रविवार, 27 दिसंबर 2009

आंखों का वह नीला रंग


रस्किन बॉन्ड
इतने समय से मेरा लिखा पढ़ते-पढ़ते पाठकों को अब तक ये तो समझ में आ ही गया होगा कि बंदर हमेशा मेरे पीछे पड़े रहे हैं और मुझे तंग करते रहे हैं। और मेरे प्यारे पाठको! ऐसा सोचकर आप कुछ गलत भी नहीं कर रहे हैं। और इस समय, जब मैं ये लिख रहा हूं, अभी भी एक बंदर मेरी खिड़की पर बैठा हुआ अपनी खीसें निपोर रहा है। किस्मत से खिड़की बंद है और वह भीतर नहीं आ सकता। मैं उसकी ओर नजरें करके उसे जीभ दिखाता हूं और वो डरकर पीछे हट जाता है। ऐसा लगता है जैसे मैं उसे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से कहीं ज्यादा भयानक नजर आता हूं।

लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता था। कुछ साल पहले की बात है। उस समय मैं जंगल के आखिरी सिरे पर रहता था। उस समय एक छोटी सी बंदरिया चुपचाप शरमाती हुई सी मेरी खिड़की के चौखट पर बैठी रहती थी और बड़ी दोस्ताना जिज्ञासा और उत्सुकता से मेरी ओर देखती रहती थी। उसकी बिरादरी के किसी और सदस्य ने एक इंसान के रूप में मुझमें कोई रुचि नहीं दिखाई, सिर्फ उस छोटी सी बंदरिया को छोड़कर। मैं भी उसे एक बंदर से ज्यादा एक इंसान के रूप में देखता था।

हर सुबह जब मैं बैठा अपने टाइपराइटर पर काम कर रहा होता था तो वह आ जाती थी और वहां चुपचाप बैठी रहती थी। जब मैं कोई कहानी या लेख टाइप कर रहा होता तो उसकी निगाहें मुझ पर ही टिकी रहती थीं। शायद यह मेरा टाइपराइटर था, जो उसे आकर्षित करता था। लेकिन मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि वह मेरी नीली आंखों के आकर्षण में बंधी हुई थी। उसकी आंखें भी नीली थीं। अकसर ऐसा नहीं होता है कि लड़कियां मुझे लेकर रूमानी कल्पनाएं करती हों, लेकिन मुझे यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है कि वह छोटी सी बंदरिया मेरे प्रति आकर्षित थी।

उसकी आंखों में एक शांत, सौम्य और अपनी ओर खींचने वाला भाव था। वह बहुत धीरे-धीरे मुस्कराती और किटकिट की आवाज करती थी। इस आवाज को मैं यूं समझता था कि मानो यह कोई अंतरंग बातचीत हो। अगर मैं उसकी ओर देखता तो वह अखरोट के पेड़ की डाली से कूदकर मेरी खिड़की पर आकर बैठ जाती थी और मेरी ओर ऐसी नजरों से देखती मानो कह रही हो कि मैं भी वहां उसके पास जाऊं। लेकिन मेरे पेड़ पर चढ़ने के दिन बीत चुके थे। साथ ही मैं उसके माता-पिता और जान-पहचान वालों से बहुत खौफ भी खाता था।

एक दिन मैं कमरे में आया और देखा कि वह टाइपराइटर पर बैठी हुई उसके बटनों से खेल रही थी। जब उसने मुझे देखा तो भागकर वापस खिड़की पर चली गई और मेरी तरफ अपराध-बोध भरी नजरों से देखने लगी। मैंने टाइपराइटर पर लगे हुए कागज की ओर निगाह घुमाई। क्या वह मेरे लिए कोई संदेश टाइप कर रही थी? कागज पर कुछ इस तरह लिखा हुआ था- *!,.-रु;:0 - और इसके बाद पंक्ति टूट गई थी। मुझे पूरा विश्वास है कि वह ‘लव’ लिखने की कोशिश कर रही थी।

लेकिन मुझे कभी भी पक्के तौर पर इस बात का पता नहीं चल पाया कि वह क्या लिखना चाह रही थी। जाड़ा आया, तेज बर्फ पड़नी शुरू हो गई और उन बंदरों की पूरी बिरादरी ही वहां से चली गई। मेरी छोटी बंदरिया को भी वे अपने साथ लेते गए। उसके बाद मैंने उसे दोबारा कभी नहीं देखा। शायद उसकी बिरादरी के लोगों ने उसकी कहीं शादी कर दी होगी।

