मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बिस्सू मेला: आज भी जारी है युद्ध

यूं तो बिषुवत संक्रांति के दिन उत्तराखंड में जगह-जगह बड़े मेले जुटते हैं। लेकिन गढ़वाल के पश्चिमी छोर में बसे उत्तरकाशी जनपद के सीमांत गांवॊं में बिस्सू मेले का लोगों को बेसब्री से इंतजार रहता है। हिमाचल की सीमा से लगे गांव भुटाणू, टिकोची, मैंजणी, किरोली में यह मेला कुछ निराला ही होता है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का नाम बिषुवत संक्रांति के नाम से बिगड़कर बिस्सू पड़ गया।

मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबांकुरे इन्हीं गांवॊं के लोग होते हैं। उत्सह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुल नाद में बजते हैं रणसिंधे और ढोल-दमाऊ वाद्य-मंत्र। दर्शकों की ठसाठस भीड़ मकान की छतों तक जमी रहती है।

घबराइए नहीं, यह युद्ध असल नहीं है। यह एक लोक कला का रूप है और नृत्य शैली में किया जाता है। यहां की बोली में इस युद्ध को ‘ठोडा कहते हैं। खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े बजाते रहते हैं। लयबद्ध ताल पर ढोल,-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्ध नृत्य का अंदाज भी बदलता रहता है। युवक -युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं।

वि‍द्वानॊं का मानना है कि यह विधा महाभारत के युद्ध का ही प्रतीकात्मक रूप है। यह खेल हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला सिरमौर जिले के दूरस्थ गांवॊं में भी खेला जाता है। आज के बदलते परिवेश में टूटती-बिखरती मिथकीय मान्यताओं के बीच भी सुदूरर्ती क्षेत्रों की लोक परंपराएं धुंधलाई हैं। आज के परमाणु युग में उनका पौराणिक धनुष बाण युद्ध जारी है।