाथ धाम: जहां हैं शिव की बांहें


समुद्रतल से १३,०७२ फीट की ऊंचाई पर बसा तुंगनाथ धाम पर्वतीय क्षेत्र का सबसे ऊंचा शिव मंदिर है। पचास फीट ऊंचे इस इंदिर की बनावट और कला देखते ही बनती है। देखनेवाली बात यह है कि यह धाम जितनी अधिक ऊंचाई पर बसा है यहां पहुंचना उतना ही आसान और कम समय लगता है। चमोली के ठीक बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच गोपेश्वर-ऊखीमठ मोटर मार्ग पर चोपता नामक चट्टी से पैदल तीन किलोमीटर चढ़ाई के बाद तुंगनाथ धाम पहुंच जाते हैं।

यह मंदिर किस काल का है और किसने बनाया इसकी प्रामाणिक जानकारी अभी तक नहीं मिल पाई है। क्षेत्रीय लोग पाण्डवॊं द्वारा निर्मित बताते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने उत्तराखंड यात्रा के दौरान इस मंदिर को बनाया था। मंदिर के गर्भगृह में शंकराचार्य की भव्य मूर्ति है, तो पाण्डवॊं की भी प्रतिमायें हैं। वेदव्यास और काल भैरॊ की दो अष्टधातु की मूर्तियों सहित गर्भगृह में दुर्लभ मूर्तियों की भरमार है। लगभग सभी प्रमुख देवी-देवता यहां आसीन हैं। एक फुट ऊंचा उत्तर की ओर झुका श्यामवर्णी शिवलिंग विशेष दर्शनीय है। स्थानीय लोग इसे शिवजी की बांह कहते हैं। इसकी भी दिलचस्प लोककथा है।

एक बार पाण्डव श्राप मुक्ति के लिए बाबा भोलेनाथ को खुश करने के लिए घूमते-घूमते केदारनाथ पहुंचे। शिवजी कुपित थे और पांडवॊं को दर्शन देना नहीं चाहते थे। केदारनाथ में जहां स्थानीय लोगों की भैंसें चर रही थी, वहीं शिवाजी ने एक भैंसे का रूप धारण कर लिया और भैसों के झुण्ड में शामिल हो गये। अचानक ही एक असाधारण और नये भैंस को टपका देखकर भीम को बेहद आश्चर्य हुआ। उन्हें शक हुआ कि कहीं शिवजी की करामात तो नहीं है।

भीम ने सोचा एक संकरी घाटी से सभी भैंसे गुजरेंगी, वहीं भीम पांव जमाकर खड़े हो गए। कुछ देर में सभी भैंसें गुजर गईं लेकिन भैंस बने शिव ही पीछे रह गये और धर्मसंकट में पड़ गये। वे कैसे भीम की टांगों के नीचे से गुजरें? भीम माजरा समझ गये। उन्होंने उस असाधारण भैंस को पकड़ना चाहा तो भैंस जमीन के अन्दर धंसने लगी भीम केवल पृष्ठभाग ही पकड़ पाये। कहा जाता है कि शिवजी के ये अंग विग्रह के रूप में पांच जगहों पर निकले। पृष्ठभाग केदारनाथ में निकला। जहां आज भी मुख्यत: इसकी पूजा होती है। मध्य भाग मदमहेश्वर में निकला, बाहें तुंगनाथ, मुंह रुद्रनाथ और जटायें कल्पनाथ में प्रकट हुईं। ये पांचों पांच धाम पंचकेदार के नाम से जाने जाते हैं।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

पहाड़ की चोटी पर समुद्र


उत्तराखंड की भारत-चीन सीमा पर फौजी जिंदगी के अलावा प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार भी है। पहाड़ की १७ हजार फीट ऊंची चोटी पर समुद्र। सौ करोड़ साल पुराना यह समुद्र पलक-पांवड़े बिछाए लफथल में आपका इंतजार कर रहा है। मगरमच्छ, कछुआ, घोंघा, सीप, केंचुआ, व्हेल, शार्क, सांप और स्टार फिश और समुद्री जीवों की अनगिनत किस्में आपके स्पर्श को बेताब हैं। अरे हां, आपकी पंसदीदा मछलियों की ढेरों किस्में भी लफथल में जहां-तहां बिखरी हैं। मगर ध्यान रहे ये मछलियां खाई नहीं जा सकती हैं क्योंकि ये करोड़ों वर्ष बासी हैं और आपके इंतजार में सूखकर पत्थर हो गई हैं।

पहाड़ की चोटी पर समुद्री जीव? चौंकिएगा नहीं। उत्तराखंड के चमोली जनपद स्थित लफथल की चोटी पर फैली समुद्री जीवों की लंबी श्रृंखला दरअसल जीवाश्मों की शक्ल में मौजूद हैं। काबिलेगौर है कि आज जहां हिमालय है, पांच करोड़ साल पहले वहां टेथिस सागर हुआ करता था। लफथल वो इलाका है जो उस वक्त टेथिस सागर की तलहटी में था। टेथिस से हिमालय बनने की प्रक्रिया में तब प्रागैतिहासिक काल की नदियों द्वारा तात्कालिक महाद्वीपों से लाई गई मिट्टी की तहों में समुद्री जीव दब गए। पृथ्वी की गर्मी और दबाव से वो धूल की परतें चट्टानों में बदल गईं। पृथ्वी के लगातार पड़ते बलों ने इन चट्टानों को पहाड़ की चोटी तक पहुंचा दिया। यही कारण है कि इन चट्टानों में दबे समुद्री जीवों के जीवाश्म लफथल की चोटी पर शान से विराजमान हैं।

उत्तराखंड के मानचित्र पर लफथल इलाका भले ही उपेझित पड़ा है मगर टेथिसिसन पर्वत श्रृंखला की इस चोटी पर सौ करोड़ से पांच करोड़ साल पुराना समुद्री इतिहास बेहिसाब बिखरा पड़ा है। जीवाश्म विग्यानियों के लिए तो यह चोटी खुली प्रयोगशाला है। लफथल पहुंचकर यह देखना भी सचमुच कौतूहल भरा है कि समुद्र में जब हिमालय की शुरुआत हुई थी तो उस वक्त कैसा रहा होगा यहां के जीवों का जीवन। लफथल में ५० करोड़ साल पुराने रीढ़ वाले (कोन्ड्रोन प्रजाति) के समुद्री जीवों के अवशेष भी हैं तो २५ करोड़ साल पुराने मछली के जीवाश्म भी।

१३ से १७ करोड़ साल पुराने शिफेलोपोडा प्रजाति के समुद्री जीवों को पत्थर में निहारना भी कम रोमांचकारी नहीं है। शिफेलोपोडा प्रजाति के जीव तो यहां यह भी बताते हैं कि १३ करोड़ वर्ष पूर्व टेथिस सागर की गहराई १००० मीटर रही होगी। वाडिया भू-विग्यान संस्थान के जीवाश्म विग्यानी डॉ आर जे आजमी कहते हैं कि लफथल तो वो जगह है जहां हिमालय की उत्पत्ति और समुद्र के आने-जाने की कहानी जन्म लेती है। समय के साथ पत्थर बन गए समुद्री जीवों के जीवाश्मों में पूरे एक जमाने का रहस्य छिपा हुआ है। लफथल की शक्ल में मिले कुदरत के इस नायाब तोहफे को उत्तराखंड और केंद्र सरकार भले ही पूरी तरह से भूल गए हैं मगर बावजूद इसके यहां फैले अवशेष समुद्र विग्यान की एक पूरी कहानी बयां करते हैं।

दरअसल, समुद्र को समझने की एक खुली खिड़की है लफथल। पांच करोड़ साल पहले तक कैसा रहा होगा टेथिस सागर? समय के साथ क्या बदलाव आए? पानी के खारेपन और तापमान ने समुद्री जीवों को कितना प्रभावित किया इसका पूरा ब्यौरा भी लफथल में मौजूद है। यही नहीं, विभिन्न प्रजाति के समुद्री जीव बताते हैं कि समुद्र की गहराई किस काल में क्या रही होगी। जीवों में शुरूआती लक्शण क्या थे। पानी में नमक और रोशनी कितनी पहुंच रही थी तब। सबकुछ लफथल की चोटी पर विराजमान है। वाडिया भू-विग्यान संस्थान के ही जीवाश्म विग्यानी बी एन तिवारी कहते हैं कि लफथल में मिलने वाले जीवाश्म हमारे पुरखों की डायरी हैं। डायरी को पढ़ते हुए हम समुद्र का इतिहास तो जान ही रहे होते हैं हिमालय के गुजरे कल से भी रू-ब-रू होते जाते हैं। डॉ. तिवारी के कथन को जीवाश्म विग्यानी किशोर कुमार कुछ यूं आगे बढ़ाते हैं- समुद्र की तलहटी कैसे पहाड़ की चोटी में तब्दील हो गई यह अपने आप में चौंकाने वाली बात है। समय से साथ पत्थर बन गए जीवाश्मों में एक पूरा समुद्री संसार छिपा हुआ है।

लफथल में अतीत के समुद्र के दर्शन करना जहां अपने आप में रोमांच पैदा करता है वहीं उत्तराखंड में प्रकृति के इस अद्भुत चमत्कार से बेरुखी भी कम चौंकाने वाली नहीं है। दुनियाभर में लफथल जैसी जगहें जहां भी हैं वहां की सरकारें इन्हें सहेजे हुए हैं। दुर्भाग्य है कि प्रागैतिहासिक महत्व वाली जगह उत्तराखंड में सूनी पड़ी हैं। पर्यटन विभाग के मानचित्र में तो दूर स्थानीय लोग तक इस जगह से बेखबर हैं।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

एक गुमनाम जिसके नाम पर है एवरेस्ट

पर्वतॊं की रानी मसूरी से भला कौन अपरिचित है? सौंदर्य से परे इस शहर की समृद्धि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है। कम ही लोग जानते हैं कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउंट एरेस्ट की खोज मसूरी में रहे महान सर्वेक्षक जार्ज एवरेस्ट के सहयोगियों ने की थी। इस खोजी पुरुष के नाम पर ही इस शिखर का नाम एवरेस्ट पड़ा।

मसूरी शहर से कोई छह किमी पश्चिम की ओर लगभग आठ हजार फीट ऊंचाई पर एक स्थल है- पार्क स्टेट। निहायत शांत निर्जन। एक ऊंचे टीले पर खंडहर हो चुकी पुरानी इमारत दृष्टिगोचर होती है। इसी ऐतिहासिक स्थल है पर सर जार्ज एवरेस्ट ने डेरा डाला और हीं गहन शोध कर उन्होंने दुनिया के सबसे ऊंचे हिमशिखर का पता लगाया था।

जार्ज एवरेस्ट ब्रिटिश आर्टलरी सेना में अधिकारी थे। सन् १८०३ से लेकर १८४३ तक वे भारत में सर्वेयर जनरल के पद में रहे। भारत में सबसे पहले आधुनिक भू-गणितीय सर्वेक्षण की नींव रखने का श्रेय उन्हें ही जाता है। वे असाधारण प्रतिभा के अन्वेषी सर्वेक्षक थे। भारत में पहुंचते ही उन्होंने सर्वेक्षण कार्य शुरू कर दिया। वे अपने दल के साथ भिन्न क्षेत्रों से होते हुए उत्तर प्रदेश के मथुरा मुजफ्फरनगर पहुंचे। इन जगहों पर वे कुछ दिन रुके और अपने सर्वेक्षण कार्य योजना को अंजाम देते रहे। आज भी मुजफ्फरनगर में उनकी यादगार के रूप में सर जार्ज एवरेस्ट भवन उस वक्त की याद दिलाता है। मुजफ्फरनगर से आगे बढ़ते ही वे सन् १८३३ में मसूरी पहुंचे। मसूरी के प्राकृतिक सौंदर्य से वशीभूत होकर उन्होंने यहीं डेरा डाल लिया और सर्वेक्षण कार्य जारी रखा।

ब्रिटिश सरकार ने उनके भारत में किए जा रहे सर्वेक्षण कार्यो से प्रसन्न होकर उन्हें भारत का सर्वप्रथम सर्वेयर जनरल नियुक्त किया। इसी दौरान उन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी की खोज करके विश्व भर में तहलका मचा दिया। उन्हीं के नाम से उस शिखर का नाम पड़ गया। १८४३ में वे अपने पद से सेवानिवृत्त होकर अपने देश इंगलैंड चले गये। सन् १८६ ६ में उनकी मृत्यु हो गई। उनके किए गये अथक कार्य अमिट इतिहास बनकर अमर हो गये।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बिस्सू मेला: आज भी जारी है युद्ध

यूं तो बिषुवत संक्रांति के दिन उत्तराखंड में जगह-जगह बड़े मेले जुटते हैं। लेकिन गढ़वाल के पश्चिमी छोर में बसे उत्तरकाशी जनपद के सीमांत गांवॊं में बिस्सू मेले का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता है। हिमाचल की सीमा से लगे गांव भुटाणू, टिकोची, मैंजणी, किरोली में यह मेला कुछ निराला ही होता है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का नाम बिषुवत संक्रांति के नाम से बिगड़कर बिस्सू पड़ गया।

मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबांकुरे इन्हीं गांवॊं के लोग होते हैं। उत्सह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुल नाद में बजते हैं रणसिंधे और ढोल-दमाऊ वाद्य-मंत्र। दर्शकों की ठसाठस भीड़ मकान की छतों तक जमी रहती है।

घबराइए नहीं, यह युद्ध असल नहीं है। यह एक लोक कला का रूप है और नृत्य शैली में किया जाता है। यहां की बोली में इस युद्ध को ‘ठोडा कहते हैं। खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजाते रहते हैं। लयबद्ध ताल पर ढोल,-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्ध नृत्य का अंदाज भी बदलता रहता है। युवक -युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं।

वि‍द्वानॊं का मानना है कि यह विधा महाभारत के युद्ध का ही प्रतीकात्मक रूप है। यह खेल हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला सिरमौर जिले के दूरस्थ गांवॊं में भी खेला जाता है। आज के बदलते परिवेश में टूटती-बिखरती मिथकीय मान्यताओं के बीच भी सुदूरर्ती क्षेत्रों की लोक परंपराएं धुंधलाई हैं। आज के परमाणु युग में उनका पौराणिक धनुष बाण युद्ध जारी है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

पत्थर में खिलता है कमल


वर्ष में ज्यादातर समय बर्फ से ढके हिमालय की छटा वर्षा ऋतु के दौरान निराली हो जाती है। जून तक के महीने में सूर्य की तीखी किरणें हिमालय पर जमी बर्फ को शायद ही विचलित कर पाती हो लेकिन मानसून आने के साथ ही प्रकृति अपना रंग दिखाने लगती है और चारों ओर होती है जड़ी-बूटियों, फूलों की बहार। इस मनमोहक हरियाली के बीच होती है प्रकृति रूपी चित्रकार की अनूठी रचना ‘ब्रह्मकमलज् जिसका जीवन सिर्फ तीन महीने का होता है।

अगस्त सितंबर में यहां चट्टानों पत्थरों पर आसानी से खिलनेवाला ब्रह्मकमल एक दुर्लभ, काफी बड़े आकार का और अत्यन्त सुगंध युक्त होता है। संपूर्ण उत्तराखंड में इसे सुख-सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है, इसलिए इसे एक अनमोल विरासत के तौर पर लोग अपने घरों में संभाल कर रखते हैं। यह फूल मुरझाने पर भी खुशबू को फैलाए रखता है। क्रीम रंग की पंखुड़ियों से लिपटे रहने से फूल का नाम कमल है लेकिन इसका कमल की जाति से कोई संबंध नहीं है।

इससे एक पौराणिक कथा जुड़ी है। कहा जाता है कि पांडों के अज्ञातास के दौरान गढ़वाल स्थित पाण्डुकेसर के निकट अलकनंदा और पुष्पाती के संगम पर जब द्रोपदी स्नान कर रही थी तो उनकी नजर एक ऐसे मनमोहक पुष्प पर पड़ी जो तेज धारा में बहता हुआ उनकी आंखों से ओझल हो गया। द्रोपदी ने भीम से उस पुष्प को ढूंढ लाने का आग्रह किया। भीम उसे ढूंढते-ढूंढते फूलों की घाटी तक जा पहुंचे। इन्हीं फूलों में सबसे आकर्षक और दिव्य पुष्प था-ब्रह्मकमल। भीम इन ब्रह्मकमलों को तोड़ लाए और द्रोपदी ने इसी से भगान की पूजा की।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

रहस्यमय रूपकुंड, जहां बिखरे हैं नरकंकाल



दुर्गम यात्रा के शौकीनों के लिए गढवाल वास्तव में स्वर्ग है। ऊंचे हिमशिखरों की छांव में यहां ऐसे स्थल हैं जो पर्यटकों को प्रबल आकर्षण की डोर से बांध लेती हैं। इन्हीं में एक अद्वितीय सौन्दर्य स्थली है-सुप्रसिद्ध रूपकुण्ड झील जो आज भी पर्यटकों के लिए एक रहस्य बनी हुई है। रहस्य का कारण है झील के किनारे प्राचीन मानव अस्थियों का बिखरा होना। असाधारण नरकंकाल पाये जाने के कारण यह रहस्यमयी झील विश्वविख्यात हो गई है।

इस प्रसिद्धि के बावजूद रहस्य का पता नहीं चल पाया कि वे लोग कौन थे जो यहां ढेर हो गये? बहरहाल यह स्थल अब साहसी पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र बना है। सन् १९५७ में लखनऊ विश्ववि‌द्धालय से विख्यात नृंशशास्त्री डा. डी.एन.मजूमदार ने यहां आकर कुछ मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डा. गिफन को भेजे जिन्होंने रेडियो कार्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को ४००-६ ०० साल पुराना बताया।

यह स्थल चमोली जनपद में समुद्रतल से ४७७८ मीटर की ऊंचाई पर और नन्दाघुंटी शिखर की तलहटी पर स्थित है। झील से सटा ज्यूरांगली दर्रा (५३५५मीटर) है। रूपकुंड तक का मार्ग अत्यंत मोहक और प्राकृतिक छटाओं से भरा है। घने जंगल, मखमली घास के चरागाह, फूलों की बहार, झरनों नदी-नालों का शोर, बड़ी-बड़ी गुफाएं, गांव, खेत सर्वत्र एक सम्मोहन पसरा हुआ है। गहरी खामोशी में डूबी चट्टानों के बीहड़ जमघट में भी एक आनन्द छुपा है। रूपकुंड के लिए आखिरी बस स्टाप बगरीगाड़ है। यहां से ४१ किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। बगरीगाड़ में पोर्टर गाइड मिल जाते हैं, यहीं से इन्हें साथ ले चलना बेहतर रहता है। खाने-पीने, पहनने का पर्याप्त सामान लेकर ही ट्रैकिंग शुरू करनी चाहिए।

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

हिमालय में एटमी आफत

चीन के परमाणु संयत्रों पर नजर रखने के लिए नंदादेवी पर लगाया गया न्यूक्लियर डिवाइस अब तक लापता, बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट में परमाणु रेडिएशन की पुष्टि
लक्ष्मी प्रसाद पंत

कोपेनहेगन में धरती को बचाने के लिए जहां 192 देशों के प्रतिनिधि चिंतन-मनन में जुटे हैं वहीं हिमालय में 44 साल से गुम न्यूक्लियर डिवाइस को लेकर कहीं कोई चिंता नहीं है। हकीकत यह है कि चार पौंड प्लूटोनियम से भरी यह डिवाइस ग्लोबल वार्मिग से कई गुना खतरनाक है। बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की हालिया रिपोर्ट तो यहां तक कह रही है कि जिस नंदादेवी पर्वत पर यह न्यूकिलर डिवाइस गुम हुआ था उस क्षेत्र में रेडिएशन शुरू भी हो गया है।
इस लापता न्यूक्लियर डिवाइस का सच आखिर क्या है? इसी साल का जाब खोजने के लिए जब मैं नंदादेवी सेंचुरी के आखिरी गांव मलारी और लाता पहुंचा तो यह जानकर हैरान रह गया कि इन दोनों गांवॊं में 44 साल बाद भी न्यूक्लियर डिवाइस का खौफ जस का तस है। नंदादेवी बचाओ अभियान से जुड़े सक्रिय कार्यकर्ता सुनील कैंथोला तो यहां तक कहते हैं कि गुजरे 44 सालों से इस मसले पर चिंता जताई रही है लेकिन सरकारी स्तर पर अभी तक कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई है। बकौल कैंथॊला पानी में परमाणु रेडिएशन को लेकर बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट ने हमारी शंकाओं को सच कर दिया है। काबिलेगौर है कि 1965 को नंदादेवी के जिस कैप चार से न्यूक्लियर डिवाइस गायब हुआ था उसके ठीक नीचे श्रृषि गंगा निकलती है जो गंगा का प्रमुख जल स्रोत है। असल खतरा अब यह कि अगर डिवाइस से रेडिएशन होता है, या जैसा कि बोस्टन कैमिकल डेटा कॉरपोरेशन की रिपोर्ट बताती है कि रेडिएशन हो रहा है तो हालात विस्फॊटक हैं। रिपोर्ट यह भी कह रही है कि जहां न्यूक्लियर डिवाइस गुम हुआ था उस पूरे क्षेत्र की फिर से गहन साइंटिफिक पड़ताल होनी चाहिए। चिंताजनक यह भी है कि इस रिपोर्ट के बाद भी भारत सरकार हरकत में नहीं आई है। अभी तक ऋषि गंगा और गंगा के पानी के सैंपल का टेस्ट न कराया जाना भी सवाल खड़े कर रहा है।

खतरनाक है रिसाव

1965 में चीन के परमाणु संयत्रों और हरकतों पर नजर रखने के लिए अमरीका और भारत ने मिलकर उत्तराखंड की
नंदादेवी पर्वत के कैंप चार पर न्यूक्लियर डिवाइस रखा था। लेकिन बर्फीला तूफान आने के कारण डिवाइस बर्फ में कहीं गुम हो गया और आज तक नहीं मिल पाया है। इसमें प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 का इस्तेमाल किया गया जिसका रिसाव बहुत खतरनाक है।

खोजने के लिए चले अभियान
16 मई 1966 को न्यूकिलर डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए पहला अभियान चला। डिवाइस को खोजने के लिए 2009 तक क्लीन नंदादेवी के नाम से करीब 18 अभियान चलाए जा चुके हैं। भारत सरकार डिवाइस को ढूंढ़ने के लिए अमेरिका के छह हस्की हैलिकाप्टर तक की मदद भी ले चुकी है लेकिन कामयाबी अभी दूर है।

और अब खतरा

वैसे तो न्यूक्लियर डिवाइस से खतरा १९६५ से बना हुआ है लेकिन 2005-०६ में अमेरिकी पर्वतारॊही पेट टाकेडा नंदादेवी सेंचुरी से मिट्टी और पानी की रेत के कुछ सैंपल लेकर गए। उन्होंने इनकी जांच जब अमरीका की बोस्टन कैमिकल डाटा कॉरपोरेशन की थी तो इस सैंपल के परमाणु विकिरण से प्रदूषित होने का खुलासा हुआ। सैंपल की जांच में प्लूटोनियम 238 और प्लूटोनियम 239 के अंश मिले हैं। काबिलेगौर है कि अकेले प्लूटोनियम 238 की आधी उम्र ही 90 साल है और यह पूरी तरह खत्म होने में एक हजार साल लेगा।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

फूलों की अनूठी घाटी

जहां मिलती हैं फूलों की तीन सौ प्रजातियां
हिममण्डित शिखरों की गोद में बसी विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी से भला कौन अपरिचित है। बात सन् १९३१ की है, गढ़वाल स्थित कामेट शिखर (२५,४४७ फीट) पर आरोहण करने वाले दल में प्रसिद्ध ब्रिटिश पर्वतारोही फ्रैंक स्मिथ थे जो सफल आरोहण के बाद धौली गंगा के निकट गमशाली गांव से रास्ता भटक जाने के बाद पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते १६७०० फीट ऊंचा दर्रा पार करते भ्यूंडार घाटी पहुंचे। वहां से कुछ आगे बढ़ने पर सहसा अकल्पनीय खुशी से उछल पड़े, क्योंकि वे एक स्वर्गिक खूबसूरत घाटी में पांव रख चुके थे जहां राशि-राशि प्राकृतिक फूलों का सैलाब लहलहा रहा था। वे भावविभॊर और मंत्रमुग्ध होकर फूलों से मिले सौंदर्य को देखकर ठगे से रह गए। और अपना तम्बू वहीं तान दिया।

सन् १९३७ में वे दुबारा इस घाटी में पहुंचे। गहन शोध कर उन्होंने लगभग ३०० किस्म की फूल की प्रजातियों को ढूंढ निकाला। वहां से लौटकर उन्होंने Valley of flowers पुस्तक लिखी जिससे फूलों की यह घाटी विश्व प्रसिद्ध हो गई। ८ ७.५ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली यह घाटी नम्बर-दिसम्बर से अप्रैल-मई तक बर्फ से ढकी रहती है। जून में बर्फ पिघलने के साथ ही हरियाली शुरू हो जाती है। जुलाई से घाटी में फूलों से महकनी शुरू हो जाती है। अगस्त में घाटी में फूलों का यौवन सर्वाधिक दर्शनीय और आकर्षक हो जाता है। अक्टूबर में फूल धीरे-धीरे कुम्हला जाते हैं।

फूलों की घाटी में ब्रह्मकमल, एकोनिटस एट्राक्स, रोडोड्रेडोन (बुरांस), पौपी, रोजी, र्जीनिया, लिगुजेरिया, सेक्सीफेगा, ससूरिया ओवेलाटा, हेटरीफिल्लम, भूतकोशी, पेस्टोरिस, थाइमस लाइनियेरिस, एंजिलिका ग्लूका, जैसियाना कुरा, ओनेस्मा, इमोडी, रियम इमोडी, रियम यूरक्रोफिटटोनम, नाडरेल्टैकिस ग्रेंडिफोरम, पोलिगेनिटिम र्टिसिलेटम आदि समेत कई प्रजातियों के फूल पाए जाते हैं। यहां पहुंचने के लिए ऋषिकेश से गोविन्द घाट जो कि समुद्र तल से १८२९ मीटर की ऊंचाई पर है बस की सुविधा है। गॊविंद घाट से फूलों की घाटी तक १७ किमी का सफर पैदल ही तय करना पड़ता है। मजे की बात यह है कि फूलों की घाट के पास दो और बड़े तीर्थ ब्रदीनाथ धाम और हेमकुण्ड धाम हैं जहां हर साल हजारों श्रद्धालु आते हैं।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

रेलगाड़ियों का रोमांस

रस्किन बॉन्ड

‘रोमांस आया सवा नौ बजे,’ यह लिखा था रुडयार्ड किपलिंग ने, जिनकी कहानियां पहले-पहल भारतीय रेलवे लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित संग्रह में छपी थीं। जिसने भी उनका उपन्यास किम पढ़ा है, वह लंबी-लंबी ट्रेन यात्राओं का वर्णन कभी नहीं भूल सकता। किम और लामा ने लाहौर से बनारस के बीच ट्रेन से यात्रा की थी।

‘जैसे ही 3.25 साउथ बाउंड चिंघाड़ती हुई स्टेशन में दाखिल हुई तो सोने वाले हरकत में आ गए। स्टेशन चारों ओर चिल्ल पों, आवाजों, पानी और मिठाई बेचने वालों के शोर, पुलिस की झिड़कियों और अपना बोरिया-बिस्तर उठाए, परिवार को संभालती औरतों और उनके पतियों की चें-चें, पें-पें से गुलजार हो उठा।

हिंदुस्तान के भीड़भाड़ भरे रेलवे प्लेटफॉर्म का दृश्य आज भी कमोबेश वैसा ही है। सिर्फ भीड़ ज्यादा बढ़ गई है। ट्रेनों में सफर करने वाले लोगांे की संख्या में सौगुने का इजाफा हो गया है और उतना ही इजाफा हुआ है ट्रेनों की संख्या में भी। आज एक दिन में 7,000 से भी ज्यादा ट्रेनें चलती हैं। वर्ष 1853 में हिंदुस्तान में पहली बार बंबई से ठाणो के बीच भाप के इंजन वाली रेल ने 34 किलोमीटर का सफर तय किया था। हर्षोल्लास करती भीड़, 21 तोपों की सलामी और बैंड की धुनों के बीच 14 डिब्बों के साथ इंजन धीमी गति के साथ रेलवे स्टेशन से बाहर निकला था।

इसके पचास साल बाद ही भारत में रेलवे लाइनों का जाल-सा बिछ गया, उत्तर दक्षिण से और पूरब पश्चिम से जुड़ गया। इससे लोगों को उनके देश की लंबाई, चौड़ाई और विविधता की पड़ताल करने का पहली बार मौका मिला। तब उन्हें यात्राओं से मोहब्बत हुई और यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है।

आज देश का प्रत्येक रेलवे स्टेशन चाहे वह छोटा हो या बड़ा, विभिन्न वर्गो के लोगों से हमारा परिचय करवाता है : उत्तर के तीर्थस्थलों की यात्रा करने वाले दक्षिण भारतीय, दक्षिण के सुंदर मंदिरों की ओर प्रस्थान करने वाले उत्तर भारतीय, फूलमालाओं से लदे वीआईपी, अपने भक्तों और प्रशंसकों से घिरे गुरु या ‘भगवान’, हर एक इंच पर कब्जा जमाए बैठे बाराती-घराती, कस्बों की ओर जाते किसान, छुट्टियों में अपने घर जाते सेना के जवान।

मैं स्वीकार करता हूं कि रेलवे प्लेटफॉर्म मेरी कमजोरी रहे हैं। कई बार मैं केवल इसीलिए प्लेटफॉर्म टिकट ले लेता हूं ताकि मैं एक-दो घंटे प्लेटफॉर्म की बेंच पर बिता सकूं। मैं वहां आने-जाने वाली रेलगाड़ियों को निहारता रहता हूं। इधर-उधर होने वाले यात्रियों, व्यापार करने वाले हॉकरों, यात्रियों से बहस करते कुलियों, सामान गंवाने वाले यात्रियों और अपना आपा खोने वाले स्टेशन मास्टर को देखता हूं। मुझे लगता है कि स्टेशनों और स्टेशन मास्टरांे को लेकर मेरे मन में पूरी सहानुभूति रही है। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि 1920 के दशक में मेरे नानाजी सेंट्रल रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। मेरे खून में उसका थोड़ा-सा असर तो रहेगा ही।

एक कथा लेखक होने के नाते मुझे प्लेटफॉर्म पर फुर्सत के क्षण बिताने के दौरान अक्सर उस समय अपनी कहानी के सूत्र मिल जाते हैं। मार्क ट्वेन ने अपनी किताब इन ए ट्रैम्प अब्रॉड में इसे ‘भारतीय रेलवे स्टेशनों का निरंतर मोहक और शानदार तमाशा कहा है।’ भारत के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां अनेक जातियां और धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं, लेकिन ऐसा मानना गलत है। यह वास्तव में लोगों का ऐसा ‘मोजेक’ है, जिसे रेलगाड़ी से देखना सबसे बेहतर है, जो बिखरे हुए टुकड़ों को जोड़ देती हैं।

रेलवे बुकस्टॉल भी मुझे आकषिर्त करते हैं। ये पन्ने उलट-पुलट करने के अच्छे स्थान होते हैं और मैं हमेशा वहां से कुछ न कुछ जरूर खरीदता हूं, फिर भले ही वह पिछले महीने की ज्योतिषीय मार्गदर्शिका ही क्यों न हो। ज्योतिष संबंधी ये किताबें कई बार रेलवे टाइम टेबल के बाजू में रखी होती हैं। दोनों की सलाह से अपना रेलवे टिकट खरीदिए! कुछ यात्री ऐसे होते हैं, अपनी पीठ पर बैग लटकाए यात्रा पर निकल पड़ते हैं। ये दूसरे दर्जे के डिब्बों में यात्रा करते हैं ताकि वे अधिक से अधिक सहयात्रियों से मिल सकें।

बिल इनमें से ही एक है, जो रेलगाड़ी से भारत की लंबाई-चौड़ाई को नाप चुका है। उसने अपनी सीट कभी हुक्का पीने वाले किसान के साथ साझा की है तो कभी केसरिया वस्त्र लपेटे भिक्षु के साथ। उसके बारे में जब अंतिम बार मुझे पता चला, तब वह दक्षिण भारत के किसी शहर डिंडीगुल में था। उसने भारत के सभी 7,000 रेलवे स्टेशनों से गुजरने का संकल्प लिया है।

निचले हिमालय में कांगड़ा घाटी रेलवे से की गई यात्रा मेरी पसंदीदा रेल यात्राओं में से एक है। खासकर यह रेल लाइन इस बात का सबूत है कि रेलवे इंजीनियर प्राकृतिक सुंदरता के साथ तालमेल बिठाकर भी कोई कार्य कर सकते हैं। पहाड़ियों व घाटियों की शोभा व भव्यता के साथ छेड़खानी किए बगैर रेलवे इंजीनियरों ने इस तरह से रेल लाइन बिछाई कि यात्रियों को इस बेहद मंत्रमुग्ध करने वाले क्षेत्र के दर्शन हो सकें।

पटरियों के मोहक मोड़ों, पुलों के सुडौल ढांचों और पहाड़ों की सीधी कटाई से इस क्षेत्र की कठोरता से राहत मिली है। इस लाइन से गुजरना लुकाछिपी के समान एहसास देता है। 1920 के दशक में कांगड़ा रेलवे के इंजीनियरों ने रेलवे लाइन की राह में आने वाली पहाड़ियों की अंधाधुंध खुदाई को बड़ी ही कुशलता के साथ टाला। इस लाइन पर एक भी सुरंग नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दिल से ताओवादी इंजीनियरों ने प्रकृति के खिलाफ चलने के बजाय उसके साथ चलना स्वीकार किया।

इसके उलट शिमला को देखिए। यदि आप शिमला जाने वाली ट्रेन में बैठते हैं तो आपका आधा सफर धरती की अंतड़ियों से गुजरते हुए ही बीतेगा, जगह-जगह सुरंग ही सुरंग। आपको सौ से अधिक सुरंगें मिलेंगी। इसका मतलब यह नहीं है कि शिमला भ्रमण से मुझे आपत्ति होती है। अपने स्कूली दिनों में मैं इस हिल स्टेशन पर 103 सुरंगों से होते हुए आता था। रास्ते में ट्रेन एक बहुत छोटे से स्टेशन पर रुका करती थी। उस स्टेशन का नाम बड़ोग था, जहां हमेशा बहुत ही शानदार नाश्ता दिया जाता था। दिसंबर के महीने में हम बड़ोग में अमरबेल के गुच्छे खरीदते थे। बड़ोग अमरबेल के लिए काफी प्रसिद्ध था।

मुझे नॉस्टेल्जिया का शिकार नहीं होना चाहिए। यह सच है कि भाप के इंजिन के साथ यात्रा करने का रोमांच कुछ अलग ही था, लेकिन लंबी और अंधेरी सुरंगों में कतई नहीं।

लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

टिहरी के कुछ और भी हैं मायने

यह संदेश टिहरी : न जीवन, न लहर कॊ पढने के बाद नेमिष हेमंत ने भेजा है। टिहरी कॊ लेकर नेमिष का अपना नजरिया है और विकास कॊ लेकर अपने तर्क। लेकिन हमारा मानना है कि विकास के सपनॊं कॊ सिर्फ सरकारी चश्मे से तॊ नहीं देखा जाना चाहिए। टिहरी का दर्द सिर्फ एक शहर के डूबने की पीडा नहीं है। टिहरी के साथ हमारा इतिहास वर्तमान और भविष्य भी डूबा है।


मैं बहुत कुछ टिहरी बांध के विषय में नहीं जानता। केवल कुछ सुनता आया हूं। आगे मैं जो कहने जा रहा हूं। शायद उसे पढ़कर लोग यह भी कहे कि विस्थापित नहीं हो। तो ऐसी बातें निकल रही है। पर, मेरा मानना है कि टिहरी को लेकर इतनी हाय-तौब्बा मचाने की जरूरत भी नहीं है। आखिरकार विकास चाहिए तो कुछ कुर्बानी देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। छोटी सी ही चीज।

गांवों में संपर्क मार्ग बनता है तो कईयों की जमीन, कइयों के मकान उसकी जद में आ जाते हैं। तो क्या सड़क न बने। यह कहते हुए इसका काम रोक देना चाहिए कि विस्थापन किसी भी कीमत पर नहीं होगा। कृषि योग्य भूमि है, इसलिए हम इसे नहीं देंगे। तो फिर हो चूका विकास। वहीं हुआ। विकास नहीं। तो सवाल। हैं तो सवाल। कहां तक जायज है। मुङो नहीं लगता कि टिहरी बांध को लेकर इतना छाती पीटने वालो को विकास के नाम पर सरकार को कटघरें में खड़ा करने का अधिकार है।

फिर यहां तो सवाल इक बांध का है। जिससे बिजली के साथ सिंचाई और पीने के पानी का मिलता है। कहीं-कहीं यह बाढ़ को रोकने तथा सुखा दूर करने में सहायक होता है। अगर सवाल खड़ा करना ही है तो उस सरकारी तंत्र पर करना चाहिए। जिसने पुर्नवास कायदे से न किया हो। बांध से लाभ न मिला हो। रोजगार न मिला हो।

इसका नहीं कि बांध में फला शहर डुब गया। उसके अवशेष दिखाई पड़ रहे है किसी कंकाल की तरह। लिखा तो काफी अच्छा गया। खासकर हिंदी शब्दों का जादूई प्रयोग हुआ है। किसी पटकथा की तरह। मुङो लगता है कि इन सभी संकलनों को पुस्तक का आकार देना चाहिए। फिर कहूंगा। लिखते समय सोचना चाहिए था कि मुद्दा क्या है। भोपाल का गैस त्रासदी कांड या मुबंई का आतंकवादी हमला नहीं है। जहां सरकार की नाकामी, अर्कमण्यता से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। या फिर नंदीग्राम नहीं। जहां के भौतिक संसाधनों पर बहुत कुछ टाटा का नैनों कार निर्भर नहीं था।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

हिंदुस्तान में हैलॊ हिमालय


पहाड के बारे में हमारे प्रयास कॊ हिंदुस्तान अखबार ने संपादकीय पृष्ठ पर ब्लाग वार्ता में जगह दी है। यह हैलॊ हिमालय के लिए सम्मान की बात है। हमारी कॊशिश है कि लगातार पहाड से जुडे मामलॊं कॊ नए-नए रूप में आप लॊगॊं के सामने पेश करें। हमारी यह कॊशिश आगे भी जारी रहेगी। रवीश जी कॊ विशेष रूप से धन्यवाद, जिन्हॊंने अपने हैलॊ हिमालय के बारे में पूरी संवेदना के साथ लिखा है।

लक्ष्मी प्रसाद पंत