जब भी शादी के बारे में बात चलती है तो अकसर ही मेरे साथ सहानुभूति रखने वाले पाठकों द्वारा मुझसे यह सवाल पूछा जाता है कि आखिर मैंने कभी शादी क्यों नहीं की? यह एक बहुत लंबी और दुखद कहानी है। यहां इन बातों के बीच उस दुखभरी कहानी का जिक्र कतई वाजिब नहीं होगा। लेकिन उसकी जगह मैं अपने एक अंकल बर्थी की कहानी सुना सकता हूं कि क्यों उन्होंने कभी शादी नहीं की। अंकल बर्थी जब जवान थे तो वे इशापोर राइफल फैक्ट्री में काम करते थे। यह फैक्ट्री कलकत्ता के बाहर थी।

आजादी के पहले हिंदुस्तान में बहुत सारे एंग्लो इंडियन और यूरोपीय समुदाय के लोग रहते थे। उनमें से बहुत सारे लोग उस फैक्ट्री में नौकरी करते थे। अंकल बर्थी थोड़ा अधीर और जल्दबाज किस्म के व्यक्ति थे। वे एक लड़की से प्रेम करते थे, जो वहीं सड़क की दूसरी ओर रहा करती थी। एक दिन की बात है। बहुत भीड़-भड़क्के और शोरगुल के नजदीक ही आम का एक बगीचा था। उस बगीचे में उन्होंने बड़ी अधीरता और बेताबी से उस लड़की के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। वह लड़की बहुत उत्साह और खुशी से विवाह के लिए राजी हो गई।

लड़की उनसे उम्र में बड़ी थी और काफी लंबी भी। उस लड़की का फिगर 46-46-46 था। उस लड़की को मैरेलिन दिएत्रिच या मर्लिन मुनरो से जरूर रश्क रहा होगा। लड़की के माता-पिता शादी के लिए राजी हो गए थे। विवाह की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, जब अंकल बर्थी ने अपने इस निर्णय के बारे में एक बार फिर से विचार करना शुरू किया। वह हमेशा हर चीज के बारे में दोबारा सोचते थे। जब उनका वह थोड़े समय का आकर्षण खत्म हो गया तो उन्हें इस बात पर आश्चर्य होने लगा कि सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने उस लड़की में आखिर ऐसा क्या देख लिया। उस लड़की को नाचना पसंद था और बर्थी नाच नहीं पाते थे।

उसका पढ़ना सिर्फ कुछ फिल्मी पत्रिकाओं जैसे हॉलीवुड या रोमांस तक ही सीमित था, जबकि अंकल बर्थी मक्सिम गोर्की और एमिल जोला को भी पढ़ा करते थे। वह खाना नहीं बना सकती थी और न ही अंकल को खाना बनाना आता था। खानसामा रखना बहुत खर्चीला था। उसे बाहर खरीदारी के लिए जाना बहुत पसंद था और बर्थी अंकल की तनख्वाह थी तीन सौ रुपया महीना। शादी की तारीख पक्की हो गई। वह महान दिन आ पहुंचा और चर्च ढेर सारे मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों से भर उठा। पादरी ने अपना गाउन पहना और विवाह की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार हो गया। दुल्हन अपने सफेद शादी के जोड़े में सजी हुई थी। इसी जोड़े में उसकी मां की भी शादी हुई थी। लेकिन अंकल बर्थी का वहां कोई अता-पता नहीं था। आधा घंटा गुजर गया। फिर एक घंटा, दो घंटा बीत गया, लेकिन दूल्हे का कहीं पता नहीं चला।

दरअसल अंकल बर्थी कलकत्ता से भाग गए थे और कहीं जाकर भूमिगत हो गए थे। उसके बाद कुछ समय तक वे भूमिगत ही रहे। इशापोर में हर कोई उनके लौटने का इंतजार कर रहा था। उन सभी ने बहुत अलग-अलग और मजेदार तरीके से सोच रखा था कि वे अंकल बर्थी के साथ क्या करेंगे। उनमें से कुछ लोग तो आज भी उनका इंतजार कर रहे हैं।

ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था, ‘शादी एक ऐसा रोमांस है, जिसमें पहले ही अध्याय में नायक की मृत्यु हो जाती है।’ अंकल बर्थी तो प्राक्कथन में ही गायब हो गए थे।

लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं।

1 टिप्पणी:

L.Goswami ने कहा…

रस्किन बांड वाले लेख अलग लेबल बना कर दिया करें ..पाठकों को सुविधा होगी ...आपका ब्लॉग बहुत अच्छा है ..इसे नियमित उपडेट करते रहिएगा